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असुरक्षित भविष्य और बेवतनी का अहसास

यूरोप में छाए शरणार्थियों के संकट से उठ रहे जरूरी सवाल, तेजी से बलवती हो रही नाजीवादी सोच के निशाने पर बड़ी आबादी
असुरक्षित भविष्य और बेवतनी का अहसास

इस समय कुछ देशों में जो संकट नज़र आ रहा है वह दूसरे विश्व युद्ध के बाद, भारत के विभाजन को छोड़ कर कहीं नहीं दिखाई पड़ा था जिसमें इतनी बड़ी संख्या में जन समुदाय विस्थापित हुए हों। वह तीन देशों पर छाया हुआ है -- ईराक़ और अफ़ग़ानिस्तान जिनके संकटों का जनक साम्राज्यवादी अमेरिका और उसके गिरोह के निर्लज्ज हमले थे और तीसरा संकट सीरिया में उठ खड़ा जिसकी वजह अड़ियल, क्रूर तानाशाह बशर अल असद है। इन तीनों देशों में हिंसा ने समाजों को मूलचूल रूप से हिला दिया और वह इतनी भयावह हो गई कि लोग अपनी जान बचाने के लिए भाग  निकलने को मजबूर हुए। उन्होंने पनाह के लिए यूरोप का रुख किया। लोग इतने घबराए हुए थे कि अकेले या परिवार के साथ जीर्णशीर्ण पोतों में ही भूमध्य सागर पार करने का जोखिम उठाया जिसमें  हज़ारों ने डूबकर अपनी जानें  गवाईं। ज़्यादातर का पहला पड़ाव यूनान था जिसने अपने भीषण आर्थिक संकट के बावजूद लाखों शरणार्थियों का खुली बाहों से स्वागत किया और उनकी अच्छी देखभाल की। वहां से वे मुख्य रूप से जर्मनी और उसके बाद अन्य यूरोपीय देशों में गए। इस समय जर्मनी में लगभग दस लाख शरणार्थी हैं, इतनी संख्या में शरणार्थी लेने के लिए जर्मनी की चांसलर एंजेला मेर्केल ने अपने भविष्य तक को दांव पर लगा रखा है। इस समय वहां ईराक़, अफ़ग़ानिस्तान और सीरिया के नागरिक हैं। 

     जर्मनी के रेलवे  स्टेशनों पर जर्मन, इंग्लिश और अरबी भाषाओँ में प्लेकार्ड्स पर लिखा होता था जर्मनी में आपका स्वागत है ! शरणार्थियों में हल्का-फुल्का नाश्ता, बच्चों को खिलौने और मौसम के मुताबिक कपड़े बांटे जाते। इसमें दूरअंदाज़ी भी है क्योंकि जर्मनी की आबादी तेज़ी से बुढ़ी हो रही है, इस तरह से उसे एक सक्रिय कामगार समूह मिल जाएगा। 

बशर की अपनायी हुई हिंसक नीति के कारण लाखों सीरियाईओं ने तुर्की और युरदुन के शरण शिविरों में पनाह ली हुई है। 

लेकिन यूरोप तक पहुंचना भी आसान नहीं था। शरणार्थियों के गहराते संकट और बढ़ती संख्या के साथ हंगरी के दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री ने कड़ा रुख़ अपनाया हालांकि शरणार्थी वहां से महज़ हो कर गुज़रते थे। उसने शरणार्थियों को रोकने के लिए सौ किलोमीटर से भी अधिक लंबी एक बाढ़ का निर्माण करवाया और हंगरी में उनके प्रवेश को दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया। बाद में जब शरणार्थियों ने क्रोआतिआ और स्लोवेनिया का रास्ता अपनाया तो कुछ समय देखने के बाद वहां की सरकारों ने भी अपनी सीमाओं पर बाढ़ेँ खड़ी कर दीं। 

