शिमला में पहला देवदार किसने लगाया, इसका ठीक-ठीक किसी को पता नहीं, लेकिन इन्हीं देवदारों से इस खूबसूरत हिल स्टेशन की अलग पहचान बनी हुई है। पिछले बरसों में अवैध कटाई, अंधाधुंध निर्माण और जंगल खत्म होने के कारण इन देवदारों के वजूद पर संकट मंडरा रहा है। इसके अलावा, इन पेड़ों की बढ़ती उम्र भी चिंता का विषय है। देवदारों का यहां से गायब होते जाना पर्यावरण के संकट का संकेत है। सोचिए, कि हरे-भरे देवदारों के बगैर शिमला कैसी
कैसी दिखेगी? वह भयावह दृश्य होगा जो दिल तोड़ देगा। कुछ लोग तो मानते हैं कि देवदार नहीं रहे, तो शिमला भी नहीं बचेगा।
गोरखा युद्ध के दौरान 1819 में पहली बार लेफ्टिनेंट रोज ने इन देवदारों को खोजा था और बड़े पैमाने पर इन्हें यहां लगवाया था। खासकर शिमला और उसके आसपास अंग्रेजी राज में मौसम और जमीन की अनुकूलता के मद्देनजर खूब देवदार लगवाए गए। रणनीतिक रूप से शिमला की अवस्थिति और अनुकूल जलवायु ही वह कारण था कि 1864 में अंग्रेजों ने इसे ब्रिटिश भारत की गर्मियों की राजधानी बना दिया। यहां का ठंडा और सुहाना मौसम अंग्रेज अधिकारियों और उनके परिवारों के लिए राहत का सबब बना, जो मैदानों की तपती गर्मी को नहीं झेल पाते थे।
इस तरह लेफ्टिनेंट रोज के इकलौते लकड़ी के कॉटेज से शिमला अंग्रेजों का एक अहम हिल स्टेशन बनकर उभरा। अंग्रेजों ने शिमला की पर्यावरणीय विरासत को समझा और उसे संजोने की भरसक कोशिश भी की।
एडवर्ड जे. बक की किताब शिमला: पास्ट ऐंड प्रेजेंट (1904) में देवदारों को शिमला का अभिन्न अंग बताया गया है। वे लिखते हैं, “शिमला अनिवार्यत: देवदारों की पहाड़ी है जिसके खूबसूरत पेड़ों का वर्णन किपलिंग (रुडयार्ड) और उनसे पहले के कई लेखकों ने किया है।” किपलिंग ने अपने 1889 में छपे कहानी संग्रह अंडर द देवदार्स में इसके बारे में लिखा था।
शिमला के देवदार
शिमला में कुछ देवदार तो ऐसे हैं जिनकी उम्र एक सदी से ज्यादा लंबी है। आज निजी और व्यावसायिक भवन निर्माण के लिए इन्हें काटा जा रहा है। शिमला स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट यहां के कुछ निवासियों के मुताबिक तबाही का सबब बनकर आया है जिसके तहत सैकड़ों टन सीमेंट और स्टील यहां लाया गया है। इससे भारी ढांचे बनाए जाने हैं, फ्लाइवे निर्माण होना है, लकड़ी की रेलिंग को नक्काशीदार स्टील से बदला जाना है, नए फुटब्रिज और सीमेंट के पैदल रास्ते बनाए जाने हैं। इन सब के लिए हरे-भरे देवदारों को काट दिया गया है।
शहर के कुछ लोग इस तबाही से बहुत नाराज हैं। मुख्य वन संरक्षक के पद से अवकाश प्राप्त पर्यावरणविद वीपी मोहन पूछते हैं, “मैं कहां टहलने जाऊंगा, कैसे सांस लूंगा? कुछ साल बाद मैं अपनी पोती को ये देवदार दिखा पाऊंगा? मेरी उम्र 86 साल की है और रोजाना मैं दस हजार कदम पैदल चलता हूं। शहर में जिस कदर लूट मची हुई है मेरे पास बोलने के सिवा कोई चारा नहीं है। जितना तेज हो सकता है बोलूंगा। हरित पट्टी में मैं एक भी देवदार नहीं कटने दूंगा।”
