बिहार के बाद अगर किसी चुनाव पर सबकी नजर टिकी थी, तो वह मध्य प्रदेश के उपचुनाव थे। लड़ाई सत्ता के फैसले की थी। 28 सीटें शिवराज और कमलनाथ का भविष्य तय करने वाली थीं। 3 नवंबर को जनता ने शिवराज सिंह चौहान पर एक बार फिर भरोसा जताया और भाजपा की झोली में 19 सीटें डाल दीं। जाहिर है, जनता ने कमलनाथ के ‘बिकाऊ’ के मुकाबले ‘टिकाऊ’ के नारे पर भरोसा नहीं किया। अब भाजपा की प्रदेश में पूर्ण बहुमत वाली सरकार हो गई है, जिसका सबसे बड़ा फायदा चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान को मिलने वाला है। जब इस साल मार्च में 15 महीने पुरानी कमलनाथ सरकार गिरी थी, तो शिवराज के लिए फिर से मुख्यमंत्री की गद्दी पाना आसान नहीं था। पार्टी में ही एक प्रभावशाली धड़े का मानना था कि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के 114 सीटों के मुकाबले भाजपा को केवल 109 सीटें मिली हैं। ऐसे में शिवराज को सत्ता नहीं सौंपनी चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शिवराज पर ही भरोसा दिखाया। उपचुनावों में मिले वोट प्रतिशत से यह साबित हो गया कि शिवराज पर लगाया दांव काम कर गया है। भाजपा को 49.5 फीसदी वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 40.5 फीसदी वोट मिले हैं। ज्यादातर सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार 25 हजार से अधिक मतों से विजयी हुए हैं। सांची सीट से मंत्री प्रभुराम चौधरी ने 63 हजार मतों से सबसे बड़ी जीत हासिल की है। उसके उलट केवल नौ सीटें जीतने वाली कांग्रेस के भांडेर विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार फूल सिंह बरैया ही रहे जिन्होंने हारने के बावजूद भाजपा के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी। वे भाजपा के राकेश सोरोनिया से केवल 161 मतों से हारे।
इन परिणामों के बाद मध्य प्रदेश की 230 सीटों वाली विधानसभा में भाजपा 107 सीटों से बढ़कर 126 सीटों पर पहुंच गई है। यह बहुमत के लिए जरूरी आंकड़े से 11 ज्यादा है। कांग्रेस की संख्या 87 से बढ़कर 96 हो गई है। कांग्रेस के 19 विधायकों को लेकर भाजपा में शामिल होने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी राजनैतिक करियर दांव पर लगा हुआ था। भाजपा की जीत से सिंधिया को जरूर राहत मिलेगी, लेकिन ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के परिणामों से यह भी साबित हुआ कि सिंधिया के खिलाफ नाराजगी अभी बनी हुई है। यहां से शिवराज के तीन मंत्रियों को उपचुनावों में हार का सामना करना पड़ा है। 2018 में 52 हजार वोटों से जीतने वाली मंत्री इमरती देवी इस बार हार गई हैं। उन्हें लेकर कमलनाथ का ‘आइटम’ वाला विवादित बयान भी सुर्खियों में रहा, शिवराज ने उसे भुनाने की भी कोशिश की, इसके बावजूद वे कमाल नहीं कर पाईं। इस नाराजगी का फायदा कांग्रेस को मिला है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र की 16 में से 7 सीटें कांग्रेस ने जीती हैं। इस क्षेत्र से भाजपा के कई कद्दावर नेता हार गए। इमरती देवी के अलावा गिरिराज दंडोतिया, जसमंत जाटव, रणवीर जाटव, रघुराज कंसाना, मुन्नालाल गोयल और एंदल सिंह कंसाना भी चुनाव हार गए हैं।
ऐसा नहीं कि इस क्षेत्र में नाराजगी का एहसास भाजपा को नहीं था। इसे ध्यान में रखकर ही चुनाव में शिवराज के चेहरे का ज्यादा इस्तेमाल किया गया। होर्डिंग, बैनर से सिंधिया गायब थे। इस पर सिंधिया विरोधियों ने सवाल भी उठाए कि भाजपा ने उनका कद घटा दिया है। लेकिन सिंधिया समर्थक उम्मीदवारों को ग्वालियर-चंबल क्षेत्र से बाहर काफी फायदा मिला और कांग्रेस सरकार गिराने वाले 19 में से 13 उम्मीदवारों ने जीत हासिल कर ली। इसका असर पार्टी में भी दिखेगा।
उपचुनाव की जीत का फायदा शिवराज सिंह के बाद सबसे ज्यादा ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिलने वाला है। सिंधिया भले ही ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में बहुत दमदार प्रदर्शन नहीं कर पाए, लेकिन जिन 19 विधायकों लेकर वे भाजपा में शामिल हुए थे, उनमें से ज्यादातर को जिताने में कामयाब हुए। ऐसे में वे पार्टी के लिए प्रदेश में शिवराज के मुकाबले नए चेहरे के रूप में उभर सकते हैं। साथ ही, उन्हें केंद्र में अहम जिम्मेदारी भी मिल सकती है। हालांकि शिवराज खेमे के लोग इस बात से भी राहत महसूस कर रहे हैं कि अगर सिंधिया के सारे साथी जीत कर आ जाते, तो पहले से ही मंत्रिमंडल में दबदबा बनाया हुआ सिंधिया गुट और मजबूत हो जाता।
