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धर्म, बाजार, राजनीति और संस्कृति का कुमेल

आज हिंदी प्रदेश सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वाधिक संकटग्रस्त हैं, जिसकी जड़ें अस्सी के दशक से ही गहरने लगीं
संस्कृति प्रसंग

व्यक्ति, समुदाय, समाज और राष्ट्र के निर्माण-विकास में संस्कृति की विशेष भूमिका रही है। संस्कृति हमारे सामाजिक जीवन को सदैव प्रभावित करती है, इसलिए उसकी उपेक्षा जीवन और समाज की उपेक्षा है। दुर्भाग्य यह रहा कि हमने राजनीति को सब कुछ मान लिया, जबकि वासुदेव शरण अग्रवाल ने उसे ‘केवल पथ की साधना’ और संस्कृति को ‘उस पथ का साध्य’ कहा था, “संस्कृति जीवन के वृक्ष का संवर्धन करने वाला रस है। राजनीति के क्षेत्र में तो उसके इने-गिने पत्ते ही देखने में आते हैं।” हमने न तो प्राचीन संस्कृति का व्यापक एवं गहन अध्ययन किया और न अपने समय के सांस्कृतिक प्रश्नों को गंभीरता से लिया। ‘संस्कृति’ का व्यापक अर्थ गौण होता गया। उसे केवल गीत-संगीत, नृत्य और साहित्य समझकर सांस्कृतिक आयोजन, समारोह, उत्सव आदि किए जाते रहे, जो निश्चित रूप से अनिवार्य थे। पर, हमने मनुष्य की क्रियाओं, कार्य-व्यापारों पर विशेष ध्यान नहीं दिया, जो संस्कृति के व्यापक अर्थ में शामिल हैं। जिस प्रकार समाज की अपनी संस्कृति है, उसी प्रकार संस्कृति की अपनी सामाजिकता है। मनुष्य ‘सामाजिक प्राणी’ होने के साथ ही ‘सांस्कृतिक प्राणी’ भी है। अब वह न तो ‘सामाजिक’ रहा है और न ‘सांस्कृतिक।’ संस्कृति का श्रम और सृजन से गहरा संबंध है। भारतीय मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा सृजन-विमुख है-श्रम विमुख और चिंतन विमुख। उसने शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम की उपेक्षा की है।

अंग्रेजों के भारत आगमन के बाद औपनिवेशिक संस्कृति ने भारत को जितना क्षत-विक्षत नहीं किया, उससे कहीं अधिक स्वतंत्र भारत में धर्म, बाजार और राजनीति ने एक साथ मिल-जुलकर इसकी लगभग चूलें हिला दी हैं। हिंदी प्रदेश भारत का हृदय प्रदेश है। यहां जो भी घटता है, उसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ता है। आज का भारत बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों की देन है। इन दो दशकों पर विस्तार से जितना विचार होना चाहिए था, नहीं हुआ है। इसी समय से एक भिन्न रूप में सांस्कृतिक बदलाव (कल्चरल शिफ्ट) आया।

हिंदी प्रदेश में अन्य प्रदेशों की तरह जातीय एकता नहीं हुई। रामविलास शर्मा ने लगभग पचास वर्ष तक-जीवन के अंत तक हिंदी प्रदेश की जातीय एकता की आवश्यकता बताई, पर उसे हिंदी के कवियों, लेखकों आलोचकादि ने अधिक गंभीरता से नहीं लिया। हिंदी प्रदेश में समाज-सुधार आंदोलन भी नहीं चले। सामंतवाद समाप्त नहीं हुआ। हिंदी प्रदेश का सांस्कृतिक विकास, उन्नयन संभव नहीं हुआ।

आजाद भारत के आरंभिक दो दशकों तक की स्थिति सदी के अंतिम दो दशकों से भिन्न थी। राज्यसत्ता का सांस्कृतिक एजेंडा पूर्णतः लोक विमुख नहीं था। स्वतंत्रता आंदोलन में सामान्यजन और लोक की सशक्त भागीदारी थी। इसी दौर में रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आलोचना में ‘लोक’ का महत्व दिखाया। संस्कृति का जिस ‘लोक’ से, श्रमशील जनता से सीधा संबंध था, वह ‘लोक’ स्वाधीन भारत में क्रमशः गौण होता गया। जन-संस्कृति के स्थान पर धन-संस्कृति और अभिजन संस्कृति प्रमुख होती गई। मध्यवर्ग को संस्कृति का वाहक माना गया था और यह मध्यवर्ग क्रमश. स्व-केंद्रित, आत्मकेंद्रित होता गया।

समाज का स्वरूप पहले संस्कृति निर्मित करती थी। बाद में राजनीति समाज पर चढ़ बैठी। स्वतंत्र भारत में सांस्कृतिक अभिवृद्धि के लिए अकादमियां स्थापित की गई थीं, जो स्वायत्त संस्थाएं थीं। इन संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म होती गई। संस्थान-प्रमुख वैसे व्यक्ति बने या बनने लगे, जिनका संबंध कला, साहित्य, संस्कृति से कम और सत्ताधारी वर्ग से अधिक था। संस्कृति का स्वरूप निर्धारण राजनीति करने लगी। बाजार बाद में इसमें कूद पड़ा।

धर्म का संस्कृति से संबंध पुराना था, पर वह अधिक आक्रामक रूप में नहीं था। धर्म, दर्शन साहित्य, कला सब संस्कृति के अंग थे, जिसमें धर्म कहीं अधिक शक्ति के साथ उपस्थित हुआ। लोक-संस्कृति या जन-संस्कृति के समक्ष ‘धार्मिक संस्कृति’ प्रमुख हो गई। अंग विशेष की यह प्रमुखता भारतीय संस्कृति के लिए हानिकारक सिद्ध हुई। ‘धर्म’ शब्द का ‘धारणात्मक अर्थ’ विलुप्त हुआ और वह ‘संप्रदाय’ में रिड्यूस किया गया। वेद व्यास ने ‘धर्म’ को सब मनुष्यों को धारण करने वाला कहा था, “नमो धर्माय महते धर्मो धारयति प्रजाः/ यत् स्यात् धारण संयुक्तं सधर्म इत्युतः दाहृतः।”

भारतीय संस्कृति के विकास में हिंदी प्रदेशों की निर्णायक भूमिका रही है। इनकी भूमिका भारत राष्ट्र के निर्माण में भी रही है। रामविलास शर्मा ने इसे अच्छी तरह समझा था- ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ के दो वृहद खंडों पर कम ध्यान दिया गया। बहस की बात तो दूर रही, बातें भी कम की गईं। हिंदी क्षेत्र का औद्योगिक विकास नहीं हुआ। यहां कृषि सभ्यता और संस्कृति विशेष प्रमुख रही है। अंग्रेजी के ‘कल्चर’ शब्द से ‘एग्रीकल्चर’ और ‘कल्टिवेशन’ शब्द जुड़े हुए हैं। कृषि-संकट के साथ ही सांस्कृतिक संकट भी जुड़ा है। जैसे-जैसे कृषि संकट बढ़ा किसान संकटग्रस्त होते गए, लगभग उसी तरह लोक संस्कृति और जन-संस्कृति भी संकटग्रस्त होती गई।

विदेशी पूंजी अकेले नहीं आई। उसके साथ-साथ उसकी संस्कृति भी चली। यह एक साथ पूंजी की संस्कृति और विदेशी संस्कृति थी, जिसे आरंभ में अधिक देखा-समझा नहीं गया। पूंजी निवेश दिखाई पड़ा और उसके साथ ही एक प्रकार का ‘सांस्कृतिक निवेश’ भी होता रहा। हिंदी भाषा के कवियों, लेखकों, आलोचकों ने इस ओर कम ध्यान दिया। सांस्कृतिक प्रदूषण फैला।

हिंदी प्रदेश में ‘सांस्कृतिक बदलाव’ की एक नई प्रक्रिया अस्सी के दशक से आरंभ हुई। जनता पार्टी की सरकार अपना पूर्ण कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी थी। उसमें अपना विलय करने वाला भारतीय जनसंघ एक नए अवतार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में उपस्थित हुआ। अस्सी के दशक के आरंभ में इसका जन्म हुआ। भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश की संस्कृति पर विचार करने वाले प्रायः अस्सी के दशक में हो रहे उन परिवर्तनों (विश्व संदर्भ सहित) पर कम ध्यान देते हैं, जिनका किसी-न-किसी रूप में संस्कृति सहित सभी क्षेत्रों से संबंध है। इसी दौर में नए सिरे से ‘पूंजी की संस्कृति’ विकसित हुई, जो आज कॉरपोरेट संस्कृति में लक्षित की जा सकती है। 1979 के अंतिम दिनों में इंग्लैंड और अमेरिका में शासन-परिवर्तन के साथ विश्व अर्थव्यवस्था में भी परिवर्तन हुए। रोनाल्ड रीगन और मारग्रेट थैचर ने विश्व अर्थ-व्यवस्था में जो परिवर्तन किया, उसका संस्कृति पर प्रभाव कैसे नहीं पड़ सकता था?

