वसंत हो और हिंदी कविता के प्रेमी को वन न याद आएं?
अभी न होगा मेरा अंत,
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसंत।
प्रारंभिक निराला की अटूट आशा, उनका अमर वन:
सुख के भय कांपती प्रणय क्लम,
वनश्री चारुतरा।
लेकिन इस वसंत में आप वन ढूंढने कितनी दूर गए? अब भी जिसके पास साधन है, उसके पास उपवन है और उस उपवन में वसंत भी। लेकिन हर गांव-शहर के सिवान पर मनुष्य का सहोदर पुराना वन? ग्लोबल वॉर्मिंग अभी इतनी नहीं हुई है कि भारत में वसंत आए ही नहीं लेकिन आजकल कितने गांवों-शहरों में गाते हैं 'पिक पावन पंचम?’ वन दूर दराज सिमटते जा रहे हैं। और जहां है वहां उनकी श्री सिमटती जा रही है। अब वह सुख के भय से नहीं कांपती। कांपती है तो निरंतर पास आती मृत्यु के भय से। अब हमारे यथार्थ का लैंडस्केप बहुत बदल गया है और इसमें यदि अब भी वसंत और वन है तो उसके लिए दूसरी कविता दरकार है।
पहले किसी वसंत, 1995 के बिहार विधान सभी चुनावों के दौरान, पत्रकारीय कर्म मुझे एक वन प्रदेश में ले गया था। पिछली सदी की शुरूआत के महान आदिवासी विद्रोही बिरसा मुंडा के जन्मस्थान डोंबारी गांव। अब के झारखंड और तब के बिहार में। वहां मुझे बिरसाइत संप्रदाय के कुछ बुजुर्ग मुंडा आदिवासी मिले जो धरती पर बिरसा भगवान के काम को अधूरा मानते हुए उनके एक और अवतार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे अब भी सफेद मुर्गे और सफेद बकरी को गोरे अंग्रेजों का प्रतीक मान गांव से खदेड़ देते हैं। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि अब तो देश आजाद हो गया है और वे अपने अन्य सामान्य मुंडा बंधुओं की तरह सामान्य जीवन जी सकते हैं। उन्होंने कहा, कहां? अगर देश आजाद हो गया है तो वन विभाग के गार्ड वैसी ही वर्दी धारण कर अब भी हमें उसी पुरानी तरह क्यों लुटते-सताते और हमारे जंगल काटते-बेचते हैं? हमारे जंगल हमारे कहां हैं? जो बचा खुचा जंगल है उसका महुआ, लकड़ी, लासा, फल-फूल, कुछ भी तो हमारा नहीं।
सच है, सिमटते वनों में भी उनके बीच रहने वाले और वनों पर निर्भर लोगों के बीच लगातार सरकार, वन विभाग और जंगल ठेकेदार आते चले गए हैं। इसमें अंग्रेजों के जाने से कोई बदलाव नहीं आया बल्कि आजादी के बाद यह प्रक्रिया तेज ही होती गई। जो वनों पर दो जून भोजन के लिए निर्भर होते हैं वे उसे नष्ट नहीं करते बल्कि प्राणपण से बचाते हैं, यह बात आजाद भारत की संसद को बहुत देर से समझ आई और उसने 2006 में जाकर वनवासियों के परंपरागत अधिकारों को मान्यता देने वाला वन अधिकार कानून पास किया जिस पर अमल की प्रक्रिया अब शुरू हुई है। लेकिन इतने दिनों में वन विभाग और अन्य सरकारी विभागों के अमले में निहित स्वार्थ इतनी जड़ें जमा चुका है कि ये लोग जंगलों और लूट को अपनी बपौती मानकर वनवासियों को उनका देय देने में हर अड़ंगा लगा रहे हैं। दक्षिण राजस्थान में जंगल जमीन आंदोलन ने इलाके के 40 गांवों के एक सर्वे में सरकारी अमले का ऐसा अंधेर देखा कि यह कानून, इंसाफ और इंसानियत ही शरमा जाए। नौकरशाही को जानने वाले जानते हैं कि इस कानून के संबंध में उसके लगभग यही लक्खण कमोबेश पूरे देश में मिलेंगे। इस छोटे से कॉलम में हर गांव का हाल तो नहीं रिर्पो किया जा सकता पर उसके मुख्य बिंदु ये रहे।
वन भूमि पर सामुदायिक अधिकारों के दावा फॉर्म अधिकतर जगहों पर न तो उपलब्ध कराए जा रहे हैं न उनकी जानकारी दी जा रही है। एक अनुमान के अनुसार पूरे राजस्थान में अब तक केवल 150 सामुदायिक दावे ही पेश हो पाए हैं। अधिकतर वन अधिकार समितियां निष्क्रिय होने के कारण भौतिक सत्यापन नहीं हो पा रहा है। जहां वे सक्रिय हैं वहां वन विभाग और पटवारी सहयोग नहीं कर रहे हैं। समितियों, यहां तक कि ग्राम सभाओं द्वारा सत्यापित दावों को भी नौकरशाही नहीं सत्यापित कर रही है। कुछ जगहों पर अनपढ़ लोगों को धोखे से कब्जा छोडऩे के दावे पर हस्ताक्षर कराए जा रहे हैं। कहीं-कहीं दावेदारों के मौके पर काबिज होने के बावजूद काबिज नहीं होना दिखाया जा रहा है। साक्ष्यों की सूची में दावेदारों को नियमत: तीन में दो साक्ष्य मांगे जा रहे हैं। इस मामले में वन विभाग ग्राम सभाओं को भी गुमराह कर रहा है। नियमत: हर स्तर पर सत्यापन तक लोगों को बेदखल नहीं किया जा सकता लेकिन कई जगह लोगों को बीच में ही लोगों को बेदखल किया जा रहा है। गैर आदिवासी जंगलवासियों के दावे सीधे नामंजूर किए जा रहे हैं जो नियम विरुद्ध है। अभी तक 1980 के पहले के दावों का ही सत्यापन किया जा रहा है जबकि कानून 2005 तक के कब्जे मान्य होने चाहिए। प्रक्रिया में उलझाकर गरीब जंगलवासियों से अवैध वसूली की जा रही है।
पश्चिम यूरोप में वसंत के महीने अप्रैल के बारे में एक अन्य आध्यात्मिक प्रसंग में टीएस एलियट ने कविता वेस्टलैंड की नाटकीय शुरु आत में लिखा था कि वह क्रूरतम महीना है जो मृत धरती से लाइलैक के फूल जनमाता है। यहां वसंत वंचितों के लिए इतना क्रूर हो सकता है कि मृत धरती शोले जनमाए तो बेहतर।