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कर्नाटकः उद्घाटन पर रस्साकशी

विश्व प्रसिद्ध मैसूरू दशहरा समारोह बुकर पुरस्कार विजेता कन्नड़ लेखिका बानू मुश्ताक को आमंत्रित करने पर गरमाया
बानु मुश्ताक

इस साल, कर्नाटक का संस्कृति, कला और सांस्कृतिक पहचान का उत्सव राजनैतिक तूफान में बदल गया है। विश्व प्रसिद्ध मैसूरू दशहरे के उद्घाटन के लिए सिद्धारामैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का निर्णय भारतीय जनता पार्टी को जरा भी रास नहीं आया। 22 अगस्त को मुख्यमंत्री सिद्धारामैया ने घोषणा की, ‘‘इस साल अपनी पुस्तक हार्ट लैंप के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतने वाली हासन की लेखिका, वकील और कार्यकर्ता बानू मुश्ताक इस उत्सव का उद्घाटन करेंगी।’’ मुख्यमंत्री ने इस बात पर जोर दिया कि कर्नाटक की लेखिका को बुकर पुरस्कार मिलना पूरे राज्य के लिए गर्व की बात है और ऐसी प्रतिष्ठित महिला का दशहरा उत्सव का उद्घाटन करना ऐतिहासिक उपलब्धि है।

खबर सार्वजनिक होने के बाद मुश्ताक ने इस आमंत्रण को विनम्रता से स्वीकार किया और दशहरा उत्सव को सभी का त्योहार बताया। उन्होंने इस उत्सव के साथ अपने गहरे सांस्कृतिक संबंध पर भी जोर दिया। बचपन में अपने माता-पिता के साथ प्रसिद्ध जम्बू सवारी हाथी परेड में भाग लेने को याद करते हुए उन्होंने कहा कि देवी चामुंडेश्वरी को ‘मां’ कहना और त्योहार को नाडा हब्बा कहना, दोनों ही कर्नाटक की संस्कृति का अभिन्न अंग हैं, जिसे वह किसी और की तरह ही महत्व देती हैं।

सिद्धारमैया

सिद्धारमैया

लेकिन मैसूर के पूर्व सांसद प्रताप सिन्हा, सांसद तेजस्वी सूर्या और शोभा करंदलाजे के साथ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बी.वाई. विजयेंद्र ने सरकार के इस चयन पर फौरन अपनी आपत्ति जताई। यहां तक कि निष्कासित भाजपा विधायक बसनगौड़ा पाटिल यतनाल ने भी मांग की कि मुश्ताक स्पष्ट करें कि “क्या वह इस्लाम का पालन करना जारी रखेंगी या अब वह मानती हैं कि सभी रास्ते मोक्ष की ओर ले जाते हैं।” हालांकि यही बात मैसूर के वंशज और वर्तमान भाजपा लोकसभा सांसद यदुवीर वाडियार ने जरा नरमाई से रखी। उन्होंने मुश्ताक की साहित्यिक उपलब्धियों की प्रशंसा तो की, लेकिन इस बात पर जोर दिया कि दशहरा शास्त्रों और पुराणों पर आधारित “हिंदू धार्मिक उत्सव” है। उन्होंने मुश्ताक से देवी चामुंडेश्वरी और भुवनेश्वरी के प्रति स्पष्ट रूप से श्रद्धा व्यक्त करने का आग्रह किया।

