दिल्ली की गद्दी के लिए सबसे अहम, अस्सी लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में इस बार भी 'मां गंगा' का या कोई और चमत्कार दिखेगा या जमीनी समीकरणों, असली मुद्दों को शह मिलेगी? यही सवाल आज सबकी जेहन में है। फिलहाल, कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी 18 मार्च से तीन दिन की प्रयागराज से बनारस तक गंगा की बोट यात्रा पर क्या निकलीं, राज्य में राजनीतिक तपिश बढ़ गई। सपा-बसपा ने कांग्रेस पर कन्फ्यूजन फैलाने का आरोप लगाया और ताबड़तोड़ साझा रैलियों का आगाज कर दिया। 'मां गंगा' के चमत्कार का खुद को असली हकदार मानने वाली भाजपा के तेवर तो ज्यादा ही तल्ख हो गए।
हों भी क्यों नहीं। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की नैया पार लगाने वाली मोदी लहर का इस बार वैसा असर नहीं दिखता। वह केंद्र और राज्य सरकार की एंटी-इंकंबेंसी से पार पाने के लिए राष्ट्रवाद के कथित एजेंडे पर भरोसा करती दिख रही है। लेकिन, केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार की नाकामी से निराशा भी मतदाताओं के चेहरे पर साफ नजर आती है। पुलवामा में आतंकी हमला, पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक, राफेल सौदे, बेरोजगारी और किसानों की समस्या चुनावी चकल्लस के केंद्र में हैं। कुछ इलाकों में मतदाता स्थानीय मुद्दों को भी तरजीह दे रहे हैं।
इसीलिए हर पार्टी उम्मीदवारों के चयन में क्षेत्रीय और जाति समीकरणों को ज्यादा तरजीह दे रही है। सपा, बसपा और कांग्रेस ने कई सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है। भाजपा करीब दो से ढाई दर्जन सांसदों के टिकट काटने या सीट बदलने के बारे में मोलतोल करती दिख रही है। टिकट वितरण में सभी दल सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अपना रहे हैं। महाराजगंज के आनंदनगर निवासी बृजेश शर्मा विश्वकर्मा का कहना है कि यहां से लोगों ने छह बार भाजपा को जिताकर संसद में भेजा, लेकिन मिला कुछ नहीं। केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा सरकार होने के बावजूद स्थिति नहीं सुधरी है। रेल लाइन से जोड़ने, गन्ना किसानों के बकाया भुगतान, बंद पड़ी चीनी मिल शुरू करने के वादे पूरे नहीं हुए।
मुजफ्फरनगर के खतौली निवासी नरेश शर्मा कहते हैं कि यहां सबसे बड़ा मुद्दा किसानों का है। बाराबंकी के सिविल लाइन निवासी वर्धमान जैन कहते हैं कि यहां स्थानीय मुद्दे के बजाय राष्ट्रीय मुद्दे ज्यादा हावी हैं। किसान सम्मान निधि के रूप में खाते में दो-दो हजार रुपये मिलने से कहीं-कहीं नाराजगी कुछ घटती दिख रही है। लेकिन, बुढ़वल चीनी मिल शुरू न होने से लोग नाराज हैं। बांदा निवासी मनोज सिंह ने बताया कि बुंदेलखंड क्षेत्र में रोजगार की स्थिति जस की तस है। विकास कार्य कुछ शुरू तो हुए हैं, लेकिन पूरे नहीं हुए हैं। एयर स्ट्राइक के बाद लोगों में सरकार के प्रति सोच में थोड़ा बदलाव जरूर आया है।
पिछले पांच साल में यूपी में भाजपा ने कई चुनावों में बढ़त बनाई है, तो उसे मुंह की भी खानी पड़ी है। फिलहाल, सपा-बसपा गठबंधन से उसे बड़ी चुनौती मिलती दिख रही। 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा को 15 फीसदी वोट और 47 सीटें मिली थी। 2017 में उसे 39.7 फीसदी वोट और 312 सीटें मिलीं। सपा 2012 में 29.1 फीसदी वोट के साथ 224 सीटें जीतकर सत्ता में आई थी, जबकि 2017 में 21.8 फीसदी वोट पाकर 47 सीटों पर सिमट गई। सपा-बसपा के वोट शेयर मिला दें तो 2012 के विधानसभा चुनाव में इन्हें करीब 50 फीसदी वोट मिले। भाजपा की लहर के बावजूद 2017 के चुनाव के वोट शेयर मिलाने पर यह आंकड़ा करीब 44 फीसदी बैठता है।
