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यूनान संकट: भारत और दुनिया के लिए सबक

जहां तक यूनान के मौजूदा संकट का सवाल है, इससे जुड़े मजाक की भी अपनी-अपनी विचारधाराएं हैं। एक प्रचलित चुटकुले का पूंजीवादी संस्करण इस प्रकार है। डच होने की पहचान यह है कि एक रेस्तरां में एक टेबल पर साथ में खाना खाए लोग मिलकर बिल का भुगतान करते हैं जबकि ग्रीक होने का मतलब है खाना खा लेने और शराब पी लेने के बाद जब सभी उठते हैं तो पता चलता है कि बिल देने के लिए किसी के पास पैसे नहीं हैं। इसी लतीफे का समाजवादी संस्करण यह है कि जिन लोगों ने खाने का आर्डर दिया है उन्हें पता चलता है कि उनका खाना रेस्‍तरां का मालिक खा गया और अब बिल उनको भरना है।
यूनान संकट: भारत और दुनिया के लिए सबक

और इसी तरह का एक पूंजीवादी चुटकुला: इस समय ग्रीस का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 250 बिलियन डॉलर के आसपास है, जबकि एप्पल समूह की कंपनियों की बैलेंस शीट में 30 बिलियन डॉलर ज्यादा सरप्लस है। इसलिए एप्पल को चाहिए कि वह यूनान को खरीद ले, ताकि दिन-रात कंप्यूटर में दिमाग खपाने वाले उसके कर्मचारियों को यूनानियों के सत्‍कार वाला छुट्टी मनाने का एक पक्‍का ठिकाना मिल जाए। एक मजाक जिसे समाजवादी बहुत पसंद करते हैं, दरअसल एक अमेरिकी पूंजीवादी द्वारा लगभग एक सदी पहले दिया गया बयान है: अगर आप बैंक से 100 डॉलर कर्ज लेते हैं और चुका नहीं सकते हैं तो यह आपके लिए एक समस्या है, लेकिन अगर आप १० करोड़ डॉलर कर्ज लेते हैं और चुका नहीं सकते हैं, तो यह आपके बैंक की समस्या है।   

ग्रीस संकट में है। यूरोप के लगभग सभी 28 राष्ट्र मंदी की दूसरी या तीसरी मार झेल रहे हैं। यूरो को एक सर्वमान्य मुद्रा बनाने का निर्णय 16 साल पहले 1999 में लिया गया था। फिलहाल 19 देश यूरोजोन में शामिल हैं। बहुत जल्द ( रविवार 5 जुलाई या सोमवार 6 जुलाई तक) यह स्पष्ट हो जाएगा कि यूनान यूरोजोन में रहेगा या नहीं। मंगलवार 30 जून को, यूनान हाल के दिनों का पहला ऐसा विकसित देश बन गया जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से लिए कर्ज की अदाएगी नहीं कर पाया। आईएमएफ, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और यूरोपियन आयोग की त्रिमूर्ति (ट्राइका) का आईएमएफ तीसरा अंग है, जिसने ग्रीस को बहुत ज्‍यादा कर्ज दिया हुआ है। वर्ष 2004 में ग्रीस का सार्वजनिक ऋण 183.2 बिलियन यूरो था। यह राशि 2009 में बढ़कर लगभग 300 बिलियन यूरो या देश के सकल घरेलू उत्पाद का 127 प्रतिशत हो गई और इस समय करीब 323 बिलियन यूरो या ग्रीस के सकल घरेलू उत्पाद या राष्ट्रीय आय का 175 प्रतिशत हो गई है। 

1939 में शुरू होकर 1945 में खत्म हुए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से एथेंस और बर्लिन के बीच दूरी बढ़ती जा रही है। यूनानियों के कुछ तबकों में जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल की छवि हिटलर के एक नए राक्षस अवतार जैसी बन गई है। यूनान में बार-बार याद किया जाता है कि 1953 के लंदन समझौते के बाद, नाजी दौर के बाद के जर्मनी का आधा सार्वजनिक ऋण माफ कर दिया गया था जिसके फलस्वरूप जर्मनी यूरो जोन का सबसे धनी देश और औद्योगिक शक्ति का केंद्र बन सका। न्यूयॉर्क टाइम्स ने 2 जुलाई को एक टिप्पणी की, 'दूसरे विश्‍व युद्ध की यादों के साथ जिस जुड़ाव ने शुरुआत में इस (यूरोपीय) परियोजना को एकजुट रखा, अब फीकी पड़ गई है। यह संघ गूढ़ जटिल नियमों, व्यवहार के अनौपचारिक कायदों और इसके नौकरशाहों (जिन्‍हें हिकारत के साथ "यूरोक्रेट्स" भी कहा जाता है) के आम नागरिकों को असमंजस में डालने वाली तकनीकी बारीकियों के प्रति जुनूून से जकड़ा हुआ है। हालांकि, सीरीजा ने इस पूरी व्यवस्था पर हथगोला फेंक दिया है।' 