जीत के बाद पत्नी साधना सिंह के साथ पूजा करते मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
चुनाव में कैबिनेट मंत्री एंदल सिंह कंसाना और इमरती देवी तथा राज्य मंत्री गिरिराज दंडोतिया के हारने से उनकी जगह भाजपा के दूसरे चेहरों को मौका मिलना तय है। मंत्री तुलसी सिलावट और गोविंद राजपूत पहले ही इस्तीफा दे चुके हैं, लेकिन पार्टी में यह करीब-करीब तय माना जा रहा है कि इन दोनों की फिर से मंत्रिमंडल में वापसी होगी। ऐसे में बाकी बचे तीन मंत्री पदों पर शिवराज के लिए अपने खास लोगों को लाना आसान हो गया है। इनमें सबसे प्रमुख सांवेर सीट के प्रभारी रहे रमेश मेंदोला, अनूपपुर सीट के प्रभारी रहे राजेन्द्र शुक्ला और सांची के प्रभारी रहे रामपाल सिंह के नाम हैं। इन तीनों सीटों पर भाजपा को बड़े अंतर से जीत हासिल हुई है।
कमलनाथ-दिग्विजय का कद घटेगा
इस हार से सबसे ज्यादा नुकसान मध्य प्रदेश में कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताओं को होने वाला है। एक तरफ जहां पूरी तरह चुनाव की कमान संभाल रहे 74 साल के कमलनाथ की प्रदेश अध्यक्ष पद से विदाई तय मानी जा रही है,वहीं 73 साल के हो चुके दिग्विजय सिंह भी राज्य की राजनीति से दूर हो सकते हैं। असल में, दिसंबर 2018 में मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में कांग्रेस की पूरी बागडोर कमलनाथ के पास थी। आलाकमान ने भी उन्हें पूरी छूट दे रखी थी। तय था कि हार और जीत की जिम्मेदारी उन्हीं पर आने वाली है। अब कांग्रेस नेतृत्व नए चेहरे की तलाश में रहेगा। ऐसे में जीतू पटवारी जैसे नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी मिल सकती है।
इन चुनावों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने भी कांग्रेस को बड़ा झटका दिया है। कांग्रेस नेतृत्व की यह नाकामी रही कि वह मायावती को उपचुनाव लड़ने से भी नहीं रोक पाई। इसका खमियाजा उसे कम से कम पांच सीटों पर भुगतना पड़ा। उप चुनाव में बसपा 5.75 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस का खेल बिगाड़ने में कामयाब रही। भांडेर, जौरा, मल्हारा, माहेगांव और पोहारी ऐसी सीटें रहीं, जहां गैर-भाजपा वोट को बसपा बांटने में सफल हो गई और उसका खमियाजा हार के रूप में कांग्रेस को उठाना पड़ा।
इसी तरह चार सीटें ऐसी थीं, जहां पर कांग्रेस के उम्मीदवार बहुत कम अंतर से जीते। परिणामों से साफ है कि कमलनाथ जिस बसपा को कोई तरजीह नहीं दे रहे थे, उसी ने उनको नुकसान पहुंचा दिया। इसकी टीस शायद उन्हें कुछ दिनों तक बनी रहेगी, क्योंकि पूरे चुनाव में कमलनाथ का फीडबैक एजेंसियों पर आधारित था। उन्होंने चुनावों में फीडबैक के लिए ही इन एजेंसियों को रखा था। ये एजेंसियां भी सही आकलन करने में कामयाब नहीं हुईं।
कांग्रेस के लिए चिंता की बात अब यह है कि वह अपने को टूटने से कैसे बचाए। जिस तरह उप चुनावों के दौरान दमोह के विधायक राहुल लोधी ने पार्टी से किनारा किया, उसे देखते हुए ऐसी अफवाहें हैं कि करीब दर्जन भर विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। ऐसे में आने वाले समय में पार्टी कैसे लोगों को अपने साथ जोड़े रखती है, यह भी बहुत मायने रखेगा।
पार्टी की हार की वजह कांग्रेस प्रवक्ता भूपेन्द्र गुप्ता कमजोर संगठन को मानते हैं। उनका कहना है, “सिंधिया के जाने के बाद कई विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस का जमीनी संगठन खत्म हो गया था। उसको तैयार करने के लिए हमारे पास पर्याप्त समय नहीं था। इसी का खमियाजा हमें ज्यादातर सीटों पर भुगतना पड़ा है।” वहीं भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा इस जीत का श्रेय अपने कार्यकर्ताओं को देते हैं। वे कहते हैं, “भाजपा की हर जीत उसके कार्यकर्ता की होती है।”