कुछ शरणार्थी ऑस्ट्रिया में रह गए, कुछ ने डेनमार्क का रुख किया और जर्मनी के बाद बड़ी संख्या में स्वीडन पहुंचे जहां से कुछ ने उत्तरी सीमा पर कर फ़िनलैंड में प्रवेश किया,इस तरह फ़िनलैंड में लगभग तीस हज़ार शरणार्थी पहुंचे हैं। 

शरणार्थियों के फ़िनलैंड पहुंचने के साथ ही कई घटनाएं घटीं। इस समय फ़िनलैंड में तीन बूर्ज्वा पार्टियों की सम्मिलित सरकार है जिसका एक घटक रूढ़िवादी फ़िनों की पार्टी है जो यूरोपीय संघ और यूनान की आर्थिक सहायता के विरोध की पॉपुलिस्ट लहर पर सवार हो कर संसद और सरकार तक पहुंच गई। शरणार्थी समस्या सामने आते ही उसके सांसदों ने कठोर रवैया अपनाया। इसी पार्टी के विदेश मंत्री तिमो सोइनी ने वक्तव्य दिया कि फ़िनलैंड को सिर्फ ईसाइयों को ही शरण देनी चाहिए। मानो इंसानियत से अहम धर्म हो !

फिर इसी पार्टी के एक सांसद ने फ़ेसबुक पर फ़िनिश समाज के बहुसंस्कृतिकीकरण के विरुद्ध धर्मयुद्ध छेड़ने की घोषणा की जिससे आक्रोशित हो कर हर बड़े शहर में बड़ी तदाद में लोगों ने प्रदर्शनों और गोष्ठियों के आयोजन किए। 

कुछ समय पहले एक युवा ईराक़ी ने एक चौदह साल की कन्या से बलात्कार किया और बात ज़ाहिर होते ही उसी पार्टी के गृह मंत्री ने गुहार लगाई --- फ़िनिश समाज संकट में है!! महज़ एक ही घटना से जबकि फ़िनों के आम बलात्कार कोई अहम बात ही न हो !

इधर इस तरह की सारी बातों से रूढ़िवादी फ़िनों की पार्टी के समर्थन में भारी गिरावट आई है। 

शुरू में जब एक शाम ईराक़ी शरणार्थियों से भरी बस मध्य-पूर्व फ़िनलैंड में शरणावास पहुंचने वाली थी तो उस पर पथराव किया गया और विरोधी नारे लगाए। इसी तरह उसी क्षेत्र में, शाम को ही, एक फ़िन युवक ने कू क्लक्स क्लान की पोशाक में, फ़िनिश झंडे व अन्य सामान के साथ ईराक़ी शरणार्थियों का स्वागत किया !

इधर जब लकड़ी के बने एक दुमंज़ले, लकड़ी के बने प्रस्तावित शरणावास को जला दिया गया तो लोगों ने उसी पार्टी के एक विधयक पर अंगुली उठाई कि यह उसी के उकसाने पर किया गया है तो उसने अपनी निरीहता का स्वांग रचते हुए कहा -ईश्वर नई मेरी प्रार्थना सुन ली ! इस पार्टी के लोगों के बौद्धिक दिवालियेपन का पता इन घटनाओं से ही चल जाता है। 

बसे हुए कई शरणावासों पर पथराव किया गया, मोलोटोव कॉकटेल भी फेंके गए हैं। जर्मनी और स्वीडन में भी ऐसी आगजनी की घटनाएं हो चुकी हैं। 

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सारे लोग ही एक जैसे हों। शरणार्थियों के यहां पहुंचते ही हज़ारों लोग व्यवस्था में मदद के लिए पहुंच गए और उनके लिए कपड़े-लत्ते व अन्य सामान आवश्यकता से कहीं अधिक मात्रा में पहुंच गया। 

