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प्रथम दृष्टि: जो जीता वही बेहतर!

जिस देश में इतनी विविधता हो और जहां हर चुनाव क्षेत्र के स्थानीय मुद्दे अलग-अलग होते हों, वहां चुनाव...
प्रथम दृष्टि: जो जीता वही बेहतर!

जिस देश में इतनी विविधता हो और जहां हर चुनाव क्षेत्र के स्थानीय मुद्दे अलग-अलग होते हों, वहां चुनाव परिणाम की भविष्यवाणी करना बेशक मुश्किल है

चार जून को क्या होगा? इस वक्त देश में सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला सवाल यही है। जितने लोग उतने आकलन। लेकिन, इसका सटीक जवाब किसी के पास नहीं। सिर्फ अनुमान के घोड़े दौड़ाए जा सकते हैं। दुनिया के सबसे पुराने गणतंत्र के मतदाताओं के मन को आसानी से नहीं पढ़ा जा सकता। वह किस मुद्दे पर किसे अपना वोट देता है, यह सिर्फ वही जानता है।

हर आम चुनाव के बाद यह रहस्य गहराता है कि जनता ने किस पार्टी या गठबंधन के पक्ष में मुहर लगाई है। इस बार भी यह सस्पेंस बरकरार है कि चुनाव परिणामों की घोषणा के दिन यानी अगले महीने 4 जून को क्या होने वाला है। चर्चाओं का बाजार गरम है कि क्या लगातार तीसरी बार जीत का सेहरा बांधकर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में फिर से शपथ लेने वाले हैं? या इस बार कांग्रेस दस वर्षों के इंतजार के बाद केंद्र की सत्ता में वापसी करने जा रही है और राहुल गांधी या कोई अन्य कांग्रेस का नेता सरकार का मुखिया बनने जा रहा है? या फिर इन दोनों संभावनाओं से इतर कोई तीसरा चेहरा किसी मिलीजुली सरकार का गठन करने जा रहा है, जैसा कभी एच.डी. देवेगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल ने नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध में किया था।

दरअसल शेयर मार्केट और सट्टा बाजार से लेकर भविष्यवक्ताओं, मीडियाकर्मी और चुनाव विश्लेषकों के अपने-अपने अनुमान होते हैं। कुछ आकलन जमीनी हकीकत को समझने के लिए विभिन्न चुनावी क्षेत्रों का दौरा करने के बाद किए जाते हैं तो, कुछ विवेचनाएं यथार्थ से परे वातानुकूलित कमरों में बैठकर की जाती हैं। अलग-अलग माध्यमों की मदद से कुछ लोग जनता के मूड को समझने की कोशिश करते हैं, तो कुछ पिछले चुनावों के आंकड़ों का बारीकी से विश्लेषण कर भविष्यवाणी करते हैं। जाहिर है, कुछ तीर निशाने पर लगते हैं, तो कुछ निशान से एक फर्लांग दूर गिरते हैं।

प्रथम दृष्टया, चुनाव परिणामों की भविष्यवाणी करना खतरे से खेलने जैसा है। हालांकि यह कहना गलत होगा कि चुनाव विश्लेषण हमेशा अंधेरे में तीर चलाने जैसा होता है। कई बार निशाना इतना सटीक बैठता है कि लोग हतप्रभ रह जाते हैं। देश के पहले और दूसरे आम चुनाव में किसी के लिए भी यह अनुमान लगाना कठिन न था कि नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव जीतेगी। बांग्लादेश युद्ध के बाद इंदिरा गांधी की जीत के बारे में भविष्यवाणी करना उतना ही आसान था, जितना इमरजेंसी के बाद उनकी हार के बारे में। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के लिए उमड़ी सहानुभूति लहर के मद्देनजर यह समझना मुश्किल न था कि सत्ता में कौन आ रहा है। लेकिन, इन्हें अपवाद ही समझा जा सकता है। राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत के बाद कौन अनुमान लगा सकता था कि पांच साल बाद वही जनता उन्हें सत्ता से बेदखल कर सकती है। 2004 में तो अधिकतर विश्लेषक यह आकलन नहीं कर सके कि ‘इंडिया शाइनिंग’ स्लोगन के इर्दगिर्द रचे गए चुनाव प्रचार के केंद्र में रहे भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज को पराजय का सामना करना पड़ सकता है।

दरअसल जिस देश में इतनी विविधता हो और जहां हर चुनाव क्षेत्र के स्थानीय मुद्दे अलग-अलग होते हों, वहां चुनाव परिणाम की भविष्यवाणी करना निश्चित रूप से मुश्किल है। शायद यही वजह है कि आजकल अधिकतर पार्टियां चुनाव पूर्व सर्वेक्षण कराके जनता का मूड भांपने की कोशिश करती हैं और उससे हासिल फीडबैक पर वह उम्मीदवारों का चयन करती है। भाजपा इसमें अन्य पार्टियों से आगे रही है। पिछले कई चुनावों में पार्टी ने केंद्रीय मंत्री और उनके परिजनों सहित कई सांसदों का टिकट काटा, तो कई अन्य सांसदों के चुनाव क्षेत्र बदले गए। उनकी जगह नए चेहरों को मैदान में उतारकर एंटी-इनकम्बेंसी से बचने की कोशिश की गई, जिससे उसे फायदा भी हुआ। 

जनसंख्या और क्षेत्रफल के आधार पर देश का अधिकतर संसदीय क्षेत्र काफी विशाल है। इसलिए सर्वे के लिए कुछ पार्टियां स्वतंत्र रूप से कार्य कर रही संस्थाओं की भी मदद लेती हैं। पिछले एक दशक में प्रशांत किशोर जैसे चुनावी विश्लेषकों का प्रादुर्भाव इसी कारण हुआ। लेकिन तमाम रणनीतियों के बावजूद, चुनावों में जीत आखिरकार किसकी होगी यह बताने का अधिकार आम जनता ने अपने हाथ में ही रखा है। पाश्चात्य देशों में ओपिनियन और एग्जिट पोल के अनुमान और चुनाव के अंतिम परिणाम कुछेक मौकों पर उलटे निकले हैं लेकिन भारत में ये अक्सर उलटे निकलते हैं, क्योंकि अंतिम समय तक जनता नहीं बताती कि किसे सत्ता के चाबी देने का मन बनाया है।

इसलिए बेहतर यही है कि 4 जून को चुनाव परिणामों का इंतजार किया जाए। देश में हुकूमत नरेंद्र मोदी के हाथों में बरकरार रहेगी या जनता ने परिवर्तन के लिए अपना मन बना डाला है, यह उसी दिन पता चलेगा। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि जो भी देश की बेहतरी करने में ज्यादा सक्षम होगा, जनता उसी का चयन करेगी। तब तक हम सभी भविष्य वक्ताओं को सिर्फ ‘मे द बेस्ट कैंडिडेट विन (सबसे बेहतर ही जीते!)’ कहना चाहिए।

 

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