Advertisement

आजादी हीरक जयंती/पर्यावरण सेनानी: धरती कहे पुकार के...

भारत की आजादी की हीरक जयंती के मौके पर एक बुनियादी बात सिरे से भुला दी गई है कि हमारी सारी आजादियां बुनियादी रूप से अपनी धरती, प्रकृति और व्यापक स्तरह पर समूचे ब्रह्माण्ड के सापेक्ष संचालित होती हैं।
शाहिद रसूल, वैज्ञानिक

कश्मीर की बैंगनी खुशबू

शाहिद रसूल, वैज्ञानिक

मदमाती खुशबू में लिपटा बैंगनी फूलों से सजा एक विशाल मैदान। एक हहराते हुए सोते के साथ चलने वाली पगडंडी आपको लैवेंडर के मैदानों में ले जाती है। यहां गुलाब के बगीचों में किसान फल तोड़कर उसका तेल निकालते हैं। गुलाब की सुगंधित फसल से घिरी एक झोपड़ी है जिसका उपयोग वैज्ञानिकों और शोध विद्वानों द्वारा फार्म कार्यालय के रूप में किया जाता है। सीएसआईआर-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटिव मेडिसिन, जम्मू के वरिष्ठ वैज्ञानिक और श्रीनगर से 35 किलोमीटर दूर स्थित पुलवामा में इस फील्ड स्टेशन के प्रभारी डॉ. शाहिद रसूल इस सुगंधित स्वर्ग को औषधीय व सुगंधित फसलों के उत्पादन व प्रसंस्करण के एक केंद्र के रूप में विकसित करने के इच्छुक हैं।

वे बताते हैं, "किसान, कृषि-उद्यमी और शोध विद्वान इस शोध केंद्र का दौरा करते हैं। हमारे पास स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के छात्र और शिक्षक यह जानने के लिए आते हैं कि हम कैसे काम करते हैं, और अनुसंधान, विकास और प्रौद्योगिकियों के प्रसार का संचालन कैसे करते हैं।"

फील्ड स्टेशन की व्यापक कृषि योग्य भूमि के एक कोने में, कंक्रीट की इमारतों में फौज के सैनिक रहते हैं। सेना ने 1990 में पुलवामा में फील्ड स्टेशन की इमारत और प्रयोगशाला पर कब्जा कर लिया था जब घाटी में विद्रोह शुरू हुआ था। सेना ने इस इमारत को प्रशासनिक परिसर और अनुसंधान सुविधा के रूप में इस्तेमाल किया है। सेना ने कैंप की सुरक्षा के लिए टावरों का निर्माण भी कराया है।

डॉ. शाहिद रसूल ने 2020 में सीएसआईआर फील्ड स्टेशन के वैज्ञानिक प्रभारी के रूप में पदभार संभाला था। पिछले कई साल से वह पूरे जम्मू-कश्मीर में लैवेंडर की खेती को लोकप्रिय बनाने और इस क्षेत्र को फूल के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक बनाने के मिशन पर हैं। वे बड़े जुनून से लैवेंडर और उस शख्स के बारे में बात करते हैं जो लैवेंडर को इस क्षेत्र में लेकर आए थे। डॉ. रसूल कहते हैं, "अगर जम्मू-कश्मीर में लैवेंडर है, तो यह डॉ. अख्तर हुसैन की वजह से है। उन्होंने 1970 के दशक में कश्मीर में लैवेंडर को इसी फील्ड स्टेशन में पहली बार लगाया था जब किसी ने इसके बारे में सोचा तक नहीं था। सभी बाधाओं के बावजूद, उन्होंने सभी को विश्वास दिलाया कि जम्मू-कश्मीर में लैवेंडर वैकल्पिक फसलों में से एक हो सकता है।"

