वाकई यह अजीब दौर है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दो सदस्यों को शायद ही अंदाजा होगा कि उनके बोल ईश-निंदा की जंग का अखाड़ा भारत भूमि को भी बना देंगे। हाल के दौर में ऐसे नफरती अभियानों का आगाज कथित ‘धर्म संसदों’ से हुआ था। मकसद शायद इस साल के शुरू में हुए खासकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों में ध्रुवीकरण को अंजाम देने की कोशिश थी। उसी का हिस्सा ‘बुलडोजर’ भी था, जो चुनावी नारों की शक्ल ले चुका था। लेकिन उत्तर प्रदेश के नतीजों ने साबित किया कि सीटें सत्तारूढ़ पार्टी को कुछ ज्यादा जरूर मिलीं मगर विपक्षी गठजोड़ को मिले वोट आगे बड़ी चुनौती बन सकते थे। फर्क बुमिश्कल दो फीसदी का था। ऐसे में नतीजों के बाद ध्रुवीकरण के नए दौर का आगाज कुछ जल्दी शुरू हुआ क्योंकि अगले चुनाव (संसदीय) बस दो साल ही दूर हैं। तो, ज्ञानवापी और ऐसे ही दूसरे विवाद उभर आए, जिसकी आखिरी परिणति उस विवाद में हुई जो दुनिया भर में तहलका मचा गया। आखिकार मुस्लिम देशों के शासकों ने अपनी अवाम की तीखी प्रतिक्रिया देख कुछ तेवर दिखाए तो नफरती बोल वाले प्रवक्ताओं से पल्ला झाड़ना पड़ा। हालांकि ‘बुलडोजर इंसाफ’ फिर भी जारी रहा तो सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा।
यह मौजूदा दौर की अजीब सियासत है, जो घर की आग से प्रभावित नहीं होती, बल्कि दुनिया के तेवर लाल होने से फिक्रमंद हो उठती है। आइए सीधे घटना पर लौटते हैं। ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में बेकार पड़े फव्वारे में “शिवलिंग पाए जाने के दावे” का कथित तौर पर मखौल उड़ाने से सत्तारूढ़ भाजपा के दो सदस्यों राष्ट्रीय प्रवक्ता नुपुर शर्मा और दिल्ली इकाई के नवीन कुमार जिंदल की भावनाएं भड़कीं तो उन्होंने एक टीवी डिबेट और किसी कार्यक्रम में पैगंबर मोहम्मद से जुड़े कथित विवाद को हवा दे दी। हालांकि किसी मुसलमान का ऐसा कोई बयान नहीं देखा गया, बल्कि कुछ सेकूलर लोगों ने ही इस दावे पर सवाल उठाए थे। बहरहाल, विवादी स्वरों के खिलाफ पहले कानपुर में बंद का आह्वान दंगे की शक्ल लेते-लेते बचा। लेकिन अगले जुम्मे की नमाज के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, दिल्ली, हैदराबाद, महाराष्ट्र सहित कई राज्यों में प्रदर्शन हुए। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज, सहारनपुर सहित कुछ और जगहों पर पुलिस और प्रदर्शकारियों के बीच कुछ झड़पें हुईं, लेकिन झाारखंड के रांची में यह झड़प हिंसा में बदल गई, जिसमें दो युवकों की गोली लगने से मौत हो गई और कई जख्मी हो गए। जख्मी में पुलिसवाले भी थे।
नुपुर शर्मा का विरोध करती एक महिला
