एनडीए के बिहार गुलिश्तां में फिर गर्दिश की हवाएं बह रही हैं? बिहार पुलिस की स्पेशल ब्रांच की ओर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके कई सहयोगी संगठनों की निगरानी के हालिया घटनाक्रम से राज्य की राजनीति में हड़कंप है। इससे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुआई वाली जद(यू) और भाजपा गठबंधन की सरकार के भाग्य पर अटकलों का दौर भी शुरू हो गया है। केंद्र की सत्ता में दोबारा प्रचंड बहुमत से एनडीए की वापसी के महज पांच दिनों के बाद और नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के शपथग्रहण से दो दिन पहले, बिहार पुलिस के स्पेशल ब्रांच के एसपी (जनरल) ने सभी डीएसपी और जिलों के स्पेशल ब्रांच अधिकारियों को निर्देश दिया कि आरएसएस और उससे संबद्ध सभी संगठनों की जानकारी जुटाएं। गौरतलब है कि स्पेशल ब्रांच गृह मंत्रालय के तहत आती है और इसके प्रमुख खुद मुख्यमंत्री हैं। 28 मई 2019 को जारी एक पत्र में अधिकारियों से कहा गया कि आरएसएस और उसके 18 सहयोगी संगठनों के सभी पदाधिकारियों के नाम, पते, फोन नंबर और पेशे की जानकारी जुटाएं और ‘एक सप्ताह के भीतर’ रिपोर्ट जमा करें। पिछले सप्ताह सामने आए पत्र में यह भी कहा गया है, “इसे अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए।”
पत्र में आरएसएस के अलावा विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू जागरण समिति, धर्म जागरण समन्वय समिति, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, हिंदू राष्ट्र सेना, राष्ट्रीय सेविका समिति, शिक्षा भारती, दुर्गा वाहिनी, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय रेलवे संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, अखिल भारतीय शिक्षक महासंघ, हिंदू महासभा, हिंदू युवा वाहिनी और हिंदूपुत्र संगठन के नाम शमिल हैं।
स्पेशल ब्रांच के एसपी की इस चिट्ठी से राज्य में भाजपा नेता आगबबूला हो उठे। पार्टी के एमएलसी संजय मयूख ने बिहार विधान परिषद के चल रहे मॉनसून सत्र में इस मुद्दे को उठाया और सरकार से इस मुद्दे पर जवाब मांगा। पार्टी के एक अन्य विधायक सच्चिदानंद राय ने एक कदम आगे बढ़ते हुए नीतीश की मंशा पर सवाल उठा दिए और कहा कि वे मुख्यमंत्री बनने के इच्छुक थे, चाहे किसी भी गठबंधन का हिस्सा हों। नई दिल्ली में केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने आश्चर्य जताया, “बिहार में जद(यू)-भाजपा सरकार सत्ता में है और उसके उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी (भाजपा के) का खुद एबीवीपी से ताल्लुक रहा है, ऐसे में बिहार पुलिस की ओर से ऐसा पत्र क्यों जारी किया गया?”
विवादों में घिरने और भाजपा की तीखी प्रतिक्रिया मिलने से नीतीश सरकार ने पत्र को लेकर अनभिज्ञता जाहिर की। राज्य पुलिस मुख्यालय ने जल्द ही एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई, जिसमें कहा गया कि न तो राज्य सरकार और न ही बिहार पुलिस के आला अधिकारियों को स्पेशल ब्रांच के एसपी (जनरल) द्वारा जारी पत्र की जानकारी थी। एडीजी (स्पेशल ब्रांच) जे.एस. गंगवार के अनुसार, एसपी (जनरल) द्वारा जारी पत्र एक रूटीन मामला है और इसे गृह विभाग या डीजीपी या पुलिस मुख्यालय से मंजूरी नहीं दी गई थी। उन्होंने कहा, “सरकार इस पूरी कवायद में कहीं से भी शामिल नहीं थी।”
स्पेशल ब्रांच के सूत्रों का दावा है कि उन्हें लोकसभा चुनावों के मद्देनजर आरएसएस और उसके विभिन्न सहयोगी संगठनों के नेताओं को संभावित खतरे के मद्देनजर कुछ इनपुट मिले थे और एसपी का पत्र इस संबंध में महज एक फॉलो-अप कार्रवाई थी। पत्र को जारी करने वाले एसपी (जनरल) राजीव रंजन के ट्रेनिंग पर जाने की सूचना है।
हालांकि, राजनैतिक पर्यवेक्षकों के लिए यह विश्वास करना मुश्किल लग रहा है कि एसपी रैंक का एक अधिकारी अपने विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों या खुद मुख्यमंत्री की जानकारी के बिना इस तरह के संवेदनशील विषय पर पत्र जारी कर सकता है।