मोहन को शिमला में 17 हरित पट्टियों को निर्माणरोधी क्षेत्र के रूप में अधिसूचित करवाने का श्रेय जाता है। उन्होंने जाखू पहाड़ी के नीचे राजभवन के साथ लगने वाले समूचे जंगल के किनारे-किनारे इंटरलॉकिंग वाली बाड़ लगवाई है।
मोहन के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में मंजूर की गई शिमला विकास योजना वास्तव में शिमला विनाश योजना है। उनके मुताबिक हरित पट्टी में निर्माण कार्य का आदेश लेने के लिए माननीय कोर्ट के समक्ष तमाम गलत तथ्य पेश किए गए और राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के एक सुविचारित आदेश को दरकिनार कर दिया गया। उसके बाद तो पलक झपकते ही शिमला नगर निगम ने भवन निर्माण को मंजूरी देनी शुरू कर दी। वे कहते हैं कि कुछ लोगों के प्रच्छन्न हितों के चलते शिमला और उसके देवदारों की हत्या की जा रही है।
अकेले कमान संभालते हुए उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और कहा, “मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से संपर्क किया है और किसी भी कीमत पर शिमला के देवदारों को बचाने के लिए उनसे एक विशेषज्ञ कार्यबल बनाने को कहा है।” वे कहते हैं कि ‘पहाड़ों की रानी’ को झुग्गियों में तब्दील होने से बचाने के लिए ‘हरित भ्रष्टाचार’ पर लगाम लगानी होगी।
हिमाचल प्रदेश हाइकोर्ट ने 2018 में शिमला के नगर निगम क्षेत्र में आने वाले जंगलों को बचाने की मंशा से प्रत्येक पेड़ की पहचान का आदेश दिया था। इसके लिए देवदारों पर रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआइ) टैग लगाया जाना था। मार्च 2018 तक वन विभाग ने शिमला के जंगलों में कुल चार लाख पेड़ों में से 2,81,780 पेड़ों की पहचान कर ली थी, लेकिन उसके आगे काम नहीं बढ़ा और विभाग ठंडा पड़ गया।
पिछले मानसून में भूस्खलन ने जो तबाही मचाई, उसने शिमला के वजूद पर सवाल खड़ा कर दिया। अंधाधुंध भवन निर्माण और उसके अवैज्ञानिक तरीकों के चलते ताश के पत्तों की तरह बहुमंजिला इमारतें ढह गईं। भुस्खलन के कारण भारी संख्या में जिंदा देवदार उखड़ गए। जो नहीं उखड़े, वे कभी भी गिरने के कगार पर हैं लेकिन अभी तक नए देवदारों के रोपण पर कोई काम नहीं हुआ है।
ढलान और ढीली जमीन पर निर्माण करवाने वाले यहां के लोगों ने इससे सबक नहीं लिया, बल्कि उलटे अपने भवनों को बचाने के लिए खड़े पेड़ों को गिरवा दिया। अधिकारियों के मुताबिक 2023 के मानसून के बाद लोगों के अनुरोध पर ऐसे 400 पेड़ों को गिराया गया है। कुल मिलाकर पिछले साल की तबाही में 1000 से ज्यादा देवदार और अन्य पेड़ खत्म हो गए।
शिमला के इतिहासकार राजा भसीन मानते हैं कि शिमला और उसके देवदारों की जड़ें ऐतिहासिक हैं और देवदार यहां की विरासत के लिए सांस्कृतिक और पर्यावरणीय रूप से अहम हैं।
जानकारों का कहना है कि देवदार अपनी ज्यादा उम्र के चलते भी गिर रहे हैं। जो पेड़ ऊपर से सपाट हो जाते हैं उनकी उम्र खत्म मानी जाती है। तो, क्या सरकार और अदालतें इन पर गौर करेंगी।
मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से संपर्क किया है और शिमला के देवदारों को बचाने के लिए उनसे एक विशेषज्ञ कार्यबल बनाने को कहा है”
वी.पी. मोहन, पर्यावरणविद