संघ इस वर्ष 96 वर्ष एक संगठन के नाते पूरे कर रहा है। वार्षिक अखिल भारतीय बैठक करते हुए कुछ दिशा निर्देशक निर्णय लेना यह परंपरा संघ के दूसरे वर्ष यानि 1926 में ही शुरू हो गई थी। परन्तु जैसे-जैसे संगठन बढ़ता गया, और अखिल भारतीय स्वरुप लेता गया, कुछ पद्धतियाँ जुड़ती गईं और नित्य नूतन आयाम भी जुड़ते गए। सबसे पहली लम्बी महत्वपूर्ण बैठक 1939 में सिन्धी, विदर्भ में हुई जिसमे संघ की शाखा चलाने की अनुशासित नियमावली तैयार की गई। आज्ञाएं संस्कृत में हों, ताकि देश के हर कोने में वह स्वीकार्य हो और सभी जगह एक समान हों। संघ की आज चलने वाली प्रार्थना को लिखना, और कार्यकर्ताओं की श्रेणी इत्यादि को एक स्वरुप दिया गया। समयानुसार कई पद जोड़े गए, कई पद समाप्त किये गए। कई नए आयाम जोड़े गए। इस प्रकार की 8-10 साल में एक विशेष बैठक लेने की प्रक्रिया कुछ काल तक चली क्योंकि संघ उस समय बहुत तरुण संगठन था। उस जैसा कोई और संगठन न होने के कारण, उसे अपनी कार्यपद्धति, बौद्धिक व्यवस्था, संगठन का स्वरुप स्वयं ही तय करना था।
1949 फरवरी में संघ पर पाबंदी लगी थी। जो कारण दिए गए वो सारे झूठे साबित हुए, संघ के शांत सत्याग्रह और उसे मिली प्रशंसा, 77000 स्वयंसेवकों का महीनों तक जेल में रहना, इसके कारण कांग्रेस पशोपेश में पड़ गयी थी कि इस स्वयं-निर्मित समस्या से बाहर कैसे निकले। तब एक कारण ढूंढ़ा गया। कहा गया कि आपके पास लिखित संविधान नहीं है, वह तैयार करें। यह कांग्रेस सोच की विसंगति है कि स्वयं उसका भी संविधान 14 वर्षों के बाद लिखा गया था। परन्तु इस व्यर्थ की तनातनी में न पड़ते हुए, लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया। संघ के सरसंघचालक गुरूजी गोलवलकर ने स्पष्ट किया कि जो हम इतने वर्षों से करते आये हैं उसी को लिखित स्वरुप दिया है। इस संविधान के अंतर्गत अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा को लिखित स्वरुप मिला, प्रतिनिधियों के स्थानीय स्तर पर चुनाव की पद्धति, सरकार्यवाह को चुनने की पद्धति इत्यादि निश्चित हुए। इस संविधान में आने वाले वर्षों में कतिपय परिवर्तन समयानुसार किये भी गए, जो कि संघ के बढ़ते स्वरुप और विविध आयाम जुड़ने के कारण आवश्यक थे।
सरकार्यवाह यानि संघ के जनरल सेक्रेटरी संगठन की नियमित चलने वाली गतिविधियों की जिम्मेदारी उस पर होती है। वो आज की भाषा में कहें तो सीईओ हैं। इसलिए उनका चुनाव हर तीन वर्षों में होता है और प्रतिनिधि सभा के सदस्य उसे चुनते हैं। अतः हम इस पद के महत्व को समझ सकते हैं। सरसंघचालक तत्काल सरसंघचालक द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। परन्तु यह भी उनका व्यक्तिगत निर्णय नहीं होता। इसके लिए वे संगठन के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से सलाह करते हैं। अर्थात इस पद के लिए भी एक वरिष्ठ स्तर पर आम राय बनाई जाती है।
यह सर्व सम्मति या आम राय द्वारा निर्णय लेना यह संघ की सबसे बड़ी शक्ति है। भारत में कोई ऐसी संस्था या संगठन नहीं, जहां फूट न पड़ती हो, जहां झगड़े न होते हों। मात्र संघ बिना टूट-फूट के आगे बढ़ रहा है। इसका रहस्य इस सर्वसम्मति बनाने की प्रक्रिया में है। यह भी कार्यकर्ता निर्माण का भाग है। संघ का नाम, मात्र, स्थापक टोली द्वारा मत विभाजन से तय हुआ था। परन्तु इसके बाद संस्थापक डॉ हेडगेवार ने एक स्वस्थ परंपरा स्थापित की, जिसका आज तक पालन होता है। आपस में मतभेद हो, पर मनभेद न हो, यह भाव संघ में प्रस्थापित किया गया।
