पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट के असाधारण फैसले में ईसाई महिला आसिया बीबी को ईशनिंदा के आरोपों से बरी कर दिया गया। इसके बाद पाकिस्तान में हिंसा भड़क उठी। पेशावर, लाहौर और कराची समेत कई प्रमुख शहरों में हिंसा की घटनाओं के साथ धार्मिक चरमपंथियों ने कई दिनों तक पूरे देश को बंधक बना लिया। न्यायाधीशों और सशस्त्र बलों के वरिष्ठ अधिकारियों के लिए उग्रपंथियों द्वारा अभद्र भाषा का प्रयोग करना और उन्हें जान से मारने की धमकी देना सबसे ज्यादा विचलित करने वाला था। सारे आरोप-प्रत्यारोप बेबुनियाद हो गए क्योंकि न्यायाधीशों, सत्ता में बैठे लोगों और सेना के अधिकारियों का कट्टरपंथी खून मांग रहे थे। प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा राष्ट्रीय टेलीविजन पर संदेश का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा और दंगाइयों ने शांति की किसी भी अपील को नजरअंदाज कर दिया।
इमरान खान की अगुआई वाली सरकार इस बात से पूरी तरह अनजान थी कि अशांत स्थिति से कैसे निपटना है, जिसकी वजह से आसिया के वकील को परिवार समेत सुरक्षा के लिए पाकिस्तान छोड़ना पड़ा। आसिया के पति ने भी जान से मारने की धमकियों के बीच सुरक्षित जगह पर शरण ले ली। उनके पास अपने जीवन को लेकर डर के वैध कारण हैं क्योंकि प्रारंभिक सुनवाई में आसिया बीबी के एक अन्य वकील सलमान तासीर को 2011 में उनके ही बॉडीगॉर्ड ने मार दिया था।
सबसे बुरा है कि इससे इमरान सरकार के खराब शासन व्यवस्था की तस्वीर सामने आई है जो सुरक्षा की भावना का संचार नहीं कर सकी। डच सरकार को आसिया बीबी के बचाव के लिए आना पड़ा। उसकी सुरक्षा के लिए उसे एक स्पेशल एयरक्राफ्ट से नीदरलैंड ले जाया जा रहा है। पाकिस्तान के लिए यह दु:खद टिप्पणी है कि सेना के समर्थन के बावजूद इमरान खान का प्रशासन एक जीवन की सुरक्षा करने में नाकाम रहा सिर्फ इसलिए कि वह अल्पसंख्यक है।
सुरक्षा प्रदान करने में 'अक्षमता', चाहे वह झूठी हो या वास्तविक, इससे पता चलता है कि त्यौहारों पर शुभकामनाएं देने (जैसा कि हाल ही में दीपावली पर हुआ) के बावजूद सरकार अल्पसंख्यकों की परवाह नहीं करती। आतंकवाद को खत्म करने के लिए इसके दावे भी भरभराकर गिर पड़े हैं।
इससे टीएलपी (तहरीके लबाइक पाकिस्तान) के साथ सरकार के गठजोड़ का भी खुलासा हुआ है, जो आसिया के बरी होने पर हिंसक विरोध प्रदर्शन में सबसे आगे था। इससे ना सिर्फ इमरान खान और उनकी पार्टी के लोगों की टीएलपी के साथ घनिष्ठता सामने आई है बल्कि इमरान चुनाव से पहले भी टीएलपी की आलोचना करने से बचते रहे थे। इस तरह का शुतुरमुर्गी रवैया और इमरान खान की तरफ से टीएलपी को लेकर जड़ता से सत्तारूढ़ पार्टी पर संदेह पैदा होता है कि सरकार आतंकवाद या धर्म से जुड़ी हिंसा को लेकर (जैसा आसिया मामले में हुआ) गंभीर है भी या नहीं।
इस बीच, सामान्य रूप से पाक मीडिया ने फैसले से संबंधित हिंसा और सरकार के झुकने को लेकर काफी सवाल उठाए हैं। एक बात सोचने लायक है। अगर आसिया को वैकल्पिक शरण के लिए देश छोड़ने की इजाजत दी गई तो यह कट्टरपंथी ताकतों की जीत मानी जाएगी। पाकिस्तान में कट्टरपंथी और अल्पसंख्क विरोधी यही मानेंगे कि उन्होंने एक अंक हासिल कर लिया।
हालांकि, पाकिस्तानी सरकार गलत है अगर उसे लगता है कि उसकी समस्याएं हमेशा के लिए समाप्त हो गई हैं। कल यदि किसी अहमदिया, किसी हिंदू, किसी शिया, पारसी, बुद्धिस्ट या सिख पर ईशनिंदा का आरोप लगता है और उसे बरी कर दिया जाता है तो क्या राज्य लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार से धार्मिक कट्टरपंथियों को कानून अपने हाथ में लेने की अनुमति देगा? या राज्य पीड़ितों के लिए सुरक्षित मार्ग और पुनर्वास के लिए हॉलैंड जैसे उदार और सहिष्णु देशों को प्रोत्साहित करेगा? राष्ट्रीय डेटाबेस और पंजीकरण प्राधिकरण (एनएडीआरए) के उपलब्ध आंकड़ों (2012) के अनुसार, हिंदुओं की जनसंख्या 1,414,327, ईसाई 1,270,051, अहमदिया 1,25,681, बहाई 33,734, पारसी 4020, और बौद्ध 1492 है। इन सबके अलावा शिया भी हैं, जिन्हें सुन्नी संगठनों द्वारा अक्सर शिया मस्जिदों के अंदर या मोहर्रम के जुलूसों के दौरान मार दिया जाता है। राज्य इनकी रक्षा करने में असफल रहा है। पिछले साल सिंध प्रांत (झूलेलाल) में एक प्रमुख सूफी केंद्र निशाने पर आया था, जिसमें कई निर्दोष लोगों की जान गई।
सुरक्षित मार्ग देना एक बुरी प्रवृत्ति है। इमरान खान का कद बढ़ता अगर उन्होंने सार्वजनिक रूप से आसिया को विदेशी देश में आश्रय लेने से रोका होता। एक अपील से ही काम बन जाता। उन्होंने शायद पहले से ही आलोचना में घिरी अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को हासिल करने का एक अच्छा मौका खो दिया।
ऐसा लगता है कि आज पाकिस्तानी समाज धार्मिक-राजनीतिक समूहों खासकर लबाइक की पकड़ में है। इसे खुद को धर्मतंत्र की जंजीरों और कट्टरपंथियों के मनमाने रवैये से खुद को मुक्त करना है। केवल तभी यह एक 'नए पाकिस्तान' की तरफ इंच दर इंच आगे बढ़ सकता है।
(लेखक सुरक्षा विश्लेषक, स्वतंत्र स्तंभकार हैं जो अक्सर सुरक्षा संबंधी सामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं.)