जो भी विरोधी हैं वे नव-नाज़ी, उग्र-दक्षिणपंथी, स्किनहेड या फ़ासीवादी, जो कुछ भी चाहें कह लें हैं। फ़ासीवादी वातावरण मध्य-पूर्व फ़िनलैंड में अधिक है जिसका एक बड़ा कारण उसका रूस की पश्चिमी सीमा से सटा होना है। सोवियत संघ का विघटन होते ही रूस में फ़ासीवादी संगठन अस्तित्व में आ गए। वहां से उन्हें फ़िनलैंड के नवयुवकों को फ़ासीवादी विचारधारा से संक्रमित करने का अवसर मिल गया। इस तरह की स्थिति के जन्म में पूंजीवाद का बड़ा हाथ रहा। पूँजी का कोई देश नहीं होता, उसका धर्म महज़ मुनाफ़ा मात्र होता है। पिछले कुछ दशकों से यूरोप व अमेरिका के उद्योगपति ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफे के लालच में उद्योगों को विकासशील देशों के मज़दूरों का शोषण करने वहां ले गए जिस कारण मूल देशों में युवा पीढ़ी के लिए रोज़गार यानि भविष्य की संभावनाएं नष्ट हो गयीं, भविष्य मात्र एक अंतहीन अंधकार में बदल गया। ऐसे में प्रतिगामी शक्तियों को दिशाहीन, शून्य में लटकते युवकों को अपने ख़ेमे में ले लेने का एक अच्छा अवसर मिल गया। और दूसरी ओर यूरोपीय संघ पूंजी की अवधारणा पर आधारित संगठन है जिसमे व्यक्ति दोयम दर्जे की इकाई बन चुका है। 

धीरे-धीरे विगत में मध्य व पश्चिम यूरोप (और भारत में भी) जिस तरह वाम का विघटन और ह्रास होने से जो शून्य पैदा हुआ उसने फ़ासीवादियों के लिए एक खुला मैदान छोड़ दिया। यही कारण है कि उन्हें दिशाहीन युवकों को अपने ख़ेमे में लेने में आसानी रही। आज इन सब देशों में फ़ासीवादी संगठनों के पॉकेट मौजूद हैं और उनमें आपस में तादात्म्य भी है। 

स्थानीय और व्यतिगत स्तर पर हालत यह है कि मेरा बेटा कहता है उसे घर की दहलीज़ पार करने से पहले कई बार सोचना पड़ता है क्योंकि बाहर जाते हुए उसे डर लगता है कि पता नहीं क्या हो जाए। युवा उसे घूर-घूर नफ़रत भरी निगाहों से देखा करते हैं। जब यहां नाबालिग़ तक सुनियोजित दांग से हत्या कर सकते हैं तो युवकों का कहना ही क्या ? उसकी माँ के फ़िन होने के बावजूद वह मूल फ़िन नहीं है यह उसके चेहरे-मोहरे से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है। वह मुझसे एक बार कह रहा था कि वह कहीं का भी नहीं है, उसका कोई वतन नहीं है !

पिछले दस सालों के बीच नव-नाज़ी और चरम दक्षिणपंथी उसे पांच बार पीट चुके हैं। पांचवीं बार एक युवा दंपत्ति ने उस पर घर के निकट ही हमला किया था। जब प्रहारों से वह ज़मीन पर गिर पड़ा तो महिला अपने हाईहील जूतों से उसकी खोपड़ी पर तब तक ठोकरें मारती रही जब तक वह मूर्छित हो कर गिर गया। वह मरते-मरते या फिर अपंग होते-होते बचा था। मैंने भी उसके बहे ख़ून को देखा था और मुझे लगा था कि मेरा अपना ही ख़ून है !!!

बेटे का भारतीय पिता होने के नाते एक तरह की ग्लानि भी मासूस करता हूं कि मेरे कारण वह यह सब झेल रहा है। इससे पहले कि बेटे के साथ कोई अनहोनी घटे मुझे उसका भविष्य सुरक्षित करना होगा क्योंकि हालत बद से बदतर होते जाएंगे। मेरा अपना  कोई वतन नहीं है !

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