Advertisement
24 नवंबर 2025 · NOV 24 , 2025

स्मृतिः पापा फिर मिलते हैं...

डॉ. रामदरश मिश्र का जाना केवल पारिवारिक शोक नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य जगत के लिए एक शताब्दी का अवसान है
रामदरश मिश्र (15 अगस्त 1924– 31 अक्टूबर 2025)

मेरे पिता, हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार डॉ. रामदरश मिश्र का जाना केवल पारिवारिक शोक नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य जगत के लिए एक शताब्दी का अवसान है। गत वर्ष 15 अगस्त 2024 को पिताजी ने शताब्दी वर्ष पूर्ण किया था। यह एक ऐतिहासिक क्षण है क्योंकि पिताजी संभवत आधुनिक भारतीय साहित्य के पहले साहित्यकार रहे, जिनके जीवित रहते उनका शताब्दी वर्ष आयोजित हुआ।

पिछले कुछ महीनों से पिताजी पूर्णतः बिस्तर पर आ गए थे। वे पूर्ण संज्ञान में रहे किंतु पिछले पंद्रह दिन से शारीरिक निष्क्रियता बढ़ती गई और 31 अक्टूबर की सुबह बड़े भाई शशांक मिश्र का फोन आया कि पापा कुछ प्रतिक्रिया नहीं दे रहे, सांसे तो चल रही है। मैं शीघ्रता से भाई के घर पहुंची और देखा कि श्वास-प्रश्वास का क्रम चल रहा है किंतु पापा की आंखें ऊपर शून्य में देख रही हैं। मैंने पापा के कान में कहा, पापा...पापा। लेकिन इस बार वे मेरी आवाज पर मुस्कुराए नहीं, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। आगत की आशंका से मन को मजबूत करने की कोशिश करने लगी, आंसू निकलने लगे, दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। पापा का हाथ अपने हाथ में लेकर मलने लगी, सिर पर धीरे-धीरे हाथ फिराने लगी कि शायद आश्वस्ति का कोई संकेत मिले। गंगाजल का पानी बूंद-बूंद उनके मुंह में डालने लगी, तो थोड़ा सा मुंह हिलता और पानी गटकने का प्रयास करते। किंतु दोपहर होते-होते पानी वापस बाहर आने लगा, सांसें लंबी होती गईं और रात सवा आठ और साढ़े आठ के बीच पापा महाप्रयाण कर गए। पड़ोस के डॉक्टर ने आकर रक्तचाप, धड़कन, नब्ज की परीक्षा करने के बाद सिर हिला दिया। हम भाई-बहन ने निराशा से शून्य हुई आंखों से एक-दूसरे को देखा और फिर आंखें निर्झर बन गईं। मैं पापा का हाथ अपने हाथ में लिए शांत हुआ चेहरा देखती रही। लगा कि अभी कहेंगे, बेटू बहुत रात हो गई अब तुम घर जाओ। कल कॉलेज भी तो जाना है।

थोड़ी देर में शशांक भाई एक लिफाफा लेकर आए और मुझसे कहा कि पापा ने मुझे चार महीने पहले यह लिफाफा दिया था कि इसे उनके जाने के बाद खोलना। भाई ने लिफाफा खोला, तो उसमें पापा का लगभग दो पृष्ठों का हस्तलिखित पत्र था। उसमें विस्तार से लिखा था कि उनके जाने के बाद क्या किया जाए और क्या नहीं। उसमें मुख्यतः लिखा था कि उनके जाने के चौथे दिन बाद उनके अपने आत्मीय साहित्य संसार के लोगों के बीच उन्हें याद किया जाए, बहुत कर्मकांड न किए जाएं। हम सब अवाक थे। यह इस बात का उदहारण है कि पापा ने, जो साहित्य लिखा उसे जीवन ही नहीं मृत्यु के बाद के लिए भी सुनिश्चित किया।

पिछले तीन साल से मां-पापा अपना उत्तम नगर का आवास छोड़कर शशांक भाई के द्वारका स्थित घर में आ गए थे। पहले मां की असाध्य बीमारी, फिर पिताजी का स्वयं का अस्वस्थ होना ऐसे कारण रहे कि पापा फिर उत्तम नगर वापिस अपने घर नहीं लौट पाए। शुरू में वे फ्लैट संस्कृति में सहज नहीं रहे। मां के जाने के बाद का खालीपन भी उन्हें अस्वस्थ कर रहा था, किंतु धीरे-धीरे ब्रह्मा सोसाइटी में उनकी एक दुनिया बनती चली गई। शशांक भाई ने कमरे को  पुस्तकों से भर दिया ताकि पुस्तकों का अभाव न अखरे। डॉ. ओम निश्चल, अलका सिन्हा, डॉ. वेदमित्र शुक्ल, नरेश शांडिल्य, अनिल जोशी, केशव मोहन पाण्डेय आदि आत्मीयों के द्वारका में आसपास ही रहने के कारण एक साहित्यिक समवाय वहां भी बनता चला गया। इन लोगों के साथ देश-विदेश के तमाम आत्मीयों की भारी उपस्थिति होने लगी। स्थिति यह बन गई थी कि शशांक भाई और हमें टाइम स्लॉट बनाने पड़ते थे। पापा के मिलने वालों में साहित्यकार, पत्रकार, राजनेता, प्राध्यापक, शोधार्थी के साथ-साथ वे तमाम दिहाड़ी मजदूर, दर्जी, रिक्शा-चालक, दुकानदार भी थे, जो उत्तम नगर में मां-पिताजी के आत्मीय संसार का हिस्सा थे। फ्लैट संस्कृति में जहां लोग एक-दूसरे से अपरिचित होते हैं, ऐसे में अलसाई हुई ब्रह्मा सोसाइटी मानो अचानक जाग गई। वहां प्रशासन, सुरक्षा गार्ड अचंभित हो गए कि यह कौन व्यक्ति आ गया है, जिससे रोज मिलने इतने लोग आते हैं, इतनी चिट्ठियां आती हैं। धीरे-धीरे उन्हें यह बोध होने लगा कि ब्रह्मा सोसाइटी अब कोई आम स्थान नहीं रह गया है, यह भारतीय साहित्य का एक तीर्थ हो गया है।