पिछले कई साल से सरकार द्वारा किसानों को सूखे की स्थितियों में वैकल्पिक फसलों की खेती करने की सलाह दी गई है। डॉ. रसूल कहते हैं कि लैमिसे परिवार से संबंधित बारहमासी झाड़ की प्रजाति में आने वाला लैवेंडर इसका सबसे अच्छा विकल्प है। सुंदर होने के साथ-साथ यह एक आर्थिक रूप से लाभकारी फसल भी है, जिसमें फूलों से एक किलो तेल निकाला जाता है जो 10,000 रुपये से ऊपर का पड़ता है। पौधारोपण के पहले दो वर्षों में इससे कोई तत्काल रिटर्न नहीं मिलता। उत्पादन के तीन साल बाद ही मुनाफा मिलना शुरू हो जाता है। वे कहते हैं, "यह दुनिया की सबसे अच्छी नकदी फसलों में से एक है, जहां बहुत कम इनपुट वाला किसान आसानी से सालाना प्रति हेक्टेयर 4-5 लाख रुपये कमा सकता है। इसकी फसल कीट और रोग मुक्त है क्योंकि इसकी खेती जैविक मानकों के हिसाब से की जाती है। किसान जो तेल निकालते हैं उसकी कोई तय कीमत नहीं होती। किसान 15,000 रुपये में भी एक किलो बेच सकते हैं।"

 उन्होंने कहा, "जम्मू-कश्मीर विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार परिषद के सहयोग से हमने लैवेंडर और गुलाब, टकसाल और दौनी जैसी अन्य उच्च मूल्य वाली सुगंधित फसलों की खेती, प्रसंस्करण और उपयोग करने के लिए कुपवाड़ा में प्रोजेक्ट-के 5000 शुरू किया है।"

वर्तमान में लैवेंडर का सबसे बड़ा उत्पादक बुल्गारिया है और लगभग 3,500 हेक्टेयर में इसकी खेती से दुनिया का लगभग 50 प्रतिशत लैवेंडर तेल- करीब 100-130 मीट्रिक टन- पैदा करता है। इसके खेतों से पैदा होने वाला लैवेंडर का शहद भी भारी दाम पर बिकता है। वे कहते हैं, "अगर हम अनुकूल जलवायु परिस्थितियों में इसी गति से खेती को जारी रखते हैं, तो हम बुल्गारिया के उत्पादन और उत्पादकता के आंकड़ों को पार कर सकते है।" जम्मू-कश्मीर एक हेक्टेयर में 50 से 60 किलोग्राम तेल का उत्पादन करता है जबकि बुल्गारिया 200 से 250 किलोग्राम तक पैदा करता है। वह कहते हैं, "हमें उच्च उपज वाली किस्मों की आवश्यकता है।"

नसीर गनाई

........

चाहत के पंख

प्रदीप डिसूजा, जख्मी परिंदों का रहनुमा

प्रदीप डिसूज

मुंबई का बर्डमैन कहे जाने वाले प्रदीप डिसूजा के साथ विवादों का चोली-दामन का साथ रहा है लेकिन अपने लक्ष्य से उनकी नजर कभी नहीं भटकी। वे एक ऐसे परिवार में बड़े हुए जो आवारा कुत्तों को गोद लेता था और बीमार पशुओं की देखभाल करता था। डिसूजा पक्षियों और छोटे जानवरों, दोनों की कई नाजुक प्रजातियों के रखवाले हैं। वे सुबह जल्दी उठते हैं, अपने पक्षियों और जानवरों के लिए रहने की जगह को साफ करते हैं, उन्हें खिलाते-पिलाते हैं और उनकी तीमारदारी करते हैं। उनके घर में जंगल जैसी तीव्र गंध आती है। यहां चील, गिद्ध, उल्लू, एग्रेट, बगुले और चमगादड़ जैसे प्राणी खरगोशों के साथ शांति के साथ सह-अस्तित्व में रहते हैं। उनका परिवार उनके साथ ही काम करता है। उनका प्यार ही उनकी एकमात्र प्रेरणा है। एक बार उन्होंने एक दुर्लभ और विशाल सफेद गिद्ध को बचाया था।

उनका कहना है कि लोग अनजान हैं। जब तक वे पक्षियों की दुनिया को नहीं जानेंगे, तब तक उन्हें एहसास ही नहीं होगा कि पतंग उड़ाने से हमारे पंख वाले दोस्तों को कैसे नुकसान होता है। वे लंबी सास छोड़ते हैं। अक्सर वे अधिकारियों से मदद मांगते हैं, और बदले में उनके खिलाफ ही मुकदमा दर्ज हो जाता है। वे इस बात से दुखी हैं कि कोई भी घायल पक्षियों या जानवरों की देखभाल नहीं करता। वह अब भी मानते हैं कि एक दिन अधिकारी उनकी चिंता को समझेंगे, उनके एजेंडे को समझेंगे और एक साथ वे अपने प्यारे शहर के आसपास की प्रकृति को बहाल कर पाएंगे।

