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राजनीति: ममता महत्वाकांक्षा के मायने

राज्यों में कांग्रेस को कमजोर कर रही तृणमूल, लेकिन क्या अन्य पार्टियां बिना कांग्रेस विपक्षी गठबंधन के लिए राजी होंगी
मुंबई में ममता से मिलने शरद पवार ने एनसीपी के अनेक नेताओं को बुलाया

वाकई ऊंट किस करवट बैठेगा, इससे ज्यादा मुश्किल यह अंदाजा लगाना है कि राजनीति कब क्या करवट लेगी। हाल के दौर में अचानक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस की सक्रियता कुछ ऐसी ही उलझन पैदा करती दिख रही है। अभी अगस्त की ही तो बात है, जब ममता संसद के वर्षाकालीन सत्र के दौरान दिल्ली पहुंचीं और सोनिया गांधी-राहुल गांधी के अलावा तमाम विपक्षी नेताओं से मिलीं, तो लगा कि विपक्ष का मोर्चा कांग्रेस के साथ मजबूती से उभरेगा। लेकिन तीन महीने बाद नजारा बदल-सा गया है। इस बार वे कांग्रेस नेतृत्व से नहीं मिलीं, बल्कि उसके बाद मुंबई जाकर कहा कि ‘यूपीए कहां है’। यही नहीं, कांग्रेस नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने का अभियान भी तेज कर दिया है। सबसे बड़ी खेप मेघालय में आई, जहां 12 कांग्रेस विधायक तृणमूल में शामिल हो गए और तृणमूल अचानक सबसे बड़ा विपक्षी दल बन गया। कांग्रेस नेता कीर्ति आजाद, हरियाणा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर और जनता दल यूनाइटेड के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव पवन वर्मा भी तृणमूल में शामिल हुए लेकिन वे शायद उतने अहम नहीं हैं क्योंकि उनकी चुनावी अहमियत खास नहीं है।

इससे कई तरह के कयास शुरू हो गए। क्या ममता कांग्रेस को तोड़कर उसकी जगह मुख्य विपक्ष की भूमिका में तृणमूल को लाना चाहती हैं? क्या वे इस तरह कांग्रेस नेतृत्व को आगे बढ़ने के लिए झकझोर रही हैं, ताकि वह अपना घर ठीक करे और विपक्ष को एकजुट करे? क्या इससे भाजपा को शह मिलेगी? क्या कांग्रेस पर निशाने के पीछे ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी को ईडी, इनकम टैक्स जैसी एजेंसियों का डर काम कर रहा है? वगैरह, वगैरह। गौतम अडाणी के साथ ममता की मुलाकात के बाद ऐसे कयास बढ़े हैं, लेकिन फिलहाल किसी भी नतीजे पर पहुंचना बेहद जोखिम भरा है।

फिर भी, हाल की घटनाओं को देखें तो ममता कांग्रेस को सिर्फ नुकसान नहीं पहुंचा रही हैं, बल्कि उससे दूर दिखने की भी कोशिश कर रही हैं। दिल्ली दौरे में वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी से भी मिलीं। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने के सवाल पर उनका जवाब था, “हर बार सोनिया से क्यों मिलूं? यह संवैधानिक रूप से जरूरी तो नहीं है।” दरअसल, पिछली बार दिल्ली दौरे में जब वे सोनिया से मिलीं, तब उनकी बैठक के बीच में अचानक राहुल गांधी आ गए थे। ममता इस बात से खफा बताई जाती हैं।

कांग्रेस से दूर दिखने की कोशिश सांसदों के निलंबन के मामले में भी दिखी। मानसून सत्र में तथाकथित खराब आचरण के लिए राज्यसभा में 12 विपक्षी सांसदों को पूरे शीत सत्र के लिए निलंबित किया गया है। तृणमूल की डोला सेन और शांता छेत्री भी निलंबित की गई हैं, लेकिन निलंबन के खिलाफ कांग्रेस की पहल पर तैयार साझा बयान पर तृणमूल ने दस्तखत नहीं किए। सदन में पार्टी के नेता डेरेक ओ ब्रायन ने कहा, “हम विपक्षी एकता चाहते हैं, लेकिन किसी दूसरी पार्टी का रबड़ स्टांप बनकर नहीं रहना चाहते।”

