गाजा और लेबनान में चल रही जंग पर अरब जगत की प्रतिक्रिया उदासीन रही है। गाजा के लोगों के दुख-दर्द और मानवीय त्रासदी को अरब की सरकारें किनारे बैठकर देखती रही हैं और युद्धविराम की रस्मी मांग उठाकर फारिग हो गई हैं। इस मामले में कतर अपवाद रहा, जिसने अमेरिका और मिस्र के साथ मिलकर शांति समझौता करवाने में अपनी भूमिका निभाई है। इसके अलावा, कतर की सरकार से आंशिक अनुदान-प्राप्त दोहा से प्रसारित होने वाले निजी टेलिविजन चैनल अल जजीरा ने गाजा और लेबनान का घटनाक्रम दुनिया के सामने लाने का एक महत्वपूर्ण काम किया है। इजरायल और वेस्ट बैंक में काम करने पर इजरायल का अल जजीरा के ऊपर लगाया प्रतिबंध इस लिहाज से आश्चर्य पैदा नहीं करता। इस इलाके के घटनाक्रम पर करीबी नजर रखने वाले जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के पश्चिमी एशिया अध्ययन विभाग के पूर्व अध्यक्ष आफताब कमल पाशा कहते हैं, ‘‘अरब की ज्यादातर सरकारें या तो राजशाही हैं या तानाशाही और कुछेक केवल नाम के लिए लोकतंत्र हैं। अरब के लोग इजरायल को अमेरिका और पश्चिम के समर्थन पर नाराज हैं। वे उन्हें गाजा के कत्लेआम, लेबनान में हुए हमलों और यमन में हूथी के दमन का जिम्मेदार मानते हैं। इसलिए वहां की सरकारें अपने ही लोगों के गुस्से को लेकर डरी हुई हैं, लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि अपने खानदानी शासन को बरकरार रखने के लिए वे अमेरिका और पश्चिम के समर्थन के भरोसे हैं। कुल मिलाकर अरब की सरकारें भीतरी और बाहरी दबावों के बीच फंसी हुई हैं।’’
बेरूत की ध्वस्त इमारतें
जैसा कि पाशा बताते हैं, अरब देशों के लोग गाजा और लेबनान के घटनाक्रम पर रोष में हैं लेकिन उनकी सरकारों का नजरिया कुछ और है। कुछ साल पहले अरब स्प्रिंग नाम से बगावतों के उभार के दौरान जब ट्युनिशिया और मिस्र हिल गए थे और कई मुस्लिम देशों में जनता प्रदर्शन पर उतर आई थी, तब खाड़ी के कई शासक अपनी सत्ता के जाने के डर से बेचैन हो उठे थे। अरब स्प्रिंग ने मिस्र के शासक हुस्ने मुबारक का तख्तापलट कर डाला, जिसके बाद अरब जगत के शासक उलेमाओं के सामने राजनैतिक इस्लाम एक बड़ी चुनौती बनकर खड़ा हो गया था। इसी के बाद से सऊदी अरब, यूएई और अरब के कुछ शासक खानदानों के लिए मुस्लिम ब्रदरहुड पहला दुश्मन बन गया था।
अरब के शासक अमेरिका के करीबी सहयोगी रहे हैं। कई ने तो अपनी जमीन पर अमेरिकी सैन्य सुविधाओं को भी पनाह दी है, जैसे बहरीन, कुवैत, मिस्र, इराक, जॉर्डन, सउदी अरब और यूएई। शुरुआत में अरब के कई देशों ने इजरायल को मान्यता देने से इनकार कर दिया था लेकिन कई अब ऐसा कर चुके हैं या अपने आधिकारिक पक्ष के बावजूद उसके साथ रिश्ता कायम किए हुए हैं। ट्रम्प ने जो अब्राहम संधि करवाई थी, उसके तहत यूएई और बहरीन ने 2022 में इजरायल के साथ अपने संबंध सामान्य किए। उसके बाद सूडान और मोरक्को ने भी यही किया।
अमेरिका और इजरायल के लिए हालांकि सबसे बड़ा ईनाम सऊदी अरब के रूप में आया जब प्रिंस मुहम्मद बिन सलेमान उनकी मानने को तैयार हो गए। उनके पिता किंग सलमान बिन अब्दुल अजीज हालांकि इस मामले में थोड़ा सतर्क थे। सऊदी अरब में पड़ने वाले सुन्नी मुसलमानों के सबसे बड़े तीर्थ मक्का और मदीना के मद्देनजर वे फलस्तीन पर किसी ठोस आश्वासन के बगैर अपने लोगों का गुस्सा झेलने को तैयार नहीं थे। बदले में सऊदी अरब चाहता था कि अमेरिका उसके साथ एक रक्षा सौदा पटा ले। इजरायल और सऊदी अरब दोनों तैयार हो ही गए थे कि हमास के हमले ने इस प्रक्रिया में खटाई डाल दी। कई लोग ऐसा मानते हैं कि 7 अक्टूबर को हमास के किए हमले सउदी अरब की सौदेबाजी को रोकने के उद्देश्य से थे।