दिनेश परब

 -----------

भालोपहाड़ और रस्का का जंगल

कमल चक्रवर्ती, जंगल के निर्माता

कमल चक्रवर्ती

भालोपहाड़- यह नाम सुनने में कुछ अच्छा नहीं महसूस होता? पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में भालोपहाड़ सोसाइटी की स्थापना कौरब (एक प्रसिद्ध वार्षिक बंगाली पत्रिका जो साहित्य की स्थापित विधाओं से इतर लेखन का प्रकाशन करती है) से जुड़े पांच स्वप्नजीवी लेखकों द्वारा की गई थी। वनीकरण को बढ़ावा देने के लिए इस समूह ने अपनी सारी बचत दांव पर लगा दी। इनका काम कटते जंगलों और उसकी भयावहता के बीच एक हरी-भरी कविता की तरह चमकता है। यह कमल चक्रवर्ती उर्फ कमलबाबू द्वारा संचालित एक आश्रम है। यदि आप कभी उनसे मिलते हैं, तो उनसे आती मिट्टी और पेड़ों की गंध, आदिवासियों जैसी त्वचा और शहरी सभ्यता के खिलाफ उनकी कड़वाहट से उन्हें पहचान जाएंगे। आप उन्हें सफेद धोती और गंजी पहने हुए, शायद एक पेड़ के पास या आदिवासी बच्चों के साथ या उनकी अव्यवस्थित झोपड़ी में लिखते हुए पा सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में, चक्रवर्ती ने सौ बीघा से अधिक जमीन खरीदी है जिसे उन्होंने रस्का नाम के जंगल में बदल डाला है। इस जंगल में 1.20 लाख पेड़ हैं। ये पेड़ कुदरत की बहाली करते हैं और पक्षियों, कीड़ों व छोटे पशुओं को आहार मुहैया कराते हैं। वे और उनके दोस्त संथाल युवाओं को उनकी आदिवासी संस्कृति को संरक्षित करने के लिए शिक्षित करते हैं। 1 सितंबर, 1996 को शुरू हुई भालोपहाड़ सोसाइटी में फिलहाल समान विचार वाले 55 लोग काम करते हैं। उन्होंने पुरुलिया की मिट्टी को नया जीवन देने के लिए हाथ मिलाया है।

संदीपन चटर्जी

-----------

हरित मछुआरा

पी. राजन, केरल का मैंग्रोव मैन

पी. राजन

पी. राजन का काम केवल संख्याओं में समझना हो तो 58 बरस के अपने जीवनकाल में वे हर साल 1,700 से अधिक मैंग्रोव के पेड़ लगा देते हैं, लेकिन केरल की पझयांगड़ी नदी के किनारे पारिस्थितिकी तंत्र पर उनके काम के प्रभाव का आकलन करने के लिए आंकड़े पर्याप्त नहीं होंगे। राजन को प्यार से 'कंदल राजन' कहा जाता है। यह अनायास नहीं है। मैंग्रोव को मलयालम में कंदल कहते हैं। कन्नूर के इस मछुआरे को कंदल का जुनून रहा है। इन्होंने उत्तरी केरल में कन्नूर से गुजरने वाली नदी के किनारे लगभग एक लाख मैंग्रोव के पौधे लगाए हैं। राजन ने आउटलुक को बताया, "मेरे पास 50,000 और पौधे हैं जिन्हें लगाने की आवश्यकता है।"

पानी की सतह पर रंगों के पैटर्न या उनमें बदलाव को समझने की राजन के पास गहरी नजर है। आम तौर से ऐसी ही जगहों पर मछली मिलती है, लेकिन मछली पकड़ने के काम में मैंग्रोव के पारिस्थितिकीय महत्व को उनकी नजर ने बहुत पहले पकड़ लिया था।

केरल सरकार के मत्स्यपालन विभाग की वेबसाइट के अनुसार मैंग्रोव का विनाश हो रहा है और यह चिंता का विषय है। नदियों के सघन जाल वाले इस तटीय राज्य में कभी मैंग्रोव 70,000 हेक्टेयर में पाये जाते थे लेकिन अब यह क्षेत्र सिमट कर मात्र 1,942 हेक्टेयर रह गया है।