शाखा स्तर से ही, कोई भी निर्णय आम राय से हो, जब तक आम राय न हो, निर्णय न लिया जाय। इस कारण से हर निर्णय सभी को स्वीकार्य होता है। यह कार्य पद्धति, एक तरह से फिल्टर का काम करती है, जिसमे सबको सौहार्द्र के साथ लेकर चलने वाला, कार्यकर्ता ही आगे बढ़ पाता है। कहीं कोई व्यक्तिगत मित्रता या विशेष स्नेह के कारण आगे बढ़ने की संभावना ही नहीं रहती। इस व्यक्ति निरपेक्ष संगठन शास्त्र के कारण ऐसा विशाल संगठन खड़ा और बढ़ा है। इसीलिए सभी कार्यकर्ता बिना किसी भेदभाव के, बिना जाति-पंथ और भाषा के विचार से आगे बढ़ते हैं। सरकार्यवाह इसी कार्य पद्धति से निखरता हुआ शीर्ष पर पहुंचता है। अतः जो लोग इस पद के चयन को राजनीति से जोड़ते हैं, वे अज्ञानता वश या अधिक राजनीतिक रंग चढ़ने के कारण ऐसा करते हैं। सभी सरसंघचालक कुछ समय तक सरकार्यवाह रहे हैं, अर्थात इस अग्नि परीक्षा से उत्तीर्ण हुए हैं।
संघ ऐसा संघठन है, जो नित्य नए प्रयोग करता रहा है. इसमें शीर्ष टोली का बहुत बड़ा हाथ होता है। सभी कार्यकर्ता दिन रात प्रवास करते हैं। अतः ऐसी जिम्मेदारियां अधिक से अधिक तरुण और प्रौढ़ कार्यकर्ता ही संभालें इसका प्रयत्न संघ में रहता है। आम समझ के विरुद्ध 60% संघ के स्वयंसेवक 40 वर्ष की आयु से कम हैं। लगभग सभी प्रांत प्रचारक 40 की आयु के आस-पास हैं। यदि औसत उम्र गिनी जाय तो सभी अखिल भारतीय संगठनों में भी सबसे तरुण टोली संघ की ही होगी। नित्य नए प्रयोग संघ में होते रहते हैं, इसका कारण इसका नित नूतन तारुण्य है। वय और स्वास्थ्य के कारण अपने आप को पद मुक्त करने की परंपरा भी संघ ने स्थापित की है।
दत्ताजी होसबले और उनकी नयी टोली इसी कार्यपद्धति और निस्पृह, व्यक्तित्व मुक्त संगठन प्रक्रिया की देन हैं। संघ का कार्यकर्ता या प्रचारक जिस क्षेत्र में जाता है, उसमे प्रयत्नपूर्वक उत्तम कार्य करता है। उसके चयन या चुनाव में कोई व्यक्तिगत सोच आड़े नहीं आती और यह दिखता भी है। दत्ताजी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् में कई वर्ष कार्य करने के बाद संघ में वापस लौटे थे। दोनों संगठनों में उन्होंने उस क्षेत्र के अनुसार श्रेष्ठ काम किया। संघ प्रेरित विविध संगठानों में हर भौगोलिक और संगठन स्तर पर वर्षों से यह होता आया है। यह संगठन के लचीलेपन को दर्शाता है।
जो समाजशास्त्री या संगठन शास्त्र के विचारक संघ की इस विशेषता को समझ पाए हैं, वह संघ के निर्णयों और कार्य का सही विश्लेषण कर पाए हैं। जिनकी सोच राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाती, उनका विश्लेषण उथला ही रह जाता है। इसलिए संघ पर राजनीति से परे विश्लेषण विरले विद्वान ही कर पाते हैं। राजनीति राष्ट्र की और समाज की उन्नति का मात्र एक अंश है, सर्वेसर्वा नहीं है, यह संघ की स्पष्ट सोच रही है, इसलिए संघ के स्वयंसेवक समाज के हर आयाम पर काम करते हैं। संघ को समझने के लिए इसके विश्लेषकों को भी इस स्वयं निर्मित राजनीतिक सीमा से बाहर आना होगा।
(लेखक कॉलमिस्ट हैं और उन्होंने आरएसएस पर छह पुस्तकें लिखी हैं। इसके अलावा उन्होंने आरएसएस पर पीएचडी भी की है)