2 अगस्त, 2017:आगरा के मुटनई गांव में दलित समाज से ताल्लुक रखने वाली 62 वर्षीय विधवा महिला मानदेवी को चुड़ैल समझकर पीट-पीटकर मार दिया जाता है। इस बुर्जुग महिला पर महिलाओं की चोटी काटने का संदेह था।
3 अगस्त, 2017: अजमेर के कादेड़ा गांव में कन्यादेवी नामक 40 वर्षीय दलित विधवा को डायन बताकर प्रताड़ित किया। कथित तौर पर अंगारों पर बिठाया गया, मल-मूत्र पीने के लिए मजबूर किया। अमानवीय यातनाओं और मारपीट के चलते उसने दम तोड़ दिया।
आजादी के 70 साल का जश्न मनाने और दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के तौर पर स्थापित होने को बेताब आधुनिक भारत में आपका स्वागत है!
आए दिन उन्मादी भीड़ के हाथों जान गंवाने लोगों की तस्वीरें इस जश्न पर भद्दा दाग लगा रही हैं। ऐसा लगता है मानो खून के प्यासे कुछ सिरफिरों के सामने पुलिस-प्रशासन और कानून-व्यवस्था ने भी घुटने टेक दिए हैं। ये माहौल डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया जैसे नारों और अभियानों में निहित आगे बढ़ने की हमारी आकांक्षाओं के एकदम उलट है। अभी तक हम सांप्रदायिक हिंसा और उन्मादी भीड़ के हमलों की खबरों से उबरे भी नहीं थे कि बुजुर्ग, लाचार और दलित ग्रामीण महिलाओं की हत्याओं के समाचार आने लगे हैं।
वृद्ध महिलाओं के साथ अत्याचार के पीछे ठीक वैसी ही मानसिकता काम कर रही है, जिसकी वजह से आए दिन चोटी कटने की अफवाहें फैलती हैं, जिनका अब तक कहीं कोई पुख्ता सुराग नहीं लगा है। सिर्फ अफवाहें हैं, छानबीन करने जाओ तो कुछ हाथ नहीं लगता। कई मामलों में तो ये घटनाएं आपसी मजाक और मनगढ़ंत साबित हुई हैं। जिस तरह करीब दो दशक पहले मुंहनोचवा या मंकीमैन की अफवाहें फैली थीं, अब चोटियां कट रही हैं। यानी इन बरसों में हम वहीं के वहीं खड़े हैं। अफवाहों के काले साये अब भी हमें डराते हैं। या यूं कहें कि आजकल कुछ ज्यादा ही डराते हैं। यह सूचना क्रांति के दौर की अजीब उलटबांसी है।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि चोटी कटाने और डायन के नाम पर महिलाओं पर हमलों की अधिकांश खबरें पिछड़े, कम पढ़े-लिखे ग्रामीण तबके के बीच से आ रही हैं। जाहिर है इनका सबसे आसान शिकार दलित, वंचित समुदाय की बुर्जुग, अकेली और बीमार महिलाएं हैं, जिन्हें आसानी से डायन या चुड़ैल करार दिया जा सकता है। देश के कई राज्यों में यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। राजस्थान में इसकी रोकथाम के लिए कानून भी बन चुका है। डायन बताकर महिलाओं के साथ हुई हिंसा के मामलों की तह में जाएं तो पता चलता है कि किस तरह अंधविश्वासी और उन्मादी भीड़ न्यूनतम मानवीय संवेदना भी खो देती है।
आगरा में मारी गई बुर्जुग महिला पर जब हमला हुआ, तब वह सबेरे शौच के लिए गई थी। लेकिन उसे चोटी काटने वाला साया समझकर गांव के लोगों ने ही बुरी तरह पीट डाला। अजमेर के कादेड़ा कस्बे में महिला को डायन बताकर हत्या करने के मामले में पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया है, उनमें दो महिलाएं भी हैं। इनकी मदद से ही बुजुर्ग महिला को सांकलों से बांधाकर जलते अंगारों से झुलसाया गया। पुलिस और मीडिया के संज्ञान में आने से पहले समाज के कथित पंचों ने ढाई-ढाई हजार रुपए जुर्माना लगाकर मामले को रफा-दफा कर दिया था।
क्या यह वही ग्रामीण समाज और आपसी सद्भाव का ताना-बाना है जिसके बरक्स हम शहरी समाजों को खोखला और निष्ठुर बताते आए हैं?
कहीं कुछ तो सड़ रहा है, जिसकी दुर्गंध तेजी से फैल रही है!
(लेखिका अंबेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं )