आजकल अक्सर हम भारतीय अपना स्वर्णकाल अतीत में ही ढूंढते हैं और उसी को पाने की असफल कोशिश करते हैं। मेरे खयाल से अतीत का स्वर्णकाल मिथ्या है। बात सिर्फ रंगमंच तक ही सीमित रखें तो मेरी दृष्टि में भारतीय रंगमंच का स्वर्णकाल आधुनिक रंगमंच है। इसी के एक बड़े व्यक्तित्व रतन थियम रहे। उनकी मृत्यु भारतीय रंगमंच की ऐसी क्षति है, जिसकी पूर्ति असंभव है। कम से कम निकट भविष्य में।
भारतीय रंगमंच के लिए आधुनिक युग का स्वर्णकाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि इस दौरान, खासकर आजादी के बाद कई ऐसे रंग निर्देशक हुए जिनके रंगकर्म की स्वीकृति सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुई। कावलम नारायण पणिक्कर, बादल सरकार, हबीब तनवीर, इब्राहीम अल्काजी जैसे रंग निर्देशकों के नाम इस सिलसिले में लिए जा सकते हैं। इसी कड़ी में अब तक का आखिरी नाम है रतन थियम। वे जितने भारत में सराहे जाते रहे, उतने ही दूसरे देशों में भी।
यहां एक पक्ष की ओर ध्यान देना जरूरी है। रतन थियम में स्थानीयता भी गहरे तक रची बसी हुई रही। वे न सिर्फ पारंपरिक मणिपुरी रंगमंच से गहरे जुड़े रहे, बल्कि वहां की संस्कृति के दूसरे पक्ष भी उनके रंगकर्म का हिस्सा बने। जैसे वहां का मार्शल आर्ट थांग-टा। हालांकि मणिपुरी रंगमंच पहले से ही समृद्ध रहा है। हेशम कन्हाई लाल जैसे रंग निर्देशक वहां हुए, जिन्होंने भारतीय और मणिपुरी रंगमंच को आधुनिक समय मे संवारा। रतन थियम मणिपुरी रंगमंच को इससे भी आगे ले गए। उनका रंगमंच मणिपुरी रहा लेकिन साथ ही साथ यह वृहत्तर रूप लेकर भारतीय भी होता गया। इसी साल भारत रंग महोत्सव में धर्मवीर भारती की रचना पर आधारित उनके नाटक कनुप्रिया का मंचन हुआ था। नाटक एक हिंदी कवि की रचना का रंगमंचीय आख्यान था। प्रसंगवश यहां यह कहना भी जरूरी है कि अपने समकालीनों में रतन थियम ही ऐसे निर्देशक थे जिनके नाटकों में दृश्यात्मकता के तत्व सर्वाधिक रहे। रंगमंच वैसे तो दृश्य-श्रव्य माध्यम है और हर निर्देशक अपने तरीके से दृश्य और श्रव्य के अनुपात तय करता है। हालांकि रतन थियम के नाटकों में संगीत भी प्रमुख भूमिका निभाता था लेकिन जिसे दृश्य कहते हैं उसकी अभिव्यक्ति उनके नाटकों में सबसे अधिक रहती थी। वेशभूषा और प्रकाश योजना भी दृश्य को ही परिभाषित करते थे। रतन थियम के कनुप्रिया में जो राधा दिखी वह धर्मवीर भारती की राधा से मिलती-जुलती होकर भी कुछ अलग थी। वह बरसाने की राधा नहीं थी, बल्कि मणिपुर की राधा थी और इस प्रक्रिया में वह सार्वदेशिक राधा भी थी।