मुश्ताक के प्रति इन सांप्रदायिक प्रतिक्रियाओं का कारण उनका सिर्फ मुस्लिम होना ही नहीं है, बल्कि जनवरी 2023 में बेंगलूरू में आयोजित एक साहित्यिक उत्सव में उनका भाषण भी है। उस भाषण में उन्होंने कन्नड़ को देवी भुवनेश्वरी के रूप में चित्रित करने और कन्नड़ ध्वज के लिए हल्दी और कुमकुम जैसे हिंदू अनुष्ठान प्रतीकों के उपयोग की आलोचना की थी। उन्होंने कहा था, “आपने कन्नड़ भाषा को कन्नड़ भुवनेश्वरी बनाया, आपने ध्वज को अरिषिना और कुमकुम दिया और उसे एक आसन पर बिठाया। इसमें मेरे लिए अब क्या बचा है? मेरी बहिष्कार तो बहुत पहले शुरू हो गया था। अब यह पूरी तरह से हो रहा है।’’ उन्होंने तर्क दिया कि कन्नड़ को इस तरह से देवी के रूप में चित्रित करना अल्पसंख्यकों, बौद्धों, जैनियों और अन्य लोगों को खुद ब खुद बाहर कर देता है क्योंकि वे मूर्तियों की पूजा नहीं करते हैं। इसके बाद कुछ दक्षिणपंथी सोशल मीडिया हैंडल ने उनके ये अंश फिर से प्रसारित कर उन्हें ‘‘कन्नड़ विरोधी’’ बना दिया है।

तेजस्वी सूर्या

तेजस्वी सूर्या

इन तमाम आलोचनाओं के बाद कांग्रेस ने मजबूती से अपना पक्ष रखा। गृह मंत्री जी. परमेश्वर ने आलोचकों को याद दिलाया कि दशहरा केवल हिंदू त्योहार नहीं, बल्कि सरकार द्वारा आयोजित राज्य का त्योहार है। मंत्री एच.के. पाटिल ने कहा कि ‘‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ लोग राज्य के त्योहार पर राजनीति कर रहे हैं।’’ कांग्रेस सांसद सैयद नसीर हुसैन का कहना है कि मुश्ताक प्रगतिशील साहित्यिक व्यक्ति हैं और उत्सव के उद्घाटन का विरोध सिर्फ उनके धर्म के कारण हो रहा है।

कर्नाटक सरकार के इस निर्णय के समर्थन में, लेखक और सांस्कृतिक हस्तियां भी आ गई हैं। कन्नड़ समीक्षक रहमत तारिकेरे बताते हैं कि यह पहली बार नहीं हैं, जब कोई मुस्लिम दशरहरा उत्सव में आंमत्रित है। मुश्ताक से पहले 2017 में, दिवंगत कवि के.एस. निसार अहमद देवी चामुंडेश्वरी पर पुष्पवर्षा कर उत्सव का उद्घाटन कर चुके हैं। उससे भी पहले 1930 और 1940 के दशक में, वाडियार घराने में दीवान रह चुके सर मिर्जा इस्माइल भी इस समारोह का हिस्सा रह चुके हैं। उन्होंने ही दशहरा को औद्योगिक और सांस्कृतिक प्रदर्शनी के रूप में विस्तार दिया, जिसके कारण यह उत्सव आधुनिक स्वरूप में आकार ले सका।

आउटलुक से बात करते हुए, कन्नड़ विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष और प्रसिद्ध लेखक प्रोफेसर पुरुषोत्तम बिलिमले पूछते हैं, ‘‘अगर निसार अहमद इसका उद्घाटन कर सकते हैं, तो बानू क्यों नहीं? यह कदम नाद हब्बा को और अधिक धर्मनिरपेक्ष और समावेशी बनाने की दिशा में है।’’ वह कहते हैं, अहमद की तुलना में मुश्ताक की ज्यादा आलोचना सिर्फ उनके मुस्लिम होने के कारण नहीं, बल्कि उनके महिला होने के नाते और समाज के खिलाफ आवाज उठाने के कारण हो रही है। यही कारण है कि लोग उन्हें लेकर ज्यादा कटु हैं। बिलमिले कहते हैं, ‘‘अहमद के मामले को देखा जाए, तो उन्होंने हिंदू देवी-देवताओं की प्रशंसा में कई कविताएं लिखी हैं। मुश्ताक भी पहले से ही चामुंडेश्वरी में अपनी श्रद्धा प्रकट कर चुकी हैं। किसी भी सरकारी कार्यक्रम में धर्म, भाषा, जाति या संस्कृति के आधार पर भेदभाव नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान इसकी इजाजत नहीं देता।