केरल में मैंग्रोव को सरकारी और निजी भूमि से खत्म किया जा रहा है ताकि जलीय कृषि, खेती और कैपड़ नामक आकर्षक जैविक चावल की खेती के लिए रास्ता बनाया जा सके। यही वह बिंदु है जहां राजन द्वारा अपेक्षाकृत छोटे पैमाने पर किए गए हस्तक्षेप के चलते केरल के बैकवाटर पारिस्थितिकीय तंत्र में कुछ फर्क आ सकता है।

राजन कहते हैं, "कई साल पहले मैंने पाया कि मेरा रोज का शिकार गिर रहा था जबकि अन्य मछुआरे जो मैंग्रोव के इलाकों में मछली पकड़ते थे उनकी पकड़ ज्यादा थी। तभी मैंने इस रहस्य की तह तक जाने का फैसला किया।"

पिछले कुछ वर्षों में राजन ने केरल के जल निकायों में मैंग्रोव की 20 से अधिक किस्मों की पहचान की है जिनमें से कई से उन्होंने पौधे तैयार किये हैं। वे कहते हैं, "केरल में आई बाढ़ हर किसी के लिए सबक होनी चाहिए। मैंग्रोव पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं और मिट्टी में गहरे होती हैं, जो कटाव को रोकती हैं और बाढ़ को रोकती हैं। यह चक्रवात की सूरत में मिट्टी को बांधे रख सकती हैं।"

मैंग्रोव का स्थल मछलियों के लिए एक आदर्श प्रजनन स्थल है और केकड़े, झींगे आदि के लिए एक स्वस्थ पारिस्थितिकीय तंत्र भी मुहैया करवाता है। दलदली नदी के किनारों में उथले मैंग्रोव के कैनोपी और क्रॉली पक्षियों को भी आकर्षित करते हैं। वे कहते हैं, "वहां एक समूची दुनिया का वास है।"

नदी के किनारे मैंग्रोव पौधे लगाने की अपनी शुरुआती सफलता के बाद राजन ने अब एक मैंग्रोव नर्सरी शुरू की है। यहां वे पौधों के नमूने रखते हैं ताकि प्रकृति प्रेमी लोग उनके प्रयोग का अनुकरण कर सकें।

उनका दिन मछली पकड़ने के लिए अपनी डोंगी में सवारी के साथ शुरू होता है। वापस आते वक्त वे शिकार के साथ भविष्य के उपयोग के लिए कुछ मैंग्रोव के बीज और ताजा पौधे ले आते हैं। अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के बीच राजन ने अपने आसपास के पर्यावरण को थोड़ा-बहुत ही सही, हरा-भरा किया हॆ।

मायाभूषण नागवेनकर

--------

मगर और मनुष्य के बीच

सीताराम दास, मगरमच्छ के दोस्त

सीताराम दास

सीताराम दास के कुछ असामान्य दोस्त हैं। वह तालाब के इस तरफ से उन्हें बुलाते हैं और वे उनकी ओर खिंचे चले आते हैं। सत्रह साल पहले, उनमें से एक ने इन्हें तालाब के भीतर खींच लिया था। उस मगरमच्छ ने इनका हाथ बुरी तरह से जख्मी कर दिया लेकिन इसने न तो उनकी दोस्ती पर कोई असर डाला और न ही शिकारियों और ग्रामीणों से इस सरीसृप को बचाने के उनके प्रयासों को कमजोर पड़ने दिया।

छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले का कोटमी सोनार गांव लंबे समय से मगरमच्छों का निवास स्थान रहा है। यहां कोई बीसेक तालाब हैं जिनमें मगर का वास है। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के निवासी सीताराम, जो अब 70 बरस पार कर चुके हैं, आउटलुक को बताते हैं, "मैंने पहले यहां एक तालाब के दो मगरमच्छों से दोस्ती की। जल्द ही, मैं उन सभी के साथ दोस्त बन गया।" पड़ोस के अकलतारा निवासी संस्कृति विभाग से सेवानिवृत्त संयुक्त निदेशक राहुल सिंह ने दशकों से सीताराम के जीवन को बारीकी से देखा है। वे बताते हैं, "जब एक तालाब में जलस्तर नीचे चला गया तो मगरमच्छ दूसरे की ओर चले गए। तब सीताराम ने उन्हें जमीन पर लाने में मदद की।" सीताराम मगरमच्छों को "नर्मदाजी का वाहन’’ कहते हैं। ये सरीसृप अक्सर एक-दूसरे के अंडे और संतानों को खा जाते हैं, तो सीताराम ने तालाब में प्रवेश करने के लिए तैयार होने से पहले उनके नवजात बच्चों की रक्षा की। उनके प्रयासों के बाद इस क्षेत्र में मगरमच्छ की आबादी धीरे-धीरे बढ़ी, जिससे सरकार का ध्यान इस ओर गया। 2006 में सरकार ने मगरमच्छ पार्क का उद्घाटन किया। इस क्षेत्र में अब 150 से अधिक मगरमच्छ हैं। सीताराम पार्क में गार्ड के रूप में कार्य करते हैं। सीताराम कहते हैं, "मैं चाहता हूं कि मेरी मौत के बाद मेरी देह मगरमच्छों को चढ़ा दी जाए। मैं उनके लिए जी रहा हूं। मेरी मौत भी उनके लिए होगी।"

आशुतोष भारद्वाज

----------

विलुप्ति ‍के विरोध में

विजय जड़धारी, बीज संप्रभुता के वाहक

विजय जड़धारी

कुछ उन्हें बीजों का जादूगर कहते हैं। अन्य लोग विजय जड़धारी को स्वदेशी बीजों पर उनके ज्ञान के लिए पहाड़ियों में बीज आंदोलन के सच्चे मसीहा के रूप में देखते हैं। टिहरी गढ़वाल के सुदूर गांव जड़धारगांव में रहने वाले किसान विजय कहते हैं, "हमारे बीज खजाना हैं। हमारी गाढ़ी कमाई। किसानों ने सदियों से बीज संरक्षण के लिए जान तक दी है। यह हमेशा से जीवन और मृत्यु का सवाल होने के बजाय हमारे लिए असली स्वतंत्रता का प्रतीक रहा है।"

अपनी बात को साबित करने के लिए वे 1852 के अकाल के बारे में ऐतिहासिक तथ्यों को उद्धृत करते हैं, जब ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने पाया कि भूख से मरते हुए किसान अपने बीजों को बचा रहे थे जबकि खुद को बचाने के लिए वे उन्हें आसानी से खा सकते थे। अपने गांव से शुरू हुए जनांदोलन बीज बचाओ आंदोलन के अगुवा जड़धारी के पास हर सवाल के जवाब में तर्क है। वे उन आशंकाओं का भी जवाब देते हैं कि श्रीलंका के वर्तमान संकट का मूल कारण इस तरह के आंदोलन हैं।

वे कहते हैं, ''यह दुष्प्रचार है। श्रीलंका का संकट राजनीतिक कारणों या उसकी अंतर्निहित समस्याओं के कारण है। भारत में हमने यह साबित कर दिया है कि पारंपरिक खेती ने सदियों से अर्थव्यवस्था को बचाए रखा है।" फिर भी, वह देसी फसलों को उगाने और स्थानीय प्रथाओं के उपयोग में नवाचारों की जरूरत को स्वीकार करते हैं।

असम स्थित इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) द्वारा शून्य  बजट की कुदरती खेती पर चर्चा करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया था। वहां से लौटने के बाद उन्‍होंने बताया, "इस क्षेत्र में वैज्ञानिक समुदाय और शोधकर्ताओं की धारणा धीरे-धीरे बदल रही है। मुझे बताया गया कि शून्य बजट प्राकृतिक खेती पर एक पूर्ण शैक्षणिक पाठ्यक्रम बनेगा। यह सुखद है।"

देहरादून के एक अनुभवी पत्रकार राजेश पांडे कहते हैं, "वे धान की लगभग 320 स्वदेशी किस्मों, राजमा की 220 और सोयाबीन की 9 किस्मों, मक्का की 10 किस्मों, बाजरे की 12 किस्मों को पुनर्जीवित कर चुके हैं।" 

