भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस, न खाऊंगा, न खाने दूंगा... ये नारे इतनी बार दोहराए गए हैं कि बरबस याद आ जाते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आखिर इन नारों पर कितनी गंभीर है? इसकी एक मिसाल तो खासकर ऊंचे पदों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाइयों के लिए लंबे संघर्ष और जद्दोजहद के बाद बने लोकपाल की दशा या कहें दुर्दशा है। लोकपाल कानून बनने के पांच साल के टालमटोल के बाद देश के पहले लोकपाल करीब सात महीने पहले नियुक्त तो किए
गए मगर अभी तक सिर्फ राजधानी दिल्ली के पांचसितारा होटल की दूसरी मंजिल पर एक कमरे के आगे तख्ती भर टंगी है। अभी तक लोकपाल का न तो कोई स्थायी कार्यालय है, न पूरा स्टाफ मिल सका है। शिकायतकर्ताओं को जिस फॉर्म में शिकायत लिखकर लोकपाल के पास देनी है, उसका फॉर्मेट भी अभी तक अधिसूचित नहीं हुआ है।
तो, यह लोकपाल क्या महज खानापूर्ति है? और वह भी सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देश के बाद? नाराज कोर्ट ने इसी साल जनवरी में केंद्र से फरवरी 2019 तक लोकपाल के लिए उम्मीदवारों के नाम तय करने को कहा था। तब जाकर 23 मार्च 2019 को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष पहले लोकपाल बनाए गए। जस्टिस घोष ने इसके चार दिन बाद, 27 मार्च को आठ सदस्यों को शपथ दिलाई। उस समय इन सबके लिए दिल्ली के होटल अशोक में बैठने की व्यवस्था की गई थी। लोकपाल कार्यालय के सूत्रों ने बताया कि नए ऑफिस के लिए दो-तीन जगहें देखी जा रही हैं। जल्दी ही किसी एक का चुनाव कर लिया जाएगा।
लोकपाल के पास शिकायतकर्ता को निर्धारित फॉर्म में शिकायत दर्ज करानी पड़ेगी। लोकपाल कार्यालय ने करीब चार महीने पहले इस फॉर्म का फॉर्मेट तैयार करके सरकार को भेजा था, लेकिन अभी तक इसे अधिसूचित नहीं किया गया है। लोकपाल की वेबसाइट पर डाउनलोड सेक्शन में सिर्फ इतना लिखा आता है कि “केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित फॉर्म में शिकायत दर्ज कराई जा सकती है।” इस बारे में पूछने पर सूत्र ने कहा कि लोकपाल को भेजी जाने वाली शिकायतों का दायरा काफी बड़ा होगा, इसलिए फॉर्मेट को अंतिम रूप देने में समय लग रहा है। अभी इस पर विस्तृत चर्चा चल रही है। इस बारे में सरकार की तरफ से अधिसूचनाएं जारी करने वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के सचिव को भेजे गए ईमेल का दो हफ्ते बाद भी कोई जवाब नहीं मिला।
सरकार की उदासीनता कर्मचारियों की नियुक्ति में भी झलकती है। लोकपाल कार्यालय के लिए करीब 100 कर्मचारियों की मंजूरी मिली है, लेकिन अभी तक इनके चयन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है। इस बारे में सूत्रों ने कहा कि हो सकता है सरकार की प्राथमिकता में दूसरे ज्यादा जरूरी काम हों। पहले आम चुनाव हुए, फिर कश्मीर का मुद्दा आ गया। हो सकता है इन वजहों से देरी हो रही हो।
सरकार की इस उदासीनता पर लोकपाल आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़े रहे जाने-माने वकील प्रशांत भूषण ने आउटलुक से कहा, “सरकार जान-बूझकर देरी कर रही है। वह तो कभी लोकपाल बनाना ही नहीं चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद उसने लोकपाल नियुक्त तो किया, लेकिन अब नहीं चाहती कि वह कोई काम करे।” उनका आरोप है कि सरकार ने लोकपाल की नियुक्ति में भी पारदर्शिता नहीं बरती। गौरतलब है कि लोकपाल की नियुक्ति में देरी होने पर ‘कॉमन कॉज’ नाम के गैर-सरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, तब प्रशांत भूषण ने ही इसकी तरफ से पैरवी की थी।
लोकपाल को प्रधानमंत्री, मंत्रियों, सांसदों, केंद्र सरकार के अधिकारियों, सरकारी या सरकार से मदद पाने वाले संगठनों के वरिष्ठ अधिकारियों और 10 लाख रुपये से ज्यादा विदेशी मदद पाने वाली सोसायटी/संगठनों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच का अधिकार है। लेकिन रोचक बात यह है कि 30 सितंबर तक जो 1,065 शिकायतें आईं, उनमें भ्रष्टाचार की कम, पेंशन और सेवा में खामी से जुड़ी शिकायतें ही ज्यादा हैं। भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में शिकायतकर्ताओं से कहा जा रहा है कि फॉर्मेट नोटिफाइ होने के बाद उसके हिसाब से दोबारा शिकायत भेजें। फॉर्मेट अधिसूचित नहीं होने के कारण इन मामलों में जांच भी आगे नहीं बढ़ रही है। लोकपाल के पास किसी मामले की सीबीआइ से भी जांच कराने का अधिकार है। यह पूछने पर कि क्या अभी तक कोई मामला सीबीआइ को भेजा गया है, सूत्र ने बताया कि फॉर्मेट तय होने के बाद पहले लोकपाल की टीम जांच करेगी। इसके बाद जरूरत महसूस होने पर ही केस सीबीआइ को भेजा जाएगा।