भारतीय राजनीति में हिंदी प्रदेश की अहम भूमिका रही है, पर भारतीय अर्थव्यवस्था के निर्धारण और विकास में इसकी कोई भूमिका नहीं रही है। 1982 में बीच अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने ऋण देने की जो शर्तें लगाई थीं क्या उनका थोड़ा ही सही सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई प्रभाव नहीं पड़ा? 1948 में ही नागार्जुन ने ‘लाल भवानी’ कविता में अंग्रेजी, अमेरिकी और देशी जोंकों के एक साथ हो जाने के बाद ‘भारत माता टेक हुई’ लिखा था। भारत माता टेक हो जाए, उसका आंचल मैला हो जाए, भारतीय गांव, आधा गांव, बन जाए और भारतीय संस्कृति पूर्ववत् कायम रहे, सलामत रहे, क्या यह संभव है? यूरोपीय राजनीति और संस्कृति ने भारतीय जीवन, चिंतन, जन मानस को जितना प्रभावित नहीं किया था, उससे कहीं अधिक अमेरिकी राजनीति और संस्कृति ने प्रभवित किया। मुक्तिबोध ने ‘क्लॉड इथरली’ में ही बता दिया था कि भारत के प्रत्येक शहर में अमेरिका है।

अस्सी के दशक से हम एक साथ ‘राजनीतिक’ और ‘सांस्कृतिक’ शिफ्ट देखते हैं। अमेरिकी संस्कृति उपभोक्तावादी संस्कृति है। भारतीय संस्कृति के केंद्र में कभी ‘उपभोग’ प्रमुख नहीं रहा है। अमेरिकी संस्कृति उपभोग और हिंसा की है। ‘लिंचिंग’ की शुरुआत पहले अमेरिका में ही हुई। भारत में अमेरिकी पूंजी के साथ अमेरिकी संस्कृति ने प्रवेश किया। भारतीय समाज में हिंसा, हत्या और बलात्कार की संख्या-वृद्धि बाद की है। सांस्कृतिक बदलाव राजनीतिक और आर्थिक बदलाव से जुड़ा है।

हिंदी प्रदेश और समाज का शिक्षित समुदाय (मध्य वर्ग) अस्सी के दशक के पहले अधिक लोक निरपेक्ष नहीं था। शिक्षा का उस समय तक सामाजिक प्रयोजन नष्ट नहीं हुआ था। अस्सी के दशक से हिंदी प्रदेश के विश्वविद्यालय ढलान पर हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (1916) और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (1920) की स्थापना हुई थी, पर आज वे किस रूप में हैं? हिंदी मानस को राज्यसत्ता ने 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की हार के बाद बदलना आवश्यक समझा क्योंकि उनकी हार में हिंदी प्रदेश की बड़ी भूमिका थी। शिक्षण संस्थाएं कमजोर की गईं और अनेक विश्वविद्यालय ‘विष विद्यालय’ बनते गए। राजीव गांधी ने अस्सी के दशक में एक साथ जिन कई क्षेत्रों में ‘नई’ नीतियां लागू कीं वे वास्तविक अर्थों में ‘नई’ नहीं थीं।

अस्सी के दशक के आरंभ में ही अशोक वाजपेयी ने ‘कविता की वापसी’ की बात की, गोया कविता कहीं खो गई थी और 1982 में भोपाल में ‘भारत भवन’ की स्थापना हुई। यह इंदिरा गांधी का कार्यकाल था। भारत भवन को ‘अभिजात रुझान की संस्था’ माना गया। अशोक वाजपेयी ने ‘राष्ट्रीय संस्कृति नीति’ का ड्रॉफ्ट भी तैयार किया। संस्कृति के क्षेत्र में राज्यसत्ता का हस्तक्षेप बढ़ा, नई सांस्कृतिक संस्थाओं का उदय हिंदी प्रदेश में हुआ। एक ओर नागरी प्रचारिणी सभा काशी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद पटना, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग सब नष्ट होते गए और दूसरी ओर, संस्कृति की बातें भी की गईं। संस्कृति की जीवंतता और गतिशीलता समाप्त होती गई। अपसंस्कृति फैलने लगी।