इजरायल ने सऊदी अरब और यूएई को काफी करीब से मिलकर सहयोग किया था ताकि अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी के साथ ईरान के परमाणु सौदे को तोड़ा जा सके। यह बात 2015 में ओबामा प्रशासन के आखिरी दिनों की है। तीनों देश ईरान को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा मानते हैं। इसके अलावा, दशकों से खाड़ी के सुन्नी देशों और शिया-बहुल ईरान के बीच दुश्मनी चली आ रही है। वो तो 2023 में चीन ने ईरान और सऊदी अरब के बीच शांति बहाली में भूमिका निभाई, हालांकि सदियों में कायम संदेह रातोरात खत्म नहीं हो सकता था। ईरान को अब भी सऊदी अरब अपने लिए खतरा मानता है क्योंकि राजनैतिक इस्लाम ईरान की क्रांति की ही पैदाइश है।
मलबा हटाते बचावकर्मी
जानकारों का मानना है कि अरबों की ओर से फलस्तीन पर उदासीनता के कई और कारण हैं। बीते कई बरसों में अरबों की कई राजनैतिक पहचानें रही हैं। कभी वे अरब हो जाते हैं, तो कभी इस्लामिक पहचान अख्तियार कर लेते हैं और कभी-कभार वे क्षेत्रीय या राष्ट्रीय पहचान अपना लेते हैं। अरब और इस्लामिक पहचान के कारण ही इन देशों ने एक यहूदी राष्ट्र इजरायल को अपने बीच मान्यता देने से इनकार कर दिया था, हालांकि समय के साथ धीरे-धीरे राष्ट्रीय अस्मिताएं सब पर तारी हो गईं। अरब स्प्रिंग के बाद से इस इलाके के देशों ने राष्ट्र-निर्माण और राष्ट्रवाद को तरजीह देना शुरू किया है, लिहाजा इस्लामिक और अरब पहचान के ऊपर देशभक्ति हावी हो गई है। सऊदी अरब के शासकों की आंख तब खुली जब 9/11 का हमला हुआ और हमलावर वहीं के निकले। चरमपंथी इस्लाम के डर से शासकों ने अपनी जनता के मसलों पर काम करना शुरू किया। अरब जगत की तेल से होने वाली कमाई को नागरिकों को लाभ देने के लिए सरकारें इस्तेमाल करने लगीं। इसी प्रक्रिया में फलस्तीन का मुद्दा पार्श्व में चला गया।
अरब के शासक हमेशा से ऐसे उदासीन नहीं थे। जब 1948 में फलस्तीन की जमीन के एक हिस्से को इजरायल राष्ट्र के लिए दिया गया, उस वक्त अरब देश नियम से इजरायल के खिलाफ जंग छेड़ते थे। इन युद्धों में अरब सेनाओं की हार होती रही और इजरायल और ज्यादा जमीनें कब्जाता गया।
मिस्र, जॉर्डन, इराक, लेबनान और सीरिया, सबने 1948 से 1948 के बीच इजरायल से युद्ध किया था। युद्ध समाप्त होने के बाद इजरायल ने अपनी सीमा का विस्तार करते हुए नेगेव तक कब्जा जमा लिया था, जो पहले मिस्र और फलस्तीन की सरहद हुआ करता था। 1967 में छह दिन चली जंग में इजरायल ने मिस्र, सीरिया की सेनाओं को हरा दिया और जॉर्डन के हमलों का पलटवार जवाब दिया। युद्ध के बाद इजरायल का गाजा पट्टी, सिनाई के प्रायद्वीप, वेस्ट बैंक और यरूशलम पर कब्जा हो गया। फिर 1973 में मिस्र और सीरिया ने योम किप्पु युद्ध छेड़ा और इजरायल को अचानक किए हमले से चौंका डाला। इजरायल की इस युद्ध में हार हो जाती, यदि अमेरिका ने उसकी ओर से दखल नहीं दिया होता क्योंकि मिस्र और सीरिया को पूर्व सोवियत संघ का समर्थन हासिल था।
उसके बाद हुई शांति वार्ता में इजरायल ने 1967 में कब्जाई जमीन का बड़ा अंश वापस कर दिया और 1979 में मिस्र और इजरायल के बीच शांति संधि हो गई। उसके बाद सिनाई का प्रायद्वीप मिस्र को लौटा दिया गया। फिर जल्द ही जॉर्डन ने भी इजरायल के साथ शांति संधि कर ली और बाद में हुई अब्राहम संधि ने उसे इसके लाभ उठाने के लायक बना दिया। जो भी हो मौजूदा जंग भी रुकनी चाहिए।