रतन थियम ने अज्ञेय की नाट्य रचना उत्तर प्रियदर्शी को भी निर्देशित किया। जहां तक मेरी जानकारी है हिंदी भाषी इलाके का कोई निर्देशक इस हिंदी रचना को मंच पर नहीं ला सका है। यहां भी रतन थियम हिंदी की एक कृति को मणिपुरी के साथ सार्वदेशिक बना देते हैं। वैसे उत्तर प्रियदर्शी में उस अशोक की कथा है, जिसमें अहंकार का प्रवेश हो चुका है और वह किस तरह अपने बनाए नरक या कारागार में फंस गया था। पूरा वृत्तांत लंबा है लेकिन फिलहाल जो बात यहां प्रासंगिक है वह यह कि रतन थियम अपनी प्रस्तुति को ऐसा चाक्षुष चमत्कार बना देते हैं जो जादू की तरह लगता है। इसमें एक हाथी का प्रवेश होता है। यह दृश्य इतना लाजबाब है कि दर्शक चमत्कृत रह जाते हैं। धर्मवीर भारती के प्रसिद्ध नाटक अंधा युग को भी उन्होंने अपने अंदाज में खेला।
भारतीय नाट्य परंपरा में भरत मुनि का नाट्य शास्त्र प्रमुख ग्रंथ और नाटक करने का दिशा निर्देश भी है। कम निर्देशक अपनी प्रस्तुतियों में नाट्य शास्त्र के करीब पहुंच पाते हैं। आधुनिक काल में उसके सबसे बड़े प्रयोगकर्ता कावलाम नारायण पणिक्कर हुए। उनके बाद जो भारतीय नाट्य निर्देशक नाट्य शास्त्र के करीब पहुंचे, वे रतन थियम ही थे। यहां यह भी कहना पड़ेगा कि रतन थियम अपनी परंपरा से बाहर निकले और उन्होंने जापान की काबुकी और नोह शैली के भी कई तत्वों का अपने नाटकों में इस्तेमाल किया। इस अर्थ में वे वैश्विक निर्देशक भी हैं।
रतन थियम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक रहे। फिर वे उसके निर्देशक भी बने और आगे चलकर उसके अध्यक्ष भी। वे बड़े निर्देशक तो थे ही, कुशल अभिनेता और अच्छे गायक भी थे। इस सबके अलावा गंभीर प्रशिक्षक और मेहनती शिक्षक भी थे। उन्होंने मणिपुरी के साथ-साथ संस्कृत और हिंदी नाटक भी किए। उन्होंने कई अंग्रेजी के नाटक भी मणिपुरी में किए। शेक्सपीयर के मैकबेथ को मणिपुरी में रूपांतरित किया। ज्यां अनुई के एंटीगनी को भी मणिपुरी में रूपांतरित किया। इस तरह उनकी संवेदना की व्याप्ति सिर्फ एक राज्य, एक देश या एक भाषा तक नहीं थी। उरूभंगम, चक्रव्यूह, नाइन हिल्स वन वैली, ऋतुसंहार जैसी उनकी प्रस्तुतियां भारतीय रंग प्रेमियों के दिल में लंबे समय तक बसी रहेंगी। 1976 में उन्होंने कोरस नाटक कंपनी की स्थापना की और पिछले 49 बरसों में इस नाट्य मंडली ने जितने विविध प्रयोग किए, उतने शायद ही किसी और रंगमंडली ने किए हों। वे सिर्फ एक रंगकर्मी या नाट्य निर्देशक ही नहीं, एक संस्था थे। बहुत बड़े विजनरी थे। संगीत नाटक अकादेमी सम्मान और पद्मश्री जैसे कई सम्मान उनको मिले।
कम लोगों को मालूम होगा कि रतन थियम जबर्दस्त बातूनी थे। उनसे बतरस का अपना मजा था। कुछ साल पहले जब मैं नाट्य विद्यालय के एक कार्यक्रम में गुवाहाटी गया था, तो उन्होंने पूरे दिन कई संस्मरण सुनाए। उन्होंने बुद्ध की एक छोटी सी मूर्ति दिखाई और बताया, ‘‘इसे मैं हमेशा अपने साथ रखता हूं और अकेले में, खासकर सुबह-सुबह रोज इसे कुछ देर देखता हूं।’’ एक तरह यह उनके ध्यान का माध्यम था। फिर उन्होंने अंग्रेजी में जो कहा, उसका तात्पर्य था ‘‘ध्यान लगाने से नए-नए विचार मन में आते हैं।’’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और नाट्य समीक्षक हैं)