अस्सी के दशक के अंत से, विशेषतः 1989 से भारत ने एक नया रूप ग्रहण किया। स्वतंत्र भारत का यह वर्ष अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है और इस पर विस्तार से अब भी विचार करने की आवश्यकता है। इस वर्ष-विशेष को भारतीय और वैश्विक संदर्भ में ‌देखा जाना चाहिए क्योंकि इस समय कई परिवर्तन घटित हुए। विश्वमंच पर ट्रंप का शुभागमन इसी वर्ष हुआ था, फुकुयामा का लेख ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री’ ‘द नेशनल इंटरेस्ट’ के 16वें नंबर में (ग्रीष्म, 1989) में प्रकाशित हुआ था। पश्चिमी बर्लिन और जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य के बीच एक अवरोध के रूप में बर्लिन की जो दीवार थी, वह 9 नवंबर 1989 के बाद के कुछ सप्ताहों में तोड़ दी गई, सोवियत संघ का विघटन आरंभ हुआ और अमेरिकन ‘अकादेमी ऑफ आर्ट्स ऐंड साइंस’ की पत्रिका डैडेलस का दिसंबर 1989 का अंक ‘अनदर इंडिया’ पर था, जिसमें आशीष नंदी का लेख ‘द पॉलिटिकल कल्चर ऑफ द इंडियन स्टेट’ और टी.एन. मदन का लेख ‘रिलीजन इन इंडिया’ भी था।

यहां भारत में 1989 में ही नौवीं लोकसभा का चुनाव हुआ। कांग्रेस की 217 सीटें घट गईं। अचानक पांच वर्ष के भीतर ऐसा क्या हो गया कि आठवीं लोकसभा (1984) में 404 सीटें जीतने वाले राजीव गांधी एक प्रकार से पछाड़ खाकर जा गिरे। उस समय भाजपा का वोट प्रतिशत मात्र 7.74 था और उसे केवल दो सीट मिली थी। यह कांग्रेस के पतन का भी दशक है। 1984 में विहिप ने बाबरी मस्जिद के ताले खोलने और विशाल राममंदिर के निर्माण के लिए अभियान आरंभ किया था। अगले ही वर्ष राजीव गांधी ने विवादित स्‍थल का ताला खुलवा दिया। लोकसभा चुनाव में सदैव हिंदी प्रदेश की मुख्य भूमिका रही है क्योंकि यहां से कुल सांसदों की संख्या 225 है। 1977 और 1989 के चुनावों में इसकी प्रमुख भूमिका थी और फिर 2014 के चुनाव में। जाति, धर्म और संप्रदाय की राजनीति पहले भी थी, पर वह प्रमुख हुई 1989 से। इसका सांस्कृतिक प्रभाव तुरंत दिखाई नहीं दिया, पर बाद में जाति, धर्म और बाजार की राजनीति ने संस्कृति को अपने में लपेट लिया।

अस्सी के दशक में नए ‘विमर्श’ सामने आए। राजेंद्र यादव के संपादन में हंस का पुनर्प्रकाशन 31 जुलाई 1986 से आरंभ हुआ। ‘‌दलित विमर्श’ और ‘स्‍त्री विमर्श’ हंस के माध्यम से उन्होंने खड़ा किया। इस समय तक किसानों ने आत्महत्या नहीं की थी। हंस पत्रिका के केंद्र में ‘किसान’ नहीं रहे। ‘अस्मिता विमर्श’ का यह दौर है। भोपाल को कला और साहित्य का केंद्र बनाने का प्रयास सफल नहीं रहा। मायावती, मुलायम और लालू, विश्वनाथ प्रताप सिंह की देन हैं। अस्सी के दशक में कई क्षेत्रीय दलों का जन्म हुआ। राजनीति में जितनी तेजी से चीजें घटित होती हैं, उतनी संस्कृति में नहीं। राजनीतिक परिदृश्य के बदलने के साथ-साथ सामाजिक परिदृश्य बदलता है और बाद में सांस्कृतिक परिदृश्य में बदलाव आता है। कांग्रेस परिदृश्य से बाहर हो रही थी और नए-नए क्षेत्रीय दल परिदृश्य पर आ रहे थे।