अश्वनी शर्मा

-----------

धरती को बचाने की छोटी सी मुहिम

मोहम्मद आरिफुल इस्लाम, मधुमक्खी पालक

मोहम्मद आरिफुल इस्लाम

ग्रीक कवि सफ्फो ने लिखा था, "न तो मुझे मधु चाहिए, न ही मधुमक्खी।" हम जानते हैं कि मधुमक्खियों के बिना धरती कितनी खाली और दर्दनाक होगी। मोहम्मद आरिफुल इस्लाम इस देश में मधुमक्खियों की खबर लेकर घूमते हैं और पर्यावरण में मधुमक्खियों के महत्व के बारे में जागरूकता फैलाते हैं। लोगों को यह पता होना चाहिए कि वे अनजाने में कैसे मधुमक्खियों को मार देते हैं जबकि हमें और अधिक पेड़ों की जरूरत है और तकनीक कछ क्षेत्रों में कम ही रहे तो बेहतर।

आरिफुल और उनके दोस्तों को प्रवासी मधुमक्खीपालक कहा जाता है। उनका उद्देश्य लोगों को मधुमक्खियों की भूमिका, कीड़ों की नजाकत और उन्हें रखने के लाभों के बारे में शिक्षित करना है। आरिफुल कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन के कारण मधुमक्खियां मर रही हैं। इसका जवाब है और अधिक पेड़।" ये मधुमक्खीपालक लोगों से आग्रह करते हैं कि वे दीवारों की दरारों से या जल निकासी के स्थानों में उग आए छोटे पौधों को न काटें। वे स्कूलों या कॉलेजों में पाठ्यक्रम चलाने और छात्रों को प्रशिक्षित करने की इच्छा रखते हैं कि मधुमक्खियों को कैसे पाला जाए।

आरिफुल का दावा है कि उनका अभियान लोकप्रिय हो रहा है। अब ये सभी मधुमक्खीपालक एक स्वयं-सहायता समूह खोलने की कोशिश कर रहे हैं। वे निकट भविष्य में एक सहकारी संस्था बनाने की उम्मीद से हैं।

संदीपन चटर्जी

........

देसी खिलौनों की वापसी

सीवी राजू, आया रे खिलौने वाला

सीवी राजू

 

आंध्र प्रदेश के अनाकापल्ली जिले के बच्चे लगभग चार सौ वर्षों तक बचपन में जिन खिलौनों के साथ खेलते रहे, उन्हें एटिकोप्पका गांव में गढ़ा जाता था। ये खिलौने स्वदेशी अंकुडू पौधे की लकड़ी से बनाये जाते थे और प्राकृतिक रंगों व पेड़ के लासे से उन्हेंक रंगा व सजाया जाता था। इन खिलौनों में तीखे नुकीले कोने नहीं होते थे जो उन्हें बच्चों के लिए सुरक्षित बनाता था। 1980 का दशक आते-आते खिलौनों के इस समृद्ध व्यापार को संकट का सामना करना पड़ा। अंकुडू पेड़ विलुप्ति‍ के कगार पर चला गया, जबकि वनों की कटाई ने कारीगरों के लिए रंजक और लाह बनाने के लिए प्राकृतिक स्रोतों को जुटाना मुश्किल बना दिया था। उनकी जगह खिलौनों के निर्माण में जहरीले पेंट से बनी नकली डाई और कृत्रिम रंगों ने अपना रास्ता बना लिया।

एटिकोप्पका के एक किसान सीवी राजू ने देसी खिलौना उद्योग को पुनर्जीवित करने की चुनौती अपने हाथों में ली। काफी मेहनत और खोज के माध्यम से उन्होंने पौधों, जड़ों और यहां तक कि उन खरपतवारों की फिर से पहचान की जिनसे डाई बनाकर जैविक खिलौनों को वापस जिंदा किया जा सकता था। राजू कहते हैं, "मैंने प्रयोग शुरू किये और यहां एक छोटी प्रयोगशाला स्थापित कर के कपड़े व फाइबर पर प्रयोग किया।" राजू, अन्य स्थानीय खिलौना निर्माताओं, विश्व शिल्प परिषद और विभिन्न राज्य और केंद्र सरकार की एजेंसियों के समन्वित प्रयासों से लगभग दो दशक तक एटिकोप्पका के खिलौने भारत और विदेश के बाजारों में वापस आ गए।

