आजादी के बाद पचास के दशक में जो बचपन आशावाद की गोद में पला था वह सत्तर का दशक आते-आते निराशा की खाई में गिर चुका था। अमिताभ बच्चन के ऐंग्री यंग मैन का जन्म भी इसी निराशा से उत्पन्न क्रोध का परिणाम था। पचास के दशक में इटली और फ्रांस के न्यू वेव सिनेमा से प्रेरित होकर सत्यजीत राय ने नई फिल्म पद्धति की शुरुआत की। बंबई में भी बिमल रॉय ने इस समानांतर लहर को एक हद तक अपनाते हुए दो बीघा जमीन बनाई। साठ के दशक तक कमर्शियल और समानांतर सिनेमा के बीच कोई स्पष्ट रेखा नहीं खींची गई थी, पर सत्तर की शुरुआत में मणि कौल, बासु चटर्जी और एम.एस. सथ्यू ने मुख्यधारा से हटकर कुछ प्रयास किए जिसने समानांतर सिनेमा के बीज बोये। समानांतर सिनेमा का वह बीज श्याम बेनेगल की अंकुर के साथ फूट निकला।
1974 में मनोज कुमार अपनी मल्टीस्टारर ब्लॉकबस्टर रोटी कपड़ा और मकान लेकर आए थे। तब राजेश खन्ना का सुपरस्टारडम अपनी आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुका था और अमिताभ बच्चन सलीम-जावेद की दी हुई जंजीर से एक साल पहले ही नए महानायक का श्री गणेश कर चुके थे। मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा की फिल्में हिंदी सिनेमा का फार्मूला बदल रही थीं। ऐसे में अंकुर के साथ सही मायने में समानांतर सिनेमा की शुरुआत हुई।
दरअसल, श्याम बेनेगल अंकुर की कहानी लेकर पहले वहीदा रहमान, फिर अंजू महेन्द्रू और केरल की वरिष्ठ अभिनेत्री शारदा के पास गए थे। उन सभी ने लक्ष्मी के किरदार को अस्वीकार कर दिया। बाद में फिल्म इंस्टीट्यूट से स्नातक होकर निकलीं शबाना आजमी को यह किरदार मिला। अंकुर के साथ समानांतर सिनेमा, बेनेगल और शबाना सबका नया दौर शुरू हुआ। इस कड़ी में आगे चलकर स्मिता पाटील, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, गिरीश कार्नाड, कुलभूषण खरबंदा और अनंत नाग जैसे कलाकार जुड़ गए, जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अभिनय की परिभाषा ही बदल दी। ये सब दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट से निकले थे। शायद कमर्शियल हिंदी सिनेमा उनकी प्रतिभा के साथ इंसाफ भी नहीं कर पाता। हिंदी सिनेमा में नायक के लिए सौंदर्य का मापदंड हमेशा ही अलग रहा है पर बेनेगल और उनके साथ आए दूसरे ऐसे ही फिल्मकारों ने सामान्य दिखने वाले सभी नए कलाकारों की प्रतिभा के साथ न्याय किया।
बेनेगल के घर लिखने-पढ़ने का बहुत माहौल था। उनके पिता गांधीवादी थे। बड़े भाई आरएसएस से जुड़े थे, तो दूसरे भाई कम्युनिस्ट थे। श्याम बेनेगल खुद वामपंथी विचारधारा की ओर झुके थे। बचपन में बेनेगल हॉलीवुड के वार्नर ब्रदर्स की कुछ यथार्थवादी फिल्मों से परिचित हुए और उसका प्रभाव उनकी फिल्म-निर्माण शैली पर भी पड़ा। लोकप्रिय हिंदी सिनेमा में लहराते खेतों के बीच उछलते नायक और हवा में चुनरी उड़ाती नायिकाओं की दुनिया से कोसों दूर बेनेगल की फिल्मों में ग्रामीण जीवन की वास्तविक सच्चाई होती थी। अंकुर और निशांत में ग्रामीण समाज के शोषण, अंधविश्वास और पाखंड थे, वहीं मंथन में दरिद्रता से निकलती नए समाज की परिकल्पना भी थी।
माना जाता है कि समानांतर सिनेमा में निर्देशक अपनी मर्जी से चलते हैं। उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता था कि दर्शकों को उनकी फिल्म समझ आएगी भी या नहीं, मगर बेनेगल इस पर भी ध्यान देते थे। फिल्मों में आने से पहले बेनेगल विज्ञापन जगत से जुड़े थे। शायद इसी बात ने उन्हें अन्य आर्ट हाउस फिल्मकारों से अलग किया। उन्होंने दर्शकों को कभी कमतर नहीं समझा। वे कहानी दर्शकों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी से कभी नहीं मुकरे। उन्होंने हर बार कुछ नया दिखाने का प्रयास किया। मंडी में वेश्यावृत्ति और कलयुग में राजनीति पर आधुनिक भारत की जो तस्वीर उन्होंने दिखाई उसका कोई सानी नहीं है। पिछले कई साल से भले ही इंडस्ट्री में बायोपिक का चलन रहा हो मगर हिंदी सिनेमा की सबसे बेहतरीन बायोपिक भूमिका श्याम बेनेगल ने बनाई थी। यह फिल्म मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर के जीवन पर आधारित थी। उन्होंने महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस और मुजीबुर्ररहमान पर भी फिल्में बनाईं।
जुबैदा को हमेशा करिश्मा कपूर के सर्वोत्तम अभिनय के लिए जाना जाएगा। किसी कलाकार की प्रतिभा को निकालना श्याम बेनेगल के बूते की ही बात थी। अस्सी के दशक में उनके साथ काम करने वाले कलाकारों में पल्लवी जोशी, नीना गुप्ता, राजेश्वरी, ईला अरुण, रजत कपूर और रवि झनखल आगे चलकर टेलीविजन के बड़े सितारे बने। टीवी पर भारत एक खोज ने अलग कीर्तिमान स्थापित किया। 1986 में टीवी धारावाहिक यात्रा भारतीय रेलवे के सहयोग से बनी थी। पूरी कहानी रेल यात्रियों के छोटे-बड़े किस्सों से बुनी सुंदर माला थी। देवदास से प्रेरित धर्मवीर भारती के उपन्यास सूरज का सातवां घोड़ा पर भी श्याम बाबू ने फिल्म बनाई। अलग-अलग विषयों पर श्याम बेनेगल इतनी आसानी से फिल्में इसलिए बना पाते थे क्योंकि उनके भीतर हमेशा जिज्ञासा रहती थी। उनके साथ काम करने वाले उन्हें एनसाइक्लोपीडिया कहते थे। कह सकते हैं कि समानांतर सिनेमा का जो दौर उनके साथ शुरू हुआ, उनके जाने से उस पर विराम लग गया है।