1989 भारतीय राजनीति का ‘टर्निंग प्वाइंट’ है और भारतीय अर्थनीति का ‘टर्निंग प्वाइंट’ 1991 हैं। नई आर्थिक नीति के सूत्रधार नरसिंह राव और मनमोहन सिंह हिंदी प्रदेश के नहीं थे। भारत में इन दोनों ने नई आर्थिक नीति लागू की और विश्व की नव उदारवादी अर्थव्यवस्था से इसका सीधा संबंध था। राजीव गांधी ने अपने कदम इस ओर कुछ बढाए थे, पर वे इस ओर चल नहीं सके। उन्होंने ‘हिंदू कार्ड’ खेला, पर इस मार्ग पर उनका चलना कठिन था। धर्म आरएसएस के जन्म के साथ ही उसके एजेंडे में रहा है। 9 नवंबर 1989 को विहिप के नेतृत्व में हजारों हिंदू कार्यकर्ताओं ने अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास किया। इसके पहले विहिप ने पूरे देश में राम मंदिर को लेकर एक अभियान चलाया था। 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद का आयोजन किया गया। आरएएस और उसके कुछ बडे़ संगठन-विहिप, बजरंगदल आदि पूरी तैयारी के साथ अपने एक एजेंडे के तहत आगे बढ़ रहे थे।

उस समय हिंदी के कवियों, लेखकों, संपादकों और संस्कृतिकर्मियों का इस ओर अधिक ध्यान नहीं था। सारा ध्यान दूसरी ओर था। 1989 के चुनाव में भाजपा 2 सीट से उछल कर 89 पर आ गई थी और जनता दल की सांसद-संख्या 142 थी। भाजपा और अन्य दलों के सहयोग से विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी। जाति-विभक्त हिंदी समाज में जाति और धर्म का नए सिरे से उभार हुआ। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ। संप्रदायवाद पर हिंदी कवियों-लेखकों ने अधिक ध्यान दिया, पर नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से उसकी अभिन्नता पर कम विचार हुआ। नरसिंह राव ने नवउदारवादी अर्थव्यवस्था लागू की थी और बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की।

हिंदी के अधिसंख्य लेखक मध्यवर्ग के हैं, वे धीरे धीरे शहर के होने लगे। दिल्ली की ओर कइयों ने रुख किया। हिंदी क्षेत्र में साहित्य और संस्कृति के जितने भी केंद्र थे- बनारस, इलाहाबाद, पटना आदि, वे सब खत्म होते गए और सब दिल्लीमुखी हुए। मुक्तिबोध ने लिखा था- ‘कहां जाऊं? दिल्ली या उज्जैन?’ इन दोनों में वे कहीं नहीं गए। दिल्ली साहित्य का, विचार का, विमर्श का केंद्र बनता गया। दिल्ली में सत्ता थी। ‘दिनकर’ ने पचास के दशक में ही इसे ‘कृषक मेध की रानी’ और ‘वैभव की दीवानी’ कहा था। उज्जैन धर्म-नगर था। मुक्तिबोध ने दोनों को ‘रिजेक्ट’ किया। केंद्र में, दिल्ली में रहकर परिधि की बातें की गईं। हाशिए के स्वरों पर विचार करने वाले स्वयं केंद्र में आते गए।

इन पंक्तियों के लेखक ने बीस-पचीस वर्ष पहले हिंदी के ‘त्रिदेव’ की बात कही थी। नामवर, राजेंद्र यादव और अशोक वाजपेयी- तीनों दिल्ली में रह रहे थे। साहित्य की सत्ता और बागडोर एक प्रकार से इन तीनों के हाथों में थी। अकादमियां दिल्ली में थीं, प्रकाशक वहां थे, पुरस्कार दाता वहां थे। दिल्ली भारत का पर्याय नहीं है। वह हिंदी प्रदेश का भी सर्वस्व नहीं है, पर उसे सर्वस्व बनाया गया।

हिंदी के अधिकांश कवि, लेखक, संपादक, विचारक संस्कृतिकर्मी या तो प्रगतिशील हैं या मार्क्सवादी, पर यह एक बड़ा प्रश्न है कि 1989 के बाद हिंदी प्रदेश संप्रदायवादियों, उन्मादियों और संघियों-भाजपाइयों का गढ़ कैसे बना? इन सभी लेखकों ने जातिवाद और धर्मांधता पर कितना प्रहार किया? सोवियत रूस के विघटन से कई मार्क्सवादी विचलित हुए, भ्रमित भी, कइयों की मार्क्सवाद से आस्था जाती रही। जो कुछ बचे, वे अकेले पड़ते गए। समाजवादियों ने स्वाधीन भारत में सदैव संप्रदायवादियों, हिंदुत्ववादियों का साथ दिया। सांस्कृतिक संगठन बने रहे, पर उनकी सक्रियता घटी। संस्कृति किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे पर, भाजपा को छोड़कर, नहीं रही। कांग्रेस के पास भी कभी कोई सांस्कृतिक एजेंडा नहीं रहा है। उसने अपनी एक संस्कृति विकसित की, जो कमोवेश सभी राजनीतिक दलों की संस्कृति बनी, जिसका देश की जनता से कोई वास्तविक और जीवंत संबंध नहीं था। ‘राज्य’ की भूमिका कमजोर होती गई।

एक नई संस्कृति कॉरपोरेट संस्कृति विकसित हुई। बाजार की नवउदारवादी अर्थव्यवस्था है। बाजार ईश्वर बन गया। धर्म बाजार बन गया। यह सारा खेल हिंदी प्रदेश में अच्छी तरह खेला जाता रहा है। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण, जिसे भूमंडीकरण कहा जाना चाहिए, उसने अपनी एक संस्कृति विकसित की, जिसमें समझदार कम ही सही, समय-समय पर दिखाई देते रहे। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था बाजार के पक्ष में थी। लोकतंत्र का रुग्‍ण होना स्वाभाविक था। इसने पूरे विश्व में दक्षिणपंथ को बढ़ावा दिया है। अमेरिका में ट्रंप और भारत में मोदी के आगमन के मजबूत तार इस अर्थव्यवस्था से जुड़े हैं। अभी यूरोपीय संघ के जिन आठ देशों के सांसदों ने कश्मीर का दौरा किया है, वे सभी दक्षिणपंथी दलों के सांसद है।

हिंदी कवि और लेखक इस घटना-चक्र से कभी उदासीन नहीं रहे। उन्होंने अपनी रचनाओं में -कविताओं, कहानियों और उपन्यासों में अपनी समय-चिंता प्रकट की, पर वे हस्तक्षेपकारी भूमिका में नहीं आ सके। एकध्रुवीय विश्व की एकध्रुवीय संस्कृति आरएसएस और भाजपा के पक्ष में जाती है। आरएसएस ने हमेशा अपने को सांस्कृतिक संगठन कहा है, पर यह एक छल है। उसका एजेंडा साफ है। हम सब जिसे साझी और समावेशी, मिश्रित संस्कृति कहते हैं, उसका आरएसएस समर्थन नहीं करता। भारत किसी एक संस्कृति का देश नहीं है। भारतीय संस्कृति में कई संस्कृतियां मिली हुई हैं। इकबाल ने लिखा था- “वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है, तेरी बरबादियों के मश्वरे हैं आसमानों में, न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालो।” भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश को एक धर्म, एक भाषा और एक संस्कृति में रिड्यूस करने में आरएसएस लगा है। उसने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा प्रस्तुत की, जो ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। हिंदी प्रदेश में कट्टरता को बढ़ावा दिया गया। ‘उनिभू’ (उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण) ने भी संस्कृति को प्रभावित किया।

हिंदी प्रदेश और समाज की बड़ी भूमिका है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय यह प्रदेश केंद्र में था। 1857 में, 1942 में भी। इसमें संघर्ष की क्षमता रही है। ‘साहित्य का उद्देश्य’, प्रेमचंद्र ने बदल डाला था। आधुनिक युग में, भारतेंदु के समय से ही साहित्य समाज से जुड़कर आगे बढ़ा। हिंदी संस्कृति कभी हिंदू संस्कृति नहीं रही है। सांस्कृतिक परिवर्तन, विचलन, बदलाव के आरंभ से अब तक के कई उदाहरण हैं, पर 2014 के बाद का झटका भूकंपकारी है। 16वीं लोकसभा में तीस वर्ष बाद किसी एक राजनीतिक दल भाजपा को बहुमत प्राप्त हुआ।

