आखा तीज के पूर्व हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी बाल विवाह के लिए बदनाम छवि चमकाने के उद्देश्य से राजस्थान सरकार ने बाल विवाह रोकने की तैयारियों का ढिंढोरा मीडिया में जोर-शोर से पीटा। राज्य के सभी पुलिस थानों को चौकस कर दिया गया। राज्यपाल कल्याण सिंह और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अक्षय तृतीया की शुभकामनाएं तो दीं लेकिन आम जन को बाल विवाह की कुरीति से परहेज करने की अपील जारी की। सभी उपखंड अधिकारियों को भी पाबंद किया गया कि उनके हल्के में बाल विवाह ने हों। इनकी रोकथाम के लिए तीन हजार ग्राम प्रभारी भी नियुक्त किए गए। बैंड बाजा, बाराती, पंडित, हलवाई, कार्ड छापने वालों और टेंट वालों - सरकार ने किसे नहीं धमकाया कि बाल विवाह कराओगे तो कैदखाने जाओगे।
ऐसे ही सरकारी प्रयासों को गंभीरता से लेने के कारण राजस्थान के महिला विकास कार्यक्रम की ग्राम स्तरीय कार्यकर्ता भटेरी की भंवरी देवी को अपनी गंभीरता की सजा भुगतनी पड़ी थी। बाल विवाह को रोकने की कोशिश में सामूहिक बलात्कार की शिकार भंवरी देवी को 21 वर्ष बाद भी न्याय नहीं मिला है। लेकिन राजस्थान में बाल विवाह बददस्तूर जारी है।
सन 2011 की जनगणना के मुताबिक 16 लाख बच्चे शादीशुदा हैं। ग्रामीण इलाकों में 18 वर्ष से कम उम्र की 17.8 फीसद लड़कियां विवाहित हैं। राजस्थान में 10.5 प्रतिशत शिशु मौत के मुंह में समा जाते हैं जिनकी माताओं की उम्र 10 से 19 वर्ष होती है। वार्षिक स्वास्थ सर्वेक्षण 2012-2013 के आंकड़े बाल विवाह के मामलों में थोड़ी बढ़ोत्तरी की ओर ही इशारा करते हैं। इन आंकड़ों के अनुसार 2009 से 2011 के बीच 21 वर्ष से कम उम्र के 27.5 प्रतिशत लड़कों का विवाह हुआ, यानी लड़कियां तो और भी कम उम्र की रही होंगी।
स्थानीय टेलीविजन चैनलों के अनुसार इस वर्ष भी अक्षय तृतीया पर बाल विवाह रोकने के सरकारी प्रयास अपर्याप्त सिद्ध हुए और कई इलाकों से बच्चों की शादी की खबरें आईं। दरअसल, बाल विवाह रोकथाम के अपने प्रयास सिर्फ अक्षय तृतीया और उसके आसपास केंद्रित रखना राजस्थान सरकार की गलत और विफल रणनीति का परिचायक है।
राजस्थान सरकार को चाहिए कि बाल विवाह रोकने के लिए साल भर चलने वाली नवीन और कल्पनाशील रणनीति अपनाए। इसलिए कि विवेक और तर्क के आधार पर राजस्थान की ग्रामीण जनता ने बाल विवाह की कुरीति को मन से नहीं उतारा है। उनके मन में बाल विवाह अब भी एक मान्य परंपरा के रूप में पैठ बनाए हुए है। इस हालत में यह विडंबना पनपी है कि साक्षरता और जानकारी का स्तर बढऩे की वजह से पैदा हुई चतुराई ने जनता को सिर्फ एक दिन यानी आखा तीज पर केंद्रित सरकारी प्रयासों की काट ढूंढ लेने में सक्षम कर दिया है। सरकार और पुलिस की निगरानी से दूर साल के अन्य दिनों में लोग बाल विवाहों को अंजाम देने लगे हैं। साल के अन्य दिनों में मीडिया भी गाफिल होता है। वह भी आखा तीज पर ही सरकारी प्रयासों के इर्द-गिर्द सक्रिय होता है।