यह दौर लगभग दस दिनों तक चला। इस बीच सख्त पुलिसिया कार्रवाई शुरू हो गई। खासकर उत्तर प्रदेश और दिल्ली में प्रदर्शनकारियों और उन्हें उकसाने वाले लोगों की तलाश शुरू हुई। उत्तर प्रदेश में बुलडोजर भी फटाफट निकल आए और कथित दोषियों के घर ढहाए जाने लगे। अलबत्ता कहा गया कि निगमों और संबंधित विभागों ने गैर-कानूनी इमारतों को ढहाया गया। हालांकि दो मामले सुर्खियों में ज्यादा उछल गए। एक, सहारनपुर में थाने में किशोरवय लड़कों की पिटाई और दूसरा, प्रयागराज में एक राजनैतिक कार्यकर्ता जावेद अहमद का घर ढहाया जाना। इन दोनों ही मामलों में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद जांच कमेटियां बैठाई गई हैं। सहारनपुर में थाने की पिटाई का वीडियो एक नवनिर्वाचित भाजपा विधायक ने सोशल मीडिया पर डाला तो वहां के एसपी ने इसका खंडन किया कि यह उनके जिले का नहीं है। लेकिन मीडिया रिपोर्टों से जब यह जाहिर हो गया तो जांच बैठानी पड़ी। प्रदेश में 300 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन प्रयागराज में जावेद अहमद को ‘मास्टरमाइंड’ बताकर गिरफ्तारी के बाद आनन-फानन में उनके घर को ढहा देने की कार्रवाई ने शायद उससे परदा उठा दिया, जिसे छुपाया जा रहा था। कथित तौर पर एक दिन पहले न सिर्फ जावेद अहमद के नाम पर गैर-कानूनी इमारत के लिए नोटिस चस्पा की गई, बल्कि अगले दिन उसे जमींदोज कर दिया गया। हालांकि परिवार का दावा है कि मकान जावेद अहमद की पत्नी के नाम था, जिसके वर्षों से संपत्ति कर, बिजली-पानी के बिल और कागजात उनके पास हैं, जिसे अदालत में पेश किया गया है।
जावेद अहमद न सिर्फ स्थानीय राजनीति में सक्रिय रहे हैं, बल्कि उनकी एक बेटी अफरीन फातिमा भी खासकर सीएए विरोधी आंदोलनों में सक्रिय रही हैं। उनकी 19 साल की बेटी सोमैया फातिमा ने मलबे से बचपन में अपने पिता के लिए बनाई एक छोटी-सी पेंटिंग उठाई और एक मीडियाकर्मी से मायूसी से कहा, “अब सब कुछ बस याद बनकर रह गया है। जो हमारे लिए सुरक्षा और सुकून की जगह थी, अब नहीं रही।”
अब झारखंड की कहानी सुनिए। वहां हिंसक वारदात के अगले दिन, सूत्रों के मुताबिक, राज्यपाल सक्रिय हुए और उन्होंने सीधे अधिकारियों को निर्देश दे डाला कि कथित ‘उपद्रवियों’ के पोस्टर इलाके में चस्पां कर दिए जाएं। कहते हैं, ऐसा हुआ भी मगर दो घंटे के भीतर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की सक्रियता से हटा लिए गए। अलबत्ता राज्यपाल शायद यह भूल गए कि निर्वाचित सरकार होने पर कार्यपालिका उसी के अधीन होती है। रांची में गिरफ्तारियां हुई हैं और जांच के लिए एक एसआइटी का गठन कर दिया गया है। दिल्ली में भी ऐसी कार्रवाइयां हुईं।
लेकिन इस विवाद को हवा देने वाले भाजपा नेताओं की न गिरफ्तारी हुई, न कोई कार्रवाई। अलबत्ता, मुस्लिम देशों ने अपनी अवाम की भारी प्रतिक्रिया देखकर तेवर लाल किए तो भाजपा और सरकार फिक्रमंद हो उठी। सऊदी अरब, कतर, कुवैत, ईरान, मलेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान ने कड़ी प्रतिक्रया दी। कतर, कुवैत और ईरान ने भारत के राजदूतों को बुलाकार बाकायदा विरोध जाहिर किया। 57 देशों के संगठन ओआइसी (तेल उत्पादक देश) ने भी इसकी निंदा की। यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गोतारेस के एक प्रवक्ता ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय संगठन सभी धर्मों के सम्मान और समभाव को दृढ़ता से प्रोत्साहित करता है। इन प्रतिक्रियाओं के बाद नूपुर शर्मा को पार्टी से निलंबित कर दिया गया और नवीन कुमार जिंदल को छह साल के लिए निष्कासित किया गया। पार्टी और सरकार की तरफ से बयान दिया गया कि सभी धर्मों के प्रति ‘समभाव’ का रवैया है और सब का आदर किया जाता है।