यह एक ऊंची छलांग थी। पिछले चुनाव से भाजपा की सीटें दोगुनी से अधिक बढ़कर 282 हुई और वोट लगभग दस प्रतिशत बढ़ा। संस्कृति के क्षेत्र में आरएसएस जो चाल लंबे समय से चल रहा था, अब उसमें गति आ गई। 2019 के चुनाव में भाजपा का वोट 31 प्रतिशत से बढ़कर 37-36 प्रतिशत हुआ और सांसदों की संख्या 21 अधिक 303 हो गई। 16 मई 2014 को चुनाव परिणाम घोषित हुआ था और एक समकालीन हिंदी कवि रंजीत वर्मा ने ‘कविताः 16 मई के बाद’ दो वर्ष तक एक कार्यक्रम चलाया। मुख्य रूप से यह संघर्षशील कवियों को एक मंच पर इकट्टा करने का प्रयत्न था। दिल्ली, पंजाब, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, असम में कविता-पाठ हुआ। 500 से अधिक कवियों ने कविता पाठ किया था। 60 कवियों की कविताओं की एक पुस्तक ‘प्रतिरोध का पक्ष’ भी प्रकाशित हुई, पर इसने कोई छाप नहीं छोड़ी। एक ओर संस्कृति के क्षेत्र में हिंदुत्ववादियों की धमक और दूसरी ओर बाजार की पहल दोनों ने मिलकर एक नया दृश्य निर्मित किया।

जनवरी 2006 में जयपुर लिटरेचर फेस्टिबल आरंभ हुआ। इसके बाद हिंदी प्रदेश में साहित्योत्सव का एक नया सिलसिला चला। उत्तर प्रदेश के लखनऊ, नोएडा, एएमयू, राजस्थान के अजमेर, छत्तीसगढ़ के रायपुर, झारखंड के रांची, उत्तराखंड के देहरादून में यह हो रहा है। साहित्य यहां उत्सव है। साहित्य संस्कृति का प्रमुख रूप है, जिसे हिंदी क्षेत्र में बाजार ने विशेष प्रभावित किया, हिंदुत्ववादियों ने नहीं। हिंदुत्ववादियों ने इनका विरोध किया। अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक-सी लगी। सत्ता व्यवस्था और सरकार को अचानक ‘अर्बन नक्सल’ दिखाई देने लगे। जेएनयू पर प्रहार किया गया क्योंकि वह वामपंथ का गढ़ था। संस्था प्रमुख आरएसएस से जुड़े लोग बनने लगे। कोई संस्था बची नहीं रही। बाजार ने भाषा बदली। हिंदी सांस्कृतिक भाषा से अधिक बाजार की भाषा बनने लगी। हिंदी के कई आलोचक और मीडिया विशेषज्ञ साहित्य और साहित्यकार को ‘तिरछी नजर’ से देखने लगे। यह सब बाजार का कमाल है।

विपक्ष गायब है। विपक्ष में केवल कवि, लेखक, संस्कृतिकर्मी ही बचे हैं। प्रलोभनों और पुरस्कारों की कमी नहीं है। हिंदी प्रदेश की जनसंख्या 50 करोड़ से अधिक है। इसने एकजुट होकर ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी थी, ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़ी थी। गणेशशंकर विद्यार्थी, निराला, प्रेमचंद, मुक्तिबोध, नागार्जुन की परंपरा में ही आगे बढ़कर हिंदी लेखक अपने समाज का उन्नयन कर सकते हैं। पिछले छह वर्ष से हिंदी प्रदेश का परिदृश्य बदला हुआ है। अब यह संप्रदायवादियों के हवाले है। 2014 के चुनाव में भाजपा को 282 सीट मिली थी, जिसमें 190 के लगभग सीट हिंदी प्रदेश की थी। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से मध्यवर्ग सर्वाधिक लाभान्वित हुआ है। हिंदी प्रदेश के अधिसंख्य मध्यवर्ग को भाषा, संस्कृति से कोई मतलब नहीं है। वह पुस्तक प्रेमी नहीं है। 50 करोड़ की आबादी वाले इस भाषाई क्षेत्र में पुस्तकालय नहीं रह गए हैं, कॉलेज और विश्वविद्यालय के अनेक हिंदी प्राध्यापकों को पढ़ने-पढ़ाने से मतलब नहीं है। सांस्कृतिक संगठनों का कोई एजेंडा नहीं है, न ही कोई व्यापक कार्यक्रम। धर्म को राष्ट्रीयता का आधार मानकर, धर्म को संस्कृति से जोड़कर ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘हिंदू संस्कृति’ का निर्माण आरएसएस का एजेंडा है।

