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विमर्श/हम और हमारी परंपरा

हमें अतीत की परंपराओं का आलोचनात्मक विश्लेषण करके सकारात्मक तत्वों को ग्रहण करना पड़ेगा
कुलदीप कुमार

किसी भी समाज, धर्म या देश में केवल एक परंपरा नहीं होती। मनुष्य स्वभाव से ही बहुलतावादी है। अलग-अलग किस्म के लोग अलग-अलग तरह की परंपराओं का निर्माण करते हैं। इसी के साथ यह भी सच है कि सभी समुदायों में एक या दो परंपराओं का वर्चस्व होता है और अन्य परंपराएं गौण रहती हैं। लेकिन उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता, न ही यह कहा जा सकता कि जो परंपरा आज गौण है वह हमेशा ही गौण थी और जो आज वर्चस्वशालिनी है, वह हमेशा से ही ऐसी थी। परंपराएं हमारे अतीत का अविच्छिन्न अंग हैं। चाहे हम अपने इतिहास का कितना ही पुनर्लेखन कर लें, हम अपने अतीत को न तो नकार सकते हैं और न उसे झुठलाकर बदल सकते हैं। बीते हुए समय के लिए ‘भूत’ शब्द का प्रयोग होता है और हमारा अतीत हमारे ऊपर भूत की तरह ही सवार रहता है। हम अतीत को बदल नहीं सकते लेकिन उसके आलोक में अपने वर्तमान और भविष्य को बेहतर जरूर बना सकते हैं। इसके लिए हमें अपने अतीत और उसके द्वारा प्रदत्त परंपराओं का आलोचनात्मक विश्लेषण करके सकारात्मक तत्वों को ग्रहण करना और नकारात्मक एवं प्रगति-विरोधी तत्वों को त्यागना पड़ेगा। यानी, ‘सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय।’

पिछले कुछ दशकों के दौरान विश्व भर में स्त्री-विमर्श विकसित हुआ है और इसके अनेक रूप सामने आए हैं। स्त्री का स्वत्व, आत्मनिर्भरता, स्वतंत्रता और सशक्तीकरण इस विमर्श के केंद्रीय तत्व हैं। क्या हमारे अतीत और उसकी परंपराओं से इस स्त्री-विमर्श को कुछ ग्रहण करने योग्य सामग्री मिल सकती है? क्या हमारी परंपरा में ऐसी स्त्रियां हैं, जिनसे आज के संदर्भ में कोई प्रेरणा मिलती हो? यदि हैं, तो क्या उनके साथ परंपरा ने सम्यक व्यवहार किया है? क्या उन्हें कभी वर्चस्व वाले महाख्यान के केंद्र में प्रतिष्ठित किया गया या उसमें उनकी जगह सिर्फ हाशिए पर ही रही?

हालांकि ‘शतपथ ब्राह्मण’ और ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ में भी शकुंतला का उल्लेख मिलता है, लेकिन हम जिस कथा से परिचित हैं वह ‘महाभारत’ के आदिपर्व में ‘शाकुंतलोपाख्यान’ के रूप में पाई जाती है। एक हिरन का पीछा करते-करते हस्तिनापुर का राजा दुष्यंत ऋषि कण्व के आश्रम में पहुंच जाता है और वहां ऋषि की पालिता पुत्री शकुंतला को देखकर मुग्ध हो जाता है। वह उस पर अपना प्रेम प्रकट करता है और विवाह का प्रस्ताव करता है। ऋषि कण्व उस समय आश्रम में उपस्थित नहीं हैं लेकिन शकुंतला निर्णय लेने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं करती। वह प्रस्ताव स्वीकार करती है और दोनों के बीच गंधर्व विवाह हो जाता है। शकुंतला की शर्त है कि उसके द्वारा उत्पन्न पुत्र ही दुष्यंत का उत्तराधिकारी होगा।

हमारे समाज में आज भी सर्वत्र यह स्थिति नहीं है कि लड़की अपनी पसंद का जीवनसाथी चुन सके। तथाकथित ‘ऑनर किलिंग’ की घटनाएं लगातार सामने आती रहती हैं क्योंकि लड़का-लड़की मां-बाप की इच्छा के विरुद्ध शादी करते हैं। लेकिन शकुंतला इस मामले में स्वत्वशालिनी है। वह कण्व की प्रतीक्षा नहीं करती और आत्मविश्वास के साथ दुष्यंत के सामने शर्त भी रख देती है।

जब वह अपने पुत्र सर्वदमन को लेकर दुष्यंत के पास जाती है और वह उसे पहचानने से इनकार कर देता है, तब वह बेहद हिम्मत और स्पष्टवादिता के साथ उसका सामना करती है, उससे बहस करती है और उसे झूठा और मक्कार कहने की साथ-साथ यह चेतावनी भी देती है कि यदि उसने सच्चाई को स्वीकार नहीं किया तो उसके मस्तक के हजारों टुकड़े हो जाएंगे। यही नहीं, वह यह भी घोषणा करती है कि यदि दुष्यंत उसे और पुत्र को स्वीकार नहीं करता, तो वह उसे खुद ही पाल-पोसकर बड़ा करेगी और ऐसा वीर बनाएगी जो पूरी पृथ्वी को जीत कर प्रजाओं का पालन करेगा। अंत में दुष्यंत उसकी बात मानने पर विवश हो जाता है। यानी, शकुंतला न केवल अपने स्वतंत्र अस्तित्व, अस्मिता, आत्मविश्वास और स्वाभिमान का प्रदर्शन करती है, बल्कि लड़कर अपना अधिकार हासिल करने में भी सफल होती है। अपने पुत्र का लालन-पालन वह पति के बिना भी करने के लिए कृतसंकल्प है। लेकिन कालिदास तक आते-आते ‘महाभारत’ की शकुंतला की यह तीक्ष्ण धार काफी कुंद हो चुकी होती है। ‘महाभारत’ में द्रौपदी जब कौरव राजसभा में भीष्म और विदुर सरीखे धर्मज्ञों से सवाल करती है, तब उसकी तेजस्विता देखने योग्य है।

इसी तरह वाल्मीकि की सीता भी पति के पीछे-पीछे चलने वाली भार्या नहीं है। जब वह राम के साथ वनवास में जाने का आग्रह करती है तब स्पष्ट शब्दों में कहती है कि वह वन में उनके आगे-आगे कांटों को रौंदती हुई चलेगी। जब रावण वध के बाद सबके सामने राम उसके चरित्र पर शंका प्रकट करते हैं, तब वह शेरनी की तरह उनके साथ बहस करती है और पूछती है कि आज इस तरह का बर्ताव करके वह अपने को इतना छोटा क्यों बना रहे हैं? वह अशोक वाटिका में बंदी जीवन बिताने के दौरान रावण के साथ भी बहस करके उसे निरुत्तर कर देती है।

कमल कीचड़ में ही खिलता है। लेकिन वह कीचड़ से हमेशा ऊपर रहता है, उससे सना हुआ नहीं होता। हमारी परंपराएं भी पितृसत्तात्मक समाज में ही विकसित हुई हैं। लेकिन उनमें इस पितृसत्ता का विरोध करने के रुझान भी मौजूद रहे हैं। जरूरत इन सकारात्मक तत्वों को पहचान कर उनका आज के विशिष्ट संदर्भों में इस्तेमाल करने की है। शकुंतला, द्रौपदी और सीता जैसे अनेक चरित्र हैं, जो आज की स्त्री को प्रेरणा दे सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)

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