पापा के लिए उनकी प्राण शक्ति साहित्य और उनकी पुस्तकें ही रहीं। जब कभी पापा बिस्तर पर थोड़ा घूम जाते और उनकी पुस्तकों की अलमारी उनकी आंख से ओझल हो जाती, तो वे बैचेनी में भाई से कहते कि मुझे घर ले चलो, मैं कहां आ गया, मेरी किताबें कहां है। फिर भाई पापा को बिस्तर पर यथास्थित करते तो अपनी पुस्तकों की अलमारी देख कर प्रसन्न होकर कहते, अरे मैं तो अपने ही घर में हूं।  

मेरी बचपन की यादों में है, पिता की स्नेहमयी आंखें, उनका मुझे साथ लिए-लिए साहित्यिक गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों में जाना। बचपन से ही हम सब भाई-बहनों ने घर में पुस्तकें, पुस्तकें और पुस्तकें ही देखीं। घर में सभी विचारधाराओं के लेखकों, चिंतकों, शोधार्थियों और प्राध्यापकों का आना-जाना देखा है। साहित्य जगत में बेशक वे सभी शीर्ष आलोचक, कवि, नेता रहे हों पर हमारे लिए सभी अंकल, चाचा जी, बुआ जी, ताऊ जी ही थे।

घर में सबसे छोटी होने के कारण मैं पापा की पिछलग्गू रही। पापा जहां-जहां जाते, मैं उनका कुर्ता पकड़े-पकड़े साथ-साथ चलती। मेरे पांव में बचपन में कुछ परेशानी थी। मुझे हल्का सा याद है कि पापा मॉडल टाउन वाले घर से करोल बाग के डॉक्टर के पास मुझे साइकिल पर बैठाकर ले जाते। मैं साइकिल के आगे वाले डंडे पर पापा के आगे बैठ जाती। पापा कोई कविता गुनगुनाते और मैं बीच-बीच में कविता की लय तोड़कर अपनी जिज्ञासाएं पूछती रहती। पापा शांत भाव से जिज्ञासा का उत्तर देते चलते।

अब जब पापा ने इस दुनिया से विदा ली, तो लग रहा है कि जैसे किसी ने घर से आवाज ही छीन ली हो। लोग बहुत है, शशांक भाई, रीता भाभी, मुंबई से आए विवेक भाई-भाभी और कनाडा से पोता उत्सव भी अगले दिन पहुंच गए, पापा के दो चिकित्सा सहायक, संवेदना प्रकट करने आते हुए लोग। लेकिन पापा का खाली बिस्तर घर को, हम सब को खाली कर गया है।

इस विदा के क्षण में भी मुझे यह ज्ञात है कि अन्य भाई बहनों के मुकाबले मेरा दायित्व इस मायने में ज्यादा है कि मुझे उनके शब्दों की विरासत को संभालना है। अपने साहित्य का पूरा विधिक दायित्व भी वे मुझे सौंप गए हैं।

इसलिए मुझे एक हाथ से अपने आंसू भी पोंछते रहना है और दूसरे हाथ से उनकी पुस्तकों को भी सहेजना है। उनकी रचनाएं अब मेरे लिए मात्र स्मृति नहीं, प्रकाश-स्तंभ हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को दिशा दिखाएंगी।

आज मैं बेटी के रूप में नहीं, आपके शब्दों की उत्तराधिकारी के रूप में आपको प्रणाम करती हूं। आपके लिखे हर अक्षर में मैं आपको फिर से खोज लूंगी क्योंकि आप ही ने तो कहा था, ‘‘लेखक की मृत्यु नहीं होती, वह अपने शब्दों में पुनर्जन्म लेता है।”

 

मेरे जाने के बाद

छोड़ जाऊंगा

कुछ कविताएं, कुछ कहानियां, कुछ विचार

जिनमें होंगे

कुछ प्यार के फूल

कुछ तुम्हारे, उसके दर्द की कथाएं

कुछ समय चिंताएं

 

मेरे जाने के बाद

ये मेरे नहीं होंगे

मैं कहां जाऊंगा, किधर जाऊंगा

लौटकर आऊंगा कि नहीं

कुछ पता नहीं लौटकर आया भी तो

न मैं इन्हें पहचानूंगा, न ये मुझे

 

तुम नम्र होकर इनके पास जाओगे

इनसे बोलोगे, बतियाओगे

तो तुम्हें लगेगा ये सब तुम्हारे ही हैं

तुम्हीं में धीरे-धीरे उतर रहे हैं

और तुम्हारे अनजाने ही तुम्हें भीतर से भर रहे हैं

मेरा क्या

भर्त्सना हो या जय जयकार

कोई मुझ तक नहीं पहुंचेगी।

 

कलम

हमारे हाथ में सोने की नहीं

सरकंडे की कलम है।

 

सरकंडे की कलम

खूबसूरत नहीं, सही लिखती है

वह विरोध के मंच लिखती है

प्रशस्ति-पत्र नहीं लिखती है

 

हम कठघरे में खड़े हैं, खड़े रहेंगे

और कठघरे में खड़े हर उठे हुए हाथ को

अपने हाथ में ले लेंगे

 

राजा कौरव हों या पांडव

हम तो सदा वनवास ही झेलेंगे।