12 राज्यसभा सांसदों के निलंबन के खिलाफ प्रदर्शन

यहां भी तृणमूल दूरः 12 राज्यसभा सांसदों के निलंबन के खिलाफ प्रदर्शन

सबसे अधिक चौंकाने वाली बात मुंबई में कांग्रेस के खिलाफ ममता का एक के बाद एक बयान देना रहा। यहां ममता शरद पवार और अन्य एनसीपी नेताओं के अलावा शिवसेना के आदित्य ठाकरे से मुलाकात की। ममता ने सिविल सोसाइटी के साथ भी बैठक की जहां कई पूर्व न्यायाधीश, अभिनेता और कॉमेडियन मौजूद थे। उन्होंने कहा, “जमीन पर काम करने वालों को मिलाकर एक मजबूत विपक्षी गठबंधन जल्दी ही बनेगा। अगर मैं देशवासियों से मिलती हूं तो उसमें क्या समस्या है। कुछ लोग और कुछ पार्टियां कुछ नहीं करती हैं। अगर कोई लड़ना न चाहे तो हम क्या कर सकते हैं... कुछ लोग आधा समय विदेशों में बिताते हैं।” जाहिर है उनका इशारा कांग्रेस और राहुल गांधी की ओर था। ममता ने बताया कि उन्होंने कांग्रेस को कई बार सिविल सोसायटी सदस्यों की एक सलाहकार परिषद बनाने का सुझाव दिया जो विपक्ष को मशविरा देती, लेकिन कांग्रेस ने बात नहीं मानी।

कांग्रेस नेतृत्व पर निशाना साधने में अभिषेक बनर्जी भी पीछे नहीं हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी पूरे देश में विस्तार करेगी, भले ही ‘एक पार्टी’ इसे पसंद करे या नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि तृणमूल विपक्ष की धुरी बन गई है। हम ऐसी ताकत पर निर्भर नहीं रह सकते जो है ही नहीं। तृणमूल के रणनीतिकार प्रशांत किशोर के मुताबिक “विपक्ष का नेतृत्व किसी एक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार नहीं, खासकर तब जब उनकी पार्टी पिछले 10 वर्षों में 90 फीसदी से अधिक चुनाव हार गई हो।”

ममता की रणनीति कुछ ऐसी जान पड़ती है कि वे भाजपा के खिलाफ अभियान शुरू करने से पहले राज्यों में कांग्रेस के वोट शेयर को अपने पक्ष में लाया जाए। फिलहाल पार्टी त्रिपुरा, गोवा, असम, मेघालय और हरियाणा में पांव जमाने की कोशिश कर रही है। इनमें ज्यादातर जगहों पर अभी कांग्रेस, भाजपा के साथ सीधे मुकाबले में है, इसलिए तृणमूल पर भगवा खेमे के पक्ष में काम करने का आरोप लग रहा है।

लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा, “ममता अपने मेंटर नरेंद्र मोदी को खुश करने की कोशिश कर रही हैं। बंगाल भारत नहीं और भारत बंगाल नहीं। पूरे देश के स्तर पर देखा जाए तो ममता को सिर्फ चार फीसदी वोट मिलते हैं। कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता संभव नहीं है।” पार्टी प्रवक्ता गौरव बल्लव का कहना है कि जो भी कांग्रेस को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है, वह दरअसल भाजपा को मजबूत कर रहा है। प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, “आप अपनी सहूलियत के हिसाब से पाला बदलती हैं और हमें सिद्धांत सिखाती हैं। ये वही ममता हैं जो एनडीए के साथ हुआ करती थीं।”

तृणमूल ने अपने मुखपत्र ‘जागो बांग्ला’ में लिखा है कि कांग्रेस विफल हो गई और यूपीए खत्म हो गया है। कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है लेकिन वह डीप फ्रीजर में है। उसका नेतृत्व सिर्फ ट्विटर पर नजर आता है। देश को विपक्षी गठबंधन की जरूरत है। विपक्षी पार्टियों ने ममता को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है क्योंकि वे विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा हैं। सभी विपक्षी दल उनकी तरफ देख रहे हैं।

लेकिन सवाल है कि कांग्रेस को अलग रखकर कितनी पार्टियां विपक्षी गठबंधन के लिए तैयार होंगी। पवार ने महाराष्ट्र में अपनी पार्टी के सभी मंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं को ममता से मिलने के लिए बुलाया जरूर, लेकिन ममता की तरह उन्होंने कांग्रेस को लेकर कोई नकारात्मक बात नहीं की। ममता से मुलाकात के बाद पवार ने कहा कि जो पार्टी भाजपा के विरुद्ध है, उसका स्वागत है, किसी को अलग रखने का सवाल नहीं उठता। हालांकि कुछ एनसीपी नेताओं का कहना है कि विपक्ष को कांग्रेस के नेतृत्व न दे पाने के कारण पवार नाखुश हैं। उनका विचार है कि क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकती हैं।

ममता की इस मुहिम को तब बड़ा झटका लगा जब शिवसेना ने स्पष्ट विरोध जताया। उसने अपने मुखपत्र सामना में लिखा है, “कांग्रेस को दरकिनार कर यूपीए के समानांतर विपक्ष का नया गठबंधन खड़ा करना भाजपा को मजबूत करना होगा। मोदी और भाजपा कांग्रेस को खत्म करना चाहती हैं, यह उनका एजेंडा है। लेकिन उससे भी खतरनाक बात यह है कि मोदी और उनकी विचारधारा के खिलाफ लड़ने वालों को भी लगता है कि कांग्रेस खत्म हो जानी चाहिए।”