हिंदी प्रदेश आज सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वाधिक संकटग्रस्त है। संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों का यहां एक प्रकार का प्रभुत्व है। भाजपा केंद्र में है और हिंदी प्रदेश में भी। योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का एक सांस्कृतिक संदेश भी है। क्षेत्रीय दलों में कल तक जो भी प्रमुख थे, वे आज हाशिए पर हैं।

भाजपा हिंदू संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति समझती-समझाती है। भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों का समुच्चय है। हिंदू संस्कृति भारतीय संस्कृति नहीं है। हिंदी समाज को कई रूपों में, जिनमें भाषा और धर्म प्रमुख थे, विभाजित करने की अंग्रेजों ने कोशिश की। वह अभी तक जारी है।

राजनीति ने अपने लाभ के लिए संस्कृति के सभी सकारात्मक पक्षों को क्रमशः कमजोर किया। विवेक पर हमला पिछले छह वर्ष में जितना हुआ है, उतना पहले नहीं था। राजनीति और बाजार ने अपनी संस्कृति विकसित की। संस्कृति पर बाजार और पूंजीवाद ने कब्जा किया। अब संस्कृति एक उद्योग भी है। भाषा विकृत हुई। पिछले कुछ समय से हिंदी भाषा के स्वरूप को, शब्द और वाक्य-विन्यास को बदलने की कम कोशिशें नहीं हुईं। हिंदी के कई समाचार-पत्रों में अंग्रेजी का ज्ञान दिया जा रहा है। सबसे बड़ा ‘कल्चरल शिफ्ट’ संघ, भाजपा और बाजार ने किया। भाजपा और बाजार के पास कोई ‘सांस्कृतिक तर्क’ नहीं है। भाजपा ने सत्ता-प्राप्ति और वर्चस्व के लिए जो सांस्कृतिक तर्क रखे, वे संदेश थे, तर्क नहीं। एक नया ‘सांस्कृतिक नैरेटिव’ रचा गया, जिसमें तकनीक की भी भूमिका रही। मुक्लुहान को याद कीजिए।

हिंदी भाषी प्रदेश को केवल अंग्रेजों ने ही नहीं, स्वाधीन भारत की सभी सरकारों ने पिछड़ा बनाए रखा। इसमें उनका हित था। जनहित की उन्हें कोई चिंता नहीं रही। सांस्कृतिक क्षेत्र में फूहड़पन बढ़ा। आरएसएस ने धर्म के साथ ऐसा ही किया। धर्म की राजनीति और धर्म की संस्कृति ने बाजार के साथ हिंदी प्रदेश में एक विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर दी है। यहां वैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का ह्रास हो रहा है और सांप्रदायिक सोच-विचार फल रहा है। सत्ता और हिंदुत्ववादी संस्कृति के विरुद्ध जिस संस्कृति की आज जरूरत है, वह प्रतिरोध की संस्कृति है। हिंदी साहित्यकारों में सहयोग और समर्पण के कम उदाहरण हैं। यह समय अलग-थलग रह कर सृजन-कर्म करने का नहीं है। ‘पुरस्कार वापसी’ के बाद लेखकों ने और बड़े कदम नहीं उठाए। हस्ताक्षर-अभियान सब कुछ नहीं है। कवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों में एकजुटता का अभाव है। बयासी-तिरासी वर्ष पहले 1936 में प्रेमचंद ने कहा था-“ अब और अधिक सोना मृत्यु का लक्षण है।”

(प्रसिद्घ आलोचक, संस्कृतिकर्मी। रांची विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे। कई किताबों के लेखक)

 

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विदेशी पूंजी अकेले नहीं आई। उसके साथ राजनीतिक और सांस्कृतिक निवेश भी होता गया जिसका विकृत रूप आज दिख रहा है

 

-- भारत में अमेरिकी पूंजी के साथ अमेरिकी संस्कृति ने प्रवेश किया। सांस्कृतिक बदलाव राजनीतिक और आर्थिक बदलाव से जुड़ा है

-- संप्रदायवाद पर हिंदी कवियों-लेखकों ने अधिक ध्यान दिया, पर नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से उसकी अभिन्नता पर कम विचार हुआ

--भारत जैसे बहुधार्मिक, बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक देश को एक धर्म, एक भाषा और एक संस्कृति में रिड्यूस करने की कोशिश जारी है

-- यह समय अलग-थलग रह कर सृजन-कर्म करने का नहीं है। कवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों में एकजुटता का अभाव है

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