एटिकोप्पका के खिलौनों को विलुप्त होने से बचाने के राजू के प्रयासों की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2020 में अपनी 'मन की बात' शृंखला में भी सराहना की थी। राजू के मुताबिक, सस्ते चीनी खिलौनों की जो भारतीय बाजारों में बाढ़ आ गयी है, उसने स्वदेशी खिलौना उद्योग के लिए एक गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। इसमें एटिकोप्पका में बने खिलौने भी शामिल हैं। वे कहते हैं, "बाजार पर अब चीनी खिलौनों का कब्जा हो चुका है।"

मायाभूषण नागवेनकर

---------

हरियाणा के ‘ट्री मैन’

देवेंद्र सुरा, ट्री प्लांटर

देवेन्द्र सुरा

हरियाणा के 'ट्री मैन' के नाम से चर्चित देवेंद्र सुरा (35) हरियाणा पुलिस में कांस्टेबल हैं। एक धावक और दो बच्चों के पिता सुरा अपने राज्य में वन क्षेत्र को हुए नुकसान को देखने के बाद पर्यावरणविद बन गए और अकेले दम पर इसे पलटने का फैसला किया। उनका सफर 2012 में शुरू हुआ, जब उन्होंने सोनीपत में पौधे लगाना शुरू किया। वे कहते हैं, "हम हर साल 40-50 हजार पेड़ लगाते हैं, जिसमें नीलक, बरगद और अंजीर जैसी भारतीय प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।" उनके पिता परिवार का सारा खर्च वहन करते हैं क्योंकि वे अपना वेतन वृक्षारोपण पर ही खर्च कर देते हैं। वे कहते हैं, "मैं पिछले 12 वर्षों से इस पर अपनी सारी कमाई खर्च कर रहा हूं।"

सुरा कहते हैं, "भौतिकवाद बढ़ रहा है। लोग इसके लिए पेड़ काट रहे हैं। नतीजतन, पक्षियों की प्रजातियां अपने पर्यावास को खो रही हैं और कई प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। कोविड-19 की महामारी हमारे द्वारा प्रकृति को संरक्षित नहीं करने का परिणाम थी। हम पृथ्वी के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। इसे बहाल करने की आवश्यकता है।"

सुरा अब तक अपने राज्य में 11,500 युवाओं को अपने साथ जोड़ चुके हैं जो पेड़ लगाते हैं, उन्हें संरक्षित करते हैं और उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करते हैं। इस तरह उन्होंने एक जनांदोलन खड़ा कर दिया है। "हम इन्हें पर्यावरण मित्र कहते हैं।" सुरा को वह समय याद है जब हरियाणा में काफी हरियाली थी। वे कहते हैं, "हमारा वन आवरण 90 प्रतिशत नष्ट हो गया है और जल स्तर नीचे जा रहा है। मैं चाहता हूं कि लोग भौतिकवाद की कीमत के बारे में जागरूक हों।"

सुरा ने सोनीपत-गोहाना राजमार्ग के किनारे एक "जनता नर्सरी" खोली है, जहां विभिन्न प्रजातियों के लगभग 25,000 पौधे हर साल मुफ्त वितरण के लिए तैयार किए जाते हैं।

मयंक जैन परीचा

----------

जन्नत पर दावा

डॉ. शेख गुलाम रसूल, वादियों का योद्धा

डॉ. शेख गुलाम रसूल

बर्फ से ढंकी हिमालय की चोटियों की पृष्ठभूमि में दूर तक पसरी हुई एक लहरदार हरी घाटी दिखती है। यहां नीले आकाश के नीचे भेड़ें चरती हैं। कपास जैसे बादल के टुकड़े मंद गति से सिर के ऊपर विचरते हैं। उसके पार एक कोने में एक पहाड़ी सोता बहता है। कुछ दूरी पर टोसामैदान में चढ़ाई करते तमाम पर्यटक, जिनमें कुछ विदेशी भी हैं, कतार लगाकर खड़े दिखते हैं जो इन वादियों के चित्रोपमय सौंदर्य में डूब-उतरा रहे हैं।