सबको मालूम है कि नीतीश हमेशा अपने राजनीतिक दांवों को अपने सीने के करीब रखने के लिए जाने जाते हैं। इतने करीब कि उनके भरोसेमंद सहयोगियों को भी आमतौर पर उनके अगले कदम के बारे में कोई संकेत नहीं मिलता है। इतने वर्षों में उन्होंने एक ऐसे नेता के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बनाई है, जो शायद ही बिना नफा-नुकसान का आकलन किए कोई कदम उठाता हो। राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी का कहना है कि यह विश्वास करना मुश्किल है कि एक एसपी अपनी मर्जी से इस तरह की कार्रवाई कर सकता है। भले ही राज्य पुलिस के शीर्ष अधिकारी कुछ भी कहते रहें। तिवारी ने कहा, “स्पेशल ब्रांच का एसपी बिहार पुलिस मुख्यालय, स्पेशल ब्रांच के अपने वरिष्ठों या मुख्यमंत्री की जानकारी के बिना भला ऐसा खुद से कैसे लिख सकता है।”
राजनैतिक टिप्पणीकार इसे नीतीश और भाजपा के बीच एक और खाई के संकेत के रूप में देखते हैं, जो लोकसभा चुनाव के बाद से गहरी होती जा रही है। मशहूर अर्थशास्त्री एन.के. चौधरी का कहना है कि पत्र प्रकरण में जो कुछ सामने दिख रहा है, मामला उससे अधिक बड़ा है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “जद-यू और भाजपा के बीच शह और मात का खेल चल रहा है। भाजपा का मानना है कि 2020 के विधानसभा चुनावों में अपने बूते सरकार बनाने का सबसे उपयुक्त समय है और वह अब नीतीश से छुटकारा चाहती है। दूसरी ओर, नीतीश इसे समझते हैं और यही कारण है कि वे इस तरह के पत्र के जरिए भाजपा पर दबाव भी बना रहे हैं। यह सब बिलकुल जाहिर है।”
चौधरी कहते हैं कि भाजपा बिहार में मोदी लहर को भुनाना चाहती है और वह जद-यू के साथ वैसा गठजोड़ चाहती है, जैसा उसने महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ किया है। वे कहते हैं, “भाजपा ने शिवसेना को अपने अनुसार चलने को विवश कर दिया है और उसे अपने से छोटा सहयोगी बनाकर छोड़ दिया है। भाजपा ने नीतीश कुमार को बिहार में 15 साल तक राज करने दिया। लेकिन अब वह राज्य में सत्ता की बागडोर खुद संभालना चाहती है।”
इसके बावजूद, जद-यू और भाजपा दोनों ही डैमेज कंट्रोल मोड में जुट गए। जिम्मेदारी तय करने के लिए राज्य पुलिस मुख्यालस से पूरे मामले की जांच के लिए आदेश दिए गए। उधर, भाजपा ने मुख्यमंत्री के खिलाफ बयान देने के लिए राय को कारण बताओ नोटिस दिया। लेकिन गठबंधन में दरार तभी से दिखाई दे रही है जब नीतीश ने चुनाव बाद मोदी के मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार कर दिया था। आम चुनाव में बिहार में जद-यू ने 16 सीटें जीतीं, फिर भी भाजपा ने मोदी सरकार में उसे सिर्फ एक कैबिनेट मंत्री पद ऑफर किया, जिसे नीतीश ने विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया। आम चुनाव में मुख्यमंत्री ने खासतौर पर दरभंगा सीट अपने नजदीकी सहयोगी संजय झा के लिए छोड़ने का अनुरोध किया था, लेकिन भाजपा ने उसे खारिज करते हुए अपने उम्मीदवार आरएसएस के गोपालजी ठाकुर को उतार दिया। इसके जवाब में नीतीश ने अपने मंत्रालय का विस्तार किया और संजय झा सहित जद-यू के आठ मंत्रियों को शामिल किया। कहा जाता है कि भाजपा को इसमें मात्र एक सीट देने का प्रस्ताव किया गया था, जिसे उसने स्वीकार नहीं किया।
1996 में जबसे जद-यू और भाजपा सहयोगी बने हैं, हमेशा ही उनका रुख तीन प्रमुख मुद्दों अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद-370 हटाने और समान नागरिक संहिता पर अलग-अलग रहा है। लेकिन हाल में दूसरे मुद्दों जैसे, तीन तलाक पर नीतीश के अलग रुख से उनके संबंधों में तनाव पैदा हुआ है और दोनों पार्टियों के नेता एक-दूसरे को संदेह की नजर से देख रहे हैं।
जद-यू के एक वर्ग के नेताओं को संदेह है कि भाजपा बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में अपनी खुद की सरकार बनाना चाहती है। उन्हें आशंका है कि भाजपा गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर नीतीश कुमार को आखिरी मौके पर हटा सकती है और उन्हें बीच मझधार में छोड़ सकती है। हालांकि जद-यू के एक नेता ने अपना नाम उजागर न करने की शर्त पर कहा कि इस तरह का विचार करना भाजपा के लिए कोरी मूर्खता होगी, क्योंकि नीतीश को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किए बगैर वह बिहार में कोई चुनाव जीत नहीं सकती है। इस नेता का कहना है, “याद कीजिए, 2015 में भाजपा के साथ क्या हुआ था जब नीतीश गठबंधन तोड़कर चले गए थे और महागठबंधन में शामिल हो गए थे। विधानसभा में भाजपा के सदस्यों की संख्या 91 से घटकर 53 रह गई थी। अगर पार्टी 2020 में उनसे अलग होती है, तो उसका और बुरा हाल होगा।” लेकिन यह भी तय है कि दोनों के अपने-अपने गणित हैं।