बाद में शिवसेना के नेता संजय राउत राहुल गांधी से मिले। उन्होंने कहा, “विपक्ष कई गठबंधन बनाकर भाजपा से नहीं लड़ सकता। एक ही गठबंधन होना चाहिए और मैंने राहुल गांधी से आगे बढ़ने का आग्रह किया है। कांग्रेस के बिना विपक्ष का मोर्चा संभव नहीं है। राहुल गांधी जल्दी ही मुंबई का दौरा करेंगे। मैं उद्धव जी से बात करूंगा।” यूपीए की भी बैठक बुलाने की कोशिश हो रही है। कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि पार्टी को ममता से बात करनी चाहिए। उनका सुझाव ममता को यूपीए का संयोजक पद देने का भी है।

ममता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं पर तृणमूल नेताओं का कहना है कि दीदी भरोसेमंद विपक्ष की खाली जगह को भरने की कोशिश कर रही हैं। पार्टी अपना संविधान भी बदल रही है, ताकि उसमें विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों को जगह देकर राष्ट्रीय शक्ल दी जा सके। विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर पूर्व को छोड़ दें तो कांग्रेस के ऐसे नेता तृणमूल में गए हैं जिनकी पार्टी में कोई बड़ी हैसियत नहीं थी। एक विश्लेषक ने कहा, “ऐसे में डेरेक ओ ब्रायन और महुआ मोइत्रा जैसे नेताओं को घुटन महसूस हो सकती है।” गौतम अडाणी से ममता की मुलाकात के बाद ट्विटर पर महुआ काफी ट्रोल भी हुईं।

मुंबई में ममता शिवसेना नेता आदित्य ठाकरे से मिलीं, लेकिन सेना का कहना है कि कांग्रेस को दरकिनार करने से भाजपा मजबूत होगी

मुंबई में ममता शिवसेना नेता आदित्य ठाकरे से मिलीं, लेकिन सेना का कहना है कि कांग्रेस को दरकिनार करने से भाजपा मजबूत होगी

वैसे देखा जाए तो कांग्रेस के बारे में ममता या तृणमूल के दूसरे नेता जो कह रहे हैं, वे मुद्दे कांग्रेस के ही जी-23 नेता पहले उठा चुके हैं। इसमें दो राय नहीं कि 2019 में हार के बाद और कांग्रेस के लगातार सिकुड़ने के कारण यूपीए का अस्तित्व न के बराबर रह गया है। हाल के दिनों में गठबंधन ने शायद ही किसी मुद्दे पर एकजुट होकर अपनी बात रखी हो। ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां ही भाजपा को टक्कर दे रही हैं।

विश्लेषक उत्तर पूर्व कांग्रेस का सफाया होने में पार्टी नेतृत्व की अनदेखी को जिम्मेदार मानते हैं। तरुण गोगोई की मौत के बाद उत्तर पूर्व में कांग्रेस के पास कोई बड़ा नेता नहीं है। पार्टी ने महासचिव सीपी जोशी को उत्तर पूर्व की जिम्मेदारी दी थी, लेकिन वे शायद ही कभी वहां गए हों। मेघालय में तृणमूल में जाने वाले मुकुल संगमा समेत अन्य विधायक राहुल गांधी के करीबी और पूर्व लोकसभा सांसद विंसेंट पाला को प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बनाए जाने के खिलाफ थे। इसी अनदेखी के कारण अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा और नागालैंड में भी उसके अनेक नेता दूसरी पार्टियों में चले गए।

कांग्रेस की इस कमजोरी के बावजूद क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने में उसका महत्व है। यूपीए भले काम न कर रहा हो लेकिन कांग्रेस तमिलनाडु में डीएमके, झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा और महाराष्ट्र में एनसीपी तथा शिवसेना के साथ सरकार में है। क्या ये पार्टियां कांग्रेस का साथ छोड़कर नया गठबंधन बनाना चाहेंगी? ममता ने कहा कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश का चुनाव नहीं लड़ेगी क्योंकि वहां दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां भाजपा के खिलाफ लड़ रही हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अगर अखिलेश यादव कहें तो तृणमूल उनकी मदद कर सकती है। अखिलेश भविष्य को देखते हुए कांग्रेस के साथ गठजोड़ का रास्ता शायद ही बंद करें। राहुल गांधी के नेतृत्व से समस्या होने के बावजूद ज्यादातर क्षेत्रीय दल स्वीकार करते हैं कि कांग्रेस के बिना राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुकाबला करना मुश्किल है।

ममता विपक्ष का चेहरा बन पाएंगी या नहीं, अभी इसमें संदेह है क्योंकि पश्चिम बंगाल से बाहर कुछ छोटे राज्यों में ही वे मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश कर रही हैं। त्रिपुरा में निकाय चुनावों में उनकी पार्टी को नाकामी ही मिली। वे सात बार सांसद, केंद्र में मंत्री और दस साल मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। फिर भी मोदी को चुनौती देने के लिए उन्हें अभी काफी तैयारी करनी पड़ेगी।

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