महज एक दशक पहले कश्मीर घाटी में पीर पंजाल पर्वत शृंखला के बीच बसा टोसामैदान एक जिंदा नरक हुआ करता था। बादशाह जहांगीर ने जिसे कभी "धरती पर जन्नत" का नाम दिया था वहां हत्याएं होती थीं। तब सेना और बीएसएफ सहित सुरक्षा बलों द्वारा लाइव फायरिंग रेंज के रूप में उपयोग किया जाने वाला 11,200 हेक्टेयर में फैला टोसामैदान एक युद्धक्षेत्र जैसा दिखता था। हर साल अप्रैल से नवंबर तक सेना पीर पंजाल पर्वत शृंखला के ऊपर बडगाम के विभिन्न गांवों से तोप के गोले टोसामैदान की ओर दागती थी। कभी-कभी जिंदा गोला-बारूद फायरिंग ज़ोन के बाहर गिर जाता था, जिससे लोगों की जान चली जाती थी। सरकार का कहना है कि अलग-अलग घटनाओं में टोसामैदान में कम से कम 65 लोगों की अब तक मौत हो चुकी है, हालांकि निवासियों का कहना है कि मृतकों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है क्योंकि पीड़ितों के परिजन अक्सर एफआइआर दर्ज कराने से बचते थे।

2014 में उमर अब्दुल्ला की सरकार ने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों के जवाब में टोसामैदान को फायरिंग रेंज के रूप में उपयोग करने के लिए सेना का पट्टा बढ़ाने से इनकार कर दिया। इस फैसले से लोगों को राहत मिली, गोलाबारी के कारण होने वाली हत्याओं पर रोक लगी और क्षेत्र में पर्यटन आया। इस बदलाव का सारा श्रेय टोसामैदान बचाओ फ्रंट को जाता है, जो सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों से उभरा एक संगठन है जिसने लाइव फायर प्रशिक्षण के लिए घास के मैदान को बंद करने के लिए जनता और संस्थागत समर्थन को जुटाने का काम किया। भारतीय सेना और अन्य बल 1960 के दशक से ही घास के इस मैदान का फायरिंग रेंज के रूप में उपयोग कर रहे थे।

फ्रंट के संस्थापक डॉ. शेख गुलाम रसूल ने गोलाबारी की भयावहता को तब देखा जब वह 2005 में क्षेत्र में एक डॉक्टर के रूप में तैनात थे। वे बताते हैं, "मैंने एक गांव का दौरा किया और पाया कि विस्फोट से कई लोग मारे गए थे। लोग रोजाना के अपने काम के दौरान गोला बारूद पर चलते थे। ये गोले फटते तो लोगों की जान चली जाती या जीवन भर के लिए वे अपंग हो जाते थे।" जैसे-जैसे हताहतों की संख्या बढ़ती गई, रसूल ने फायरिंग रेंज के खिलाफ क्षेत्र के लोगों को जुटाना शुरू कर दिया। उन्हें शेख गुलाम मोहिदीन का समर्थन मिला, जो बाद में सिथरन गांव के सरपंच बने। पैंतालिस वर्षीय रसूल कहते हैं, "लोग पहले अनिच्छुक थे। प्रतिशोध के डर से वे इस बारे में बात करने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन हमने उन्हें आश्वस्त किया कि विरोध करना हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है क्योंकि बड़ी संख्या में गांव प्रभावित हुए थे।" ग्रामीण आंदोलन में शामिल हो गए और धीरे-धीरे राजनीतिक दलों ने भी लोगों का समर्थन करना शुरू कर दिया।

क्षेत्र को विस्फोटकों से मुक्त करने के बाद सरकार ने घास के मैदान को पर्यटन स्थल के रूप में बढ़ावा देना शुरू कर दिया। मई, 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने टोसामैदान में समुदाय संचालित पर्यटन को मंजूरी दी। रसूल कहते हैं, "हमने वनीकरण कार्यक्रम के तहत एक बड़े क्षेत्र को कवर किया है और बड़ी संख्या में पर्यटक टोसामैदान आ रहे हैं। मेरी एकमात्र चिंता यह है कि टोसामैदान को एक और गुलमर्ग नहीं बनना चाहिए। यह एक विशाल घास का मैदान बना रहना चाहिए, होटलों से रहित और समुदाय संचालित पर्यटन के लिए एक गंतव्य।"

नसीर गनाई

Advertisement
Advertisement
Advertisement