इस धीमी चाल पर राज्यसभा सांसद और कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने आउटलुक से कहा, “सरकार का रवैया अत्यंत दुखद है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र में अपने पहले कार्यकाल का 90 फीसदी समय लोकपाल की नियुक्ति के बिना बिता दिया। नियुक्ति भी सुप्रीम कोर्ट के बार-बार आदेश देने के बाद हुई, स्वत: नहीं। अब उसको भी जान-बूझकर कार्यान्वित नहीं किया जा रहा है। मकसद बड़ा साफ है कि जितना विलंब किया जा सके, किया जाए।” सिंघवी लोकपाल पर संसद की स्थायी समिति के पूर्व चेयरमैन भी हैं।
लोकपाल एवं लोकायुक्त एक्ट 16 जनवरी 2014 को नोटिफाइ किया गया था। मई 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार आई तो चार साल तक यह कहकर लोकपाल की नियुक्ति टालती रही कि लोकसभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं है। नियम के मुताबिक चयन समति में लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस (या उनके द्वारा नामित जज) और कोई प्रख्यात न्यायविद होंगे। लोकपाल की नियुक्ति में देरी होने पर ‘कॉमन कॉज’ और ‘यूथ फॉर इक्वलिटी’ नाम के एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। सरकार द्वारा नियुक्ति का कोई टाइमटेबल तय नहीं करने पर सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2018 में नाराजगी जताई थी। तब सितंबर 2018 में सरकार ने जस्टिस रंजन प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में आठ सदस्यों वाली सर्च कमेटी बनाई। लेकिन जनवरी 2019 तक चयन नहीं हुआ तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार ने तीन महीने में क्या किया, उसकी जानकारी दे। कोर्ट ने फरवरी 2019 तक लोकपाल के लिए उम्मीदवारों के नाम तय करने का भी निर्देश दिया। तब जाकर मार्च में जस्टिस पिनाकी चंद्र घोष को देश का पहला लोकपाल चुना गया।
वैसे, लोकपाल बनाने की कवायद 1960 के दशक में शुरू हुई थी। पहले प्रशासनिक सुधार आयोग ने 1966 में इसकी सिफारिश की और 1968 में लोकपाल बिल समीक्षा के लिए संसदीय समिति को भेजा गया। समिति ने प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखा। 1969 में संशोधित बिल लोकसभा में पास हो गया, लेकिन राज्यसभा में चर्चा नहीं हो सकी। दो साल बाद 1971 में कुछ बदलावों के बाद बिल फिर लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन सदन का कार्यकाल पूरा होने तक पास नहीं किया जा सका। इसके बाद 2011 तक लोकपाल बिल को छह बार संसद में पेश किया गया, पर पास नहीं हो सका। प्रधानमंत्री पद को 1989 में पहली बार इसके दायरे में लाया गया। हाल के वर्षों में लोकपाल के मुद्दे ने 2011 में तब जोर पकड़ा जब सामाजिक कार्यकर्ता अण्णा हजारे 5 अप्रैल 2011 को अनशन पर बैठे। भाजपा ने उनका समर्थन किया था। नए लोकपाल बिल का ड्राफ्ट बनाने के लिए मंत्रियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की संयुक्त समिति बनाने पर सहमति हुई। इसकी पहली बैठक 16 अप्रैल 2011 को हुई, लेकिन आगे ड्राफ्ट पर सहमति नहीं बन सकी। जून 2011 में सरकार और अण्णा की टीम अपना-अपना ड्राफ्ट लेकर आई। नया बिल 4 अगस्त 2011 को लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखे जाने के कारण विरोध होने लगा। अण्णा 19 अगस्त 2011 को फिर अनशन पर बैठे। तब भाजपा सांसद वरुण गांधी ने कहा कि वे अण्णा के बिल को प्राइवेट मेंबर बिल के तौर पर लोकसभा में पेश करेंगे। सरकार कुछ मांगें मानने पर राजी हुई, तब 29 अगस्त को अण्णा ने अनशन तोड़ा। दिसंबर 2011 में कैबिनेट ने जिस ड्राफ्ट को मंजूरी दी, उसमें अण्णा की कई प्रमुख मांगों को शामिल नहीं किया गया था। यह बिल 27 दिसंबर 2011 को लोकसभा में पास हो गया। दिसंबर 2013 में राज्यसभा ने इसे पारित किया और आखिरकार 16 जनवरी 2014 को लोकपाल एवं लोकायुक्त एक्ट नोटिफाइ किया गया।