सीरीजा जिसका मतलब 'अतिवादी वामपंथी गठबंधन' है, ने जनवरी में ग्रीस का चुनाव जीता था। चुनाव में गठबंधन की सफलता के बाद, सीरीजा के 40 वर्षीय नेता और प्रधानमंत्री एलेक्सिस सिप्रस ने उत्साह में गदगद होते हुए कहा था, 'यूनानियों ने इतिहास लिख दिया है'।अधिकांश विश्‍लेषकों ने ग्रीस के चुनावी परिणाम को अमीर अभिजात्य वर्ग के खिलाफ युवाओं का विद्रोह समझा। आम लोगों की नजर में यूनानी कुलीन वर्गों, विशेष रूप से नौवहन पूंजीपतियों ने हर चीज पर कब्जा कर लिया है। एरिस्टोटल ओनासिस को याद करें, कथित रूप से एक समय दुनिया का सबसे धनी आदमी, जिसने जैकलिन कैनेडी से शादी की और ओपेरा गायक मारिया कैलस से प्रेम करता रहा।

ग्रीस की सरकार को संकट से उबारने के लिए त्रिमूर्ति (ट्राइका) ने अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने की उम्मीद में जो प्रयास किए उसका बिल्कुल विपरीत परिणाम आया। पांच वर्षों से कम समय में राष्ट्रीय आय के चार गुना कम हो जाने और इसी अनुपात में वास्तविक मजदूरी घटने से ग्रीस की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई। यूरोपीय मानकों के अनुसार यूनान में हर चार में से एक व्यक्ति इस समय गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक तौर पर वंचित हालत में जी रहा है। ग्रीस की 11 करोड़ की आबादी में 26 फीसदी से ज्‍यादा लोग बेरोजगार हैं और देश के 60 प्रतिशत युवाओं के पास नौकरी नहीं है।  

 

यूनान संकट की जड़ 

एथेंस में नई सरकार शायद ही अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की फिजूलखर्ची के बोझ से निपट सके। सार्वजनिक ऋण की सच्चाई का पता करने के लिए गठित एक आधिकारिक समिति ने भी पाया कि पूर्व की सरकारों ने न सिर्फ कर्ज को दिखावे के कामों में उड़ाया बल्कि खातों में भी खूब घपले किए। मोटे तौर पर देश के कर्ज का 80 फीसदी यूरोप की विभिन्न संस्थानों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से लिया गया है और बाकी निजी ऋणदाताओं का है। 2010 से पहले यूनान का कर्ज सरकारी खर्च की वजह से उतना नहीं बढ़ा जितना ऊंची ब्‍याज दर पर लिए गए कर्ज, अवैध निकासी की वजह से कर राजस्व को हुई हानि और अत्‍यधिक सैन्य खर्च के कारण बढ़ा। पिछले दो दशक के दौरान यूनान को मिले 254 अरब डॉलर के कर्ज में से मुश्किल से 11 फीसदी राशि सरकार के चालू व्यय की मद में खर्च हुई है। 

सिर्फ कर्ज का भारी बोझ ही यूनान का एकमात्र संकट नहीं है। जैसा कि नोबल विजेता जोसेफ स्टिगलित्‍ज देखते हैं, यूनान को कर्ज के तौर पर दी गई राशि का बहुत छोटा हिस्‍सा लोगों के हाथ तक पहुंचा। इसमें से ज्‍यादा प्राइवेट कर्जदाताओं खासतौर पर जर्मनी के बैंक और वित्‍तीय संस्‍थानों को गया। अर्थशास्‍त्र में नोबेल विजेता अमर्त्‍य सेन ने यूनान को वित्‍तीय संस्‍थानों की त्रिमूर्ति की ओर से सुझाए गए उपायों की तुलना ऐसी दवा से की है जिसमें एंटी-बायोटिक्‍स और चूहे मारने का जहर दोनों मिले हैं। मरीज बीमार है और उसे तुरंत दवा की जरुरत है लेकिन वही गोली खा सकता है जिसमें एंटी-बायोटिक्‍स और जानलेवा जहर दोनों हैं। 

 

क्‍यों महत्‍वपूर्ण है यूनान संकट?