दूसरे देशों के आपत्ति दर्ज कराने के बाद ही भाजपा ने नुपुर शर्मा को निलंबित किया
इसकी वजहें भी हैं। आखिर भारत अपनी 70 प्रतिशत से ज्यादा खपत के लिए तेल अरब देशों से ही हासिल करता है और उन देशों में एक करोड़ से ज्यादा लोग काम करते हैं, जिनके पैसे बराबर देश में अपने परिवारों के यहां आते हैं। यह भी हमारी जीडीपी में अच्छा-खासा योगदान करता है। फिर भारतीय उत्पादों के निर्यात का अच्छा-खासा हिस्सा उन्हीं देशों में होता है। कई अरब देशों में भारतीय सामान के बॉयकाट और भारतीय कामगारों से काम लेने का जनता में अभियान भी छिड़ गया। फिर, हाल के दौर में मोदी सरकार ने इन देशों से व्यापारिक रिश्ते भी मजबूत करने की पहल की है। ऐसे में, वह उन्हें नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती।
लेकिन सरकार और भाजपा ने भले पल्ला झाड़ लिया हो, मगर नुपुुर शर्मा और जिंदल के पक्ष में भाजपा और संघ परिवार से पुरजोर आवाजें उठीं और सोशल मीडिया पर ट्रेंड होने लगीं। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की इस प्रकरण पर चुप्पी भी इसी से समझ में आती है।
हालांकि जहां तक विवाद में बाल विवाह का मामला है तो भारत या दुनिया का कोई भी देश इस मामले में खुद को पाक-साफ शायद ही बता सकता है। भारत में आज भी बाल विवाह होते हैं। अमेरिका में उन्नीसवीं सदी के आखिर तक लड़कियों के विवाह की कानूनी उम्र दस साल थी। यूरोप के मध्ययुग में तो लड़कियों की शादी पांच साल की उम्र में कर दी जाती थी और कई बार अधेड़ उम्र के पुरुषों से। अरब में भी यह रिवाज रहा है। फिर, यह मामला तो तकरीबन 1400 साल पहले का है। और जिस अल बुखारी हदीस का हवाला दिया जाता है, वह पैगंबर के दो सौ साल बाद अजरबैजान के बुखारा शहर में सुनी-सुनाई बातों और किस्सों का संकलन है, और दूसरे हदीसों में इसके अलग वृतांत बताए जाते हैं। एक किस्सा यह भी है कि बीवी आयशा शादी के पहले पैगंबर की अनुयायी थीं।
जहां तक भारत में इस विवाद की बात है तो इसकी शुरुआत 1924 में लाहौर में आर्य समाज के महाशे राजपाल की पुस्तिका रंगीला रसूल से शुरू होती है। शायद आज के विवादी बोल वालों को यह पता भी न हो। 1929 में राजपाल की हत्या हो गई और लाहौर में दंगे जैसे हालात बन गए तो अंग्रेज सरकार ने नया कानून बनाया जो किसी धर्म की मान्यता की तौहीन करने और नफरत भड़काने पर रोक लगाता है। आजाद भारत में यह कानून ज्यों का त्यों रखा गया।
लेकिन इस कानून के तहत विवादी बोल वालों के खिलाफ सरकारी कार्रवाई का अभी तक कोई सबूत नहीं मिला है। जो भी हो, ऐसे विवाद हमारे समाज और देश के लिए यकीनन भले तो नहीं कहे जा सकते।
(साथ में रांची से नवीन कुमार मिश्र)