आउटलुक से बात करते हुए, वरिष्ठ कन्नड़ लेखक के.एस. भगवान भी कहते हैं कि मैसूर दशहरा अलग है क्योंकि इसमें भक्ति के साथ-साथ साहित्य, संगीत, भोजन और प्रदर्शनियां भी शामिल हैं। वे जोर देकर कहते हैं, ‘‘मुश्ताक जैसी महिला लेखिका को आमंत्रित करना सांस्कृतिक प्रगति के रूप में देखा जाना चाहिए। राज्य संविधान से बंधा है, जो भेदभाव की अनुमति नहीं देता। उन्हें आमंत्रित करना एक प्रगतिशील कदम है।’’

लेकिन कुछ दक्षिणपंथी लेखक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता अब इस विवाद को नए मोड़ दे रहे हैं। आउटलुक से बात करते हुए, प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक और थिएटर व्यक्तित्व अड्डंडा सी. चरियप्पा ने आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने बानू मुश्ताक को चुनने में ‘‘संदिग्ध मकसद’’ रखा था। उनका कहना है कि ‘‘बुकर पुरस्कार मूल कन्नड़ भाषा के लिए नहीं बल्कि उसके अंग्रेजी अनुवाद के लिए था, जिसे हिंदू महिला पत्रकार दीपा भस्ती ने किया था। यदि धर्म मुद्दा नहीं है, तो फिर मुख्यमंत्री ने दीपा को ही क्यो नहीं आमंत्रित कर लिया। इसलिए शक जाता है कि मुद्दा धर्म ही है।

पालकी में वाडियार वंशज

पालकी में वाडियार वंशज

इस विवाद ने कन्नड़ पहचान पर बहस को भी फिर से छेड़ दिया है। देवी भुवनेश्वरी का कन्नड़ भाषा से जुड़ाव 20वीं सदी में ही सामने आया। मराठी राष्ट्रवाद और तिलक के हिंदू प्रतीकों से प्रभावित होकर, 1930 के दशक में कन्नड़ कार्यकर्ताओं ने मातृदेवी की छवि, भगवा रंग अपनाया और विजयनगर साम्राज्य को मुस्लिम बहमनियों का विरोध करने वाले एक हिंदू कन्नड़ साम्राज्य के रूप में प्रस्तुत किया। कुवेम्पु के राज्यगान, ‘जय भारत जननीय तनुजते’ में भी यही छवि परिलक्षित होती है।

मैसूर में इस तरह की बहस होना विडंबनापूर्ण है क्योंकि मैसूर की समृद्ध और बहुसांस्कृतिक विरासत है। इस शहर को कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी भी माना जाता है। मैसूर ने कर्नाटक संगीत, उर्दू कविता, योग परंपरा, औपनिवेशिक वास्तुकला और रेशम की बुनाई को समान रूप से आगे बढ़ाया। वाडियार परिवार ने हिंदू मंदिरों और ईसाई चर्चों, दोनों को समान रूप से संरक्षण दिया और संस्कृत विद्वानों के साथ उर्दू कवियों, दोनों को समर्थन दिया।

इस साल यह उत्सव शारदीय नवरात्रि के पहले दिन यानी 22 सितंबर से शुरू होकर दशहरा वाले दिन 2 अक्टूबर को समाप्त होगा। 2 अक्टूबर गांधी जयंती भी है। समारोह की शुरुआत मैसूर में गजपयाना नाम से हाथी भ्रमण के साथ शुरू होगा। इसके बाद चामुंडी हिल्स में नवरात्रि अनुष्ठान होंगे। इस अवसर पर 22 दिनों तक ऐतिहासिक मैसूर पैलेस के साथ सद्भावना के रूप में चर्चों और मस्जिदों में भी रोशनी की जाएगी।

विजयादशमी पर मां चामुंडेश्वरी की भव्य जम्बू सवारी निकाली जाती है। इसमें चामुंडेश्वरी की मूर्ति को हाथी पर बिठाकर सड़कों पर घुमाया जाता है। सड़क के दोनों किनारों पर लाखों दर्शक मां के दर्शन करते हैं। इसके साथ ही कई सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं, जिसमें कुश्ती मुकाबले, प्रदर्शनियां और भारतीय वायु सेना का एयर शो भव्यता को और बढ़ा देता है। देखना है कि बानू इस भव्यता की गवाह होंगी या नहीं।