यूरोप की कुल जीडीपी में यूनान मुश्‍किल से दो फीसदी का योगदान करता है। फिर यूनान का संकट इतना महत्‍वपूर्ण क्‍यों है? जवाब है: अगर यूनान यूरोपीय संघ से बाहर जाता है तो यह संक्रमण पूरे यूरोप और दुनिया के बाकी हिस्‍सों में भी फैल सकता है। यूनान के बाहर निकलने से जो देश बुरी तरह प्रभावित होंगे वह यूरोप की अपेक्षाकृत कमजोर अर्थव्‍यवस्‍थाएं जैसे पुर्तगाल, स्‍पेन, आयरलैंड और इटली आदि हैं। स्‍पेन, फ्रांस और नीदरलैंड्स में वाम और दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतें भीषण संघर्ष की तैयारी कर रही हैं।  

मार्केट वॉच (जिसका स्वामित्व डाओ जोन्स के पास है) के मैथ्‍यू लिन जैसे विश्‍लेषक तर्क देते हैं कि यूरोजोन से यूनान के बाहर निकलने का वास्‍तविक नुकसान यूनान को उतना नहीं होगा जितना यूरोपीय संघ और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष को पहुंचेगा। यूनान और दुनिया भर में कई लोग सिप्रस के इस दावे से सहमत हैं कि लोकतांत्रिक शक्तियों और वैश्विक वित्त पूंजी के बीच भीषण संघर्ष में यह त्रिमूर्ति यूनान को "ब्लैकमेल" करने की कोशिश कर रही है। पूरे यूरोप और विश्‍व में आने वाले समय में इससे भी ज्‍यादा आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक अ‍निश्चितता फैल सकती है। यूरोपीय संघ के 28 देशों में पिछले पांच वर्षों के दौरान दर्जन भर से ज्‍यादा विषम सत्‍ता परिवर्तन हो चुके हैं। 

 

अछूता नहीं रहेगा भारत 

भारत सरकार के प्रवक्ताओं के दावों के बावजूद भारत के इस संकट से अछूता रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। देश का निर्यात लगातार कम हुआ है। उल्‍लेखनीय है कि यूरोप पिछले साल 72.5 बिलियन या 5,30,000 करोड़ रुपये के दोतरफा व्यापार के साथ भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। यूरो के भविष्य की अनिश्चितता के साथ एक सवाल बार-बार उठाया जाता है कि क्या राजनीतिक एकीकरण के बिना आर्थिक एकता लाने का प्रयास संभव है। यूरोपीय संघ का निर्माण एक साफ-सुथरा बाजार बनाने के लिए हुआ था जबकि इस समय 28 सदस्य देशों में से केवल 19 देश यूरोजोन का हिस्‍सा हैं। 

हालांकि, भारत का अनुभव अलग रहा है। राजनीतिक रूप से देश भले ही पहले से ज्यादा एकजुट हुआ है, लेकिन इसकी अर्थव्यवस्था अब भी विघटित है। ऐसा इसलिए है कि सरकार देश के 29 राज्यों और सभी सात केंद्र शासित प्रदेशों के लिए सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक सुधार 'वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी)' जो भ्रष्टाचार को कम कर भारतीय संघ के लिए एकीकृत बाजार का निर्माण कर सकता है, को लागू नहीं करवा पा रही है।   

 

भारत के लिए सबक 

यूरोप के वर्तमान संकट से भारत को एक और सबक सीखने की जरुरत है। आज नहीं तो कल हमें अपनी बैंकिंग प्रणाली को दुरुस्‍त करना होगा। सरकारी बैंकों की गैर-निष्पादित संपत्तियां यानी एनपीए ('डूबे कर्ज' के लिए एक शिष्‍टोक्ति) लगातार बढ़ता जा रहा है। इन डूबे ऋणों में अधिकांश कर्ज छोटे उद्यमियों को नहीं दिया गया है बल्कि किंगफिशर एयरलाइंस के विजय माल्‍या जैसे बड़े बिजनेसमैन की कंपनियों को यह कर्ज मिला है।वर्ष 2007-08 में शुरू हुई महामंदी की मार को झेलने के बाद भारतीय बैंक पहले की अपेक्षा कमजोर हुए हैं। यहां तक कि सरकार और वित्‍त मंत्री अरुण जेटली भी देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों की परिसंपत्तियों को पूंजी में परिवर्तित करने में झिझक रहे हैं। भारत में भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की जरूरत पर बहस के तेज होने के साथ दुनिया भर में वाम और दक्षिण के बीच वैचारिक विभाजन पहले से ज्‍यादा तीक्ष्‍ण हुआ है। विशेष रूप से 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और पूर्व सोवियत यूनियन के विघटन के बाद।  

जैसा कि स्टिग्लिट्ज़ तर्क देते हैं कि ग्रीस का संकट पैसे और अर्थशास्त्र से कहीं ज्यादा सत्ता और लोकतंत्र का संकट है। रविवार (जुलाई 5) को यूनान में जनमत संग्रह के नतीजें चाहे जो रहे लेकिन दुनिया की राजनीतिक अर्थव्यवस्था इस कदर बदल सकती है कि हममें से कईयों ने सोचा भी नहीं होगा। 

 

 

 

 

 

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