हर वर्ष आखा तीज पर बाल विवाह की रोकथाम की रोकथाम के सरकारी प्रयासों और उनकी विफलता के बारे में स्क्रीन तथा प्रिंट में रूटीन समाचार कथाएं देखी जा सकती हैं। जो मां-बाप अक्षय तृतीया पर ही अपनी संतानों का विवाह चाहते हैं वे भी इतने चालाक हो गए हैं कि व्यस्क बच्चों की शादी का कार्ड छपवाएंगे और छोटे बच्चों का विवाह कर देंगे। वे अल्पव्यस्क बच्चों को विवाह करने के लिए रात की घड़ी भी चुन सकते हैं जब सरकारी अमला निश्चिंत सोया होगा। परंपरा अनुसार यदि मंडप में एक बार ध्वज गढ़ गया, वर के घर नारियल भेज दिया गया और कलाई में पवित्र कलेवा बांध दिया गया तो विवाह कतई नहीं रूक सकता। इसलिए यदि बाल विवाह रोकना है तो प्रयास अक्षय तृतीया के पहले करने होंगे।
सरकार और मीडिया की आंख भले ही अक्षय तृतीया पर टिकी हो, मध्य और पश्चिमी राजस्थान में विवाह का लोकप्रिय दिन मौसर होता है। यानी परिवार के किसी बुजर्ग के निधन के बाद मृत्यु भोज का दिन। हालांकि ग्रामीणों को कर्ज से बोझ से लाद देने वाले मृत्यु भोज को सरकार ने 1961 में सरकार ने गैर कानूनी करार दिया। यह मृत्यु भोज परंपरा से न सिर्फ परिजनों और समुदाय के लोगों को दिया जाता था बल्कि पूरे गांव और यहां तक कि कई गांवों को बुलाया जाता था। मौसर के दिन विवाह करने का एक आर्थिक तर्क था। परिवार के पैसे बच जाते थे एक खर्च दो काज। लेकिन जैसा अरूणा राय ने लिखा है कि इस विरोधाभास का एक सांस्कृतिक पक्ष भी था : शोक और आनन्द की साथ-साथ अभिव्यक्ति। यह जीवन के शोक और आनंद के चक्र से तादात में का भी परिचायक था।
अब सरकार मौसर की निगरानी तो करती नहीं, हालांकि वह गैर कानूनी है। इसके खर्चे और दिखाऊ और आडंबरपूर्ण हो गए हैं। यह कानून तोड़ने पर लोगों के खिलाफ मामले भी दर्ज नहीं किए जाते। यह प्रथा बाल विवाह की तरह ही खूब प्रचलित है और दोनों कुरीतियां एक साथ एक ही दिन अंजाम दी जाती हैं। स्पष्ट है कि अक्षय तृतीया को सरकारी कार्रवाई केवल प्रतीकात्मक होती है। इसलिए यह रणनीति विफल हो गई।
सरकार ने कभी बालिकाओं को स्कूल में बाल विवाह के खिलाफ जागरूक नहीं किया। आंगनवाड़ियों, पंचायतों और घर-घर अभियान के जरिये भी सरकार ने इस दिशा में कोई कोशिश नहीं की। दरअसल, बाल विवाह रोकने के तमाम प्रयासों के केंद्र में लड़कियां होनी चाहिए, न कि लड़के क्योंकि बाल विवाह की कुरीति का आघात लडक़ों से ज्यादा लड़कियों के मन पर पड़ता है। बचपन में की गई शादी से बाद में लडक़ा तो सरलता से निकल जा सकता है लेकिन लडक़ी अगर परित्यक्ता हो गई तो राजस्थानी किसान समाज में परंपरागत कानून के तहत वह दूसरा विवाह नहीं कर सकती, सिर्फ 'नाते’ जा सकती है। यानी बिना विवाह के किसी के साथ पत्नी की तरह रह सकती है। यह प्रथा कालक्रम में ज्यादा दमनकारी और व्यवसायिक होती चली गई है। बाल विवाह बाल अधिकारों का मसला जरूर है लेकिन उससे ज्यादा मसला लैंगिक भेदभाव का है। इसे जेंडर मसले के तौर पर लें तो ज्यादा कारगर होगा।
मुख्यधारा की पार्टियों के राजनीतिज्ञ और निर्वाचित जनप्रतिनिधि लोगों को वोट बैंक की तरह लेते हैं। वोटों की फसल वे जाति पंचायतों के जरिये काटते हैं। सामाजिक कुरीतियों को कायम रखने से जाति पंचायतों की दुकानदारी चलती है। इस दुकानदारी की कमाई सत्ता है जिसमें जनप्रतिनिधियों का भी हिस्सा है। इसलिए समाज सुधार के वास्तविक प्रयास सरकारें नहीं कर पातीं।