पिछले लोकसभा चुनाव में भले बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई, लेकिन वह 19.6 फीसदी वोट और 34 सीटों पर दूसरे स्थान पर रहने में कामयाब रही थी। सपा ने पांच सीटें जीती थी और 31 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी। उसे 22.2 फीसदी वोट मिले थे। बाद में गोरखपुर, फूलपुर लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में बाजी सपा के हाथ लगी। सपा के समर्थन से कैराना सीट पर उपचुनाव में रालोद जीती। पिछले लोकसभा में भाजपा और सहयोगी दलों ने 80 में से 73 सीटें जीती थीं। भाजपा को 42.3 फीसदी वोट मिले थे। पिछले लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा को मिले वोट जोड़ दें तो 41.8 फीसदी होता है।
स्पष्ट है कि सपा-बसपा के साथ आने से भाजपा की राह पिछले चुनाव की तरह आसान नहीं होगी। यही कारण है कि आचार संहिता लागू होने से चंद घंटे पहले उसने सरकारी पद बांटकर पार्टी के नाराज पदाधिकारियों के साथ-साथ सहयोगी पार्टियों अपना दल (एस) और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) को साधने की कोशिश की। वैसे खींचतान विपक्ष में कम नहीं है। सपा मुखिया अखिलेश यादव गठबंधन में कांग्रेस के होने पर जोर देते रहे हैं। लेकिन, भीम आर्मी के चंद्रशेखर से प्रियंका गांधी की मुलाकात के बाद से कांग्रेस को लेकर बसपा के तेवर और तल्ख हो गए हैं। बसपा नेता और विधायक उमाशंकर सिंह का कहना है कि कांग्रेस का राज्य में कोई अस्तित्व नहीं है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर का कहना है कि गठबंधन में कांग्रेस के शामिल होने को लेकर सपा प्रमुख अपनी बात साबित करने में नाकाम रहे हैं। शायद इसी के चलते जैसे सपा-बसपा गठबंधन ने कांग्रेस के लिए दो सीटें छोड़ी थीं, वैसे ही कांग्रेस ने भी उनके लिए सात सीटें छोड़ दी हैं।
पुलवामा हमले के बाद भाजपा राष्ट्रवाद के मुद्दे को चुनाव में उभारने में जुटी है। राज्य के मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने बताया कि देशभक्ति को राष्ट्रवाद से अलग नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं, “मुंबई में 26/11 के हमले के बाद तत्कालीन कांग्रेस की सरकार ने सेना को कार्रवाई की अनुमति नहीं दी थी।” दूसरी ओर, सपा नेता और नेता प्रतिपक्ष राम गोविंद चौधरी ने भाजपा पर सेना को बदनाम करने का आरोप लगाया है।
जमीनी हकीकत
मेरठ में गठबंधन से बसपा के पूर्व मंत्री हाजी याकूब कुरैशी मैदान में हैं। स्थानीय मुद्दों के साथ यहां राष्ट्रीय मुद्दों की भी चर्चा है। लेकिन, सपा का एकमुश्त वोट बसपा को ट्रांसफर होना मुश्किल दिखता है। भाजपा के स्थानीय सांसद से भी लोग नाराज हैं। वाराणसी से 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीत हासिल की थी। यह सीट गठबंधन में सपा के पास है। वाराणसी की गौतमनगर कालोनी के डॉ. राकेश गुप्ता ने बताया कि बनारस में भाजपा सरकार ने काम बहुत कराया है। इसका लाभ उसे मिलेगा और मोदी की सीट पक्की है। चंदौली से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय के लड़ने के आसार हैं।
रामपुर के पूर्व प्रधान कासिफ खां ने बताया कि यहां से उसे ही सपा का टिकट मिलेगा, जिसे आजम खां चाहेंगे। यहां बसपा का बहुत ज्यादा जनाधार नहीं है। लेकिन, कांग्रेस की तरफ से बेगम नूर बानो मैदान में उतरीं तो सपा की राह मुश्किल हो जाएगी। झांसी की सीट इस बार सपा के खाते में है। झांसी के टिपरी निवासी विकास शर्मा ने बताया कि बसपा का वोट यहां सपा को ट्रांसफर होने की उम्मीद कम है, क्योंकि सपा सरकार के दौरान दलितों का काफी उत्पीड़न हुआ था। मथुरा से इस बार रालोद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयंत चौधरी बागपत से चुनाव लड़ सकते हैं। मथुरा सदर क्षेत्र के निवासी हेमंत चौधरी बताते हैं कि सपा-बसपा का साथ मिलने के बाद रालोद कड़ी टक्कर देगी।
अहम बात यह है कि पिछले आम चुनाव 2014 में मुजफ्फरनगर के दंगों से ही फिजा बदली थी और 2019 के आम चुनाव का आगाज भी जिस पहले चरण से हो रहा है, उसमें मुजफ्फरनगर है। लेकिन इस बार यहां फिजा बदली हुई है। सपा-बसपा-रालोद गठबंधन से मुजफ्फरनगर समेत पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाति और सामुदायिक समीकरण बदले हुए हैं, जिसका असर पूरे प्रदेश में पिछली बारी की ही तरह पड़ सकता है। यानी लड़ाई तगड़ी है।