'चरन् वै मधु विंदति चरन् स्वादुमुदंबरम।
सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं यो न तंद्रयते चरंश्चरैवेति।’
अर्थात चलते हुए मधु प्राप्त होता है, चलते हुए फल का स्वाद मिलता है, सूर्य की श्रेष्ठता देखो, चलते हुए उसे तंद्रा नहीं आती: चलते रहो।
इस सूक्त की अन्य कुछ पंक्तियां जो कहती हैं उनका अर्थ है: 'चलते हुए की जांघें पुष्पित होती हैं, आत्मा फलती है। बैठे हुए का भाग्य पड़ा रहता है और उठकर चलने वाले का चल पड़ता है।’
कहते हैं, बुद्ध अपने कई प्रवचनों का समापन चरैवेति, चरैवेति के आप्त पद से करते थे। चलते रहो, चलते रहो। उनका गेह से चल निकलना, महाभिनिष्क्रमण, उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ है। फिर महाबोधि के बाद जब वह बुद्ध हुए और ज्ञान के ठौर आकर तथागत हुए तब भी चंक्रमण ही स्वभाव रहा: सबके चलने के लिए आष्टांगिक मार्ग सर्वसुलभ कराने के लिए चलते रहे, चलते रहे।
यात्रा एक प्रमुख पुराप्रतीक है। आर्किटाइप। मिथक, इतिहास और साहित्य में। सरस्वती के तीर से सदानीरा गंडकी के तट तक तीर की तरह क्षिप्र आए वैदिक विदेह की यात्रा, अयोध्या से निर्वासित राम की यात्रा, कृष्ण की मथुरा से द्वारका तक रणछोड़ यात्रा, इलियड और ओडेसी में यूनानी मिथकीय महानायक यूलिसस की यात्राएं, बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण और फिर बोधि की आंतरिक आध्यात्मिक यात्रा, महावीर की यात्राएं, लाल सागर को चीरकर यहूदियों को पवित्र प्रदत्त भूमि जूडिया तक ले जाने वाली मूसा की यात्रा, मसीह बनने के पूर्व वर्षों तक ईसा का गुमनाम भ्रमण, पीटर, पॉल और टॉमस जैसे उनके शिष्यों की यात्राएं, अशोक की पहले दिग्विजय और फिर धम्म विजय यात्राएं, संघमित्रा और महेंद्र की पाटलिपुत्र में गंगा तट के महेंद्रू घाट से शुरू हो समुद्रपारीय यात्रा, पैगंबर की हिजरत, कुमारजीव की चीन यात्रा, पद्मसंभव की तिब्बत यात्रा, चीन से हुआन सांग, फाहियान और इत्सिंग की भारत यात्राएं, आधुनिक विश्व में औपनिवेशिक साम्राज्यों की नींव रखने वाली कोलंबस, वास्को डि गामा, मैगेलॉन और कैप्टन कुक की यात्राएं, अमेरिकी महाद्वीपों में नए इलाके आबाद करने वाले पिलग्रिम फादर्स और स्पानी कॉन्क्वस्टाडोर्स की यात्राएं - आधुनिक मानव के सामूहिक मन में यात्राओं के अनेक संस्मरण हैं जैसे रघुवीर सहाय के कवि मन में पानी के अनेक संस्मरण थे। पर संस्मरण कड़ुवे, खट्टे, मीठे, सभी तरह के होते हैं।
यात्रा के सबसे गहरे अनुभव दैहिक नहीं, आत्मिक होते हैं, यात्रा चाहे जन और देश जैसी समूहवाचक इकाइयों की हो या व्यक्ति की। लोग अक्सर भूल जाते हैं कि भारत का राष्ट्रगान 'जन गण मन अधिनायक’ दरअसल पांच पदोंं वाली एक लंबी कविता का सिर्फ एक पद है। इस नासमझी के कारण ही भारत के जन गण मन का अधिनायक ब्रिटिश बादशाह को मानकर रचयिता कवि रवींद्र नाथ ठाकुर की आलोचना कर दी जाती है। पूरी कविता के सभी पांच पद पढें़ तो स्पष्ट है कि यह अधिनायक और कोई नहीं, भारत की ही आत्मा है जो सद्ï गंतव्य की तलाश करती यात्री है:
'पतन अभ्युदय बंधुर पंथा युग-युग धावित यात्री
तुमि चिर सारथि, तव रथ चक्रे, मुखरित पथ दिन रात्रि
दारुण विप्लव माझे, तव शंखध्वनि बाजे...’
यह यात्री चिर सारथि क्या मूल्य संजोए है, इसके लिए पिछला पद पढ़िएः
'अहरह तव आह्वान प्रचाारित सुनि तव उदार वाणी
हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन, पारसिक, मुसलमान, ख्रिस्तानी...
प्रेमहार हय गाथा....
जन गण ऐक्य विधायक’
जय हे भारत भाग्य विधाता।’
और देश के दु:खों को भी यह यात्री आत्मा - 'स्नेहमयी तुमि माता’ - झेलती और तारती है:
'घोर तिमिर घन निविड़ निशीथे पीड़ित मूर्छित देशे
जाग्रत छिल तव अविचल मंगल...’
इस यात्रा का गंतव्य क्या है, पढ़ ही लीजिए:
'रात्र प्रभातिल उदिल रविच्छवि पूर्व उदयगिरि भाले
गाहे विहंगम पुण्य समीरण नवजीवन रस ढाले
तव करुणारुण रागे, निद्रित भारत जागे....’
यह गंतव्य अभी दूर है। राष्ट्रगान के इसी संपूर्ण गीत से शब्द लें तो 'दु:स्वप्ने आतंके’ के दौर से भारत मुक्त नहीं है।
भारत के समकालीन सफर में इन्हीं सरीखे स्वप्नों के साथ आउटलुक हिंदी भी चला है। और उसके साथ कुछ दूर हम भी चले। शुभकामना है कि आउटलुक और भी ऊर्जा के साथ चले। अब हमारी राह जुदा होगी, स्वप्न नहीं। नई यात्रा की घड़ी में मैथिली के जन कवि वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री’, जो हिंदी में 'नागार्जुन’ नाम से विख्यात हैं, की इन पंक्तियां का भाव मन में उमड़ रहा है:
'पुरजन, परिजन के छोड़ि छाड़ि,
पातिल पुरहर के फोड़ि फाड़ि,
हम जा रहल छी आन ठाम...’
लेकिन मन खुद को तसल्ली देता है, अन्य स्थान, 'आन ठाम’ जाते हुए भी हमने 'पातिल पुरहर’, पत्राच्छादित कलश आदि फोड़ा नहीं।
दास नीलाभ जतन से ओढ़ि...