असल में हम बात कर रहे हैं फसल बीमा की। किसी तरह की प्राकृतिक आपदा और दूसरे कारणों से फसल को होने वाले नुकसान की स्थिति में किसानों को वित्तीय सुरक्षा देने के मकसद से फसल बीमा योजना शुरू की गई। 1985 से लेकर अभी तक देश में नौ फसल बीमा योजनाएं लागू की गई हैं और उनमें सबसे ताजा है प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना। इसे 2016 के खरीफ के सीजन से लागू किया गया है। इस योजना में प्रीमियम की दरें किसान के लिए काफी कम रखी गई हैं, वहीं नुकसान की स्थिति में मिलने वाले दावे के प्रावधानों में बेहतर सुधार किए गए हैं।
असल में फसल कर्ज देने वाले बैंकों के लिए फसल का बीमा करना अनिवार्य कर दिया गया है। किसान जब कर्ज लेता है तो बैंक फसल बीमा का प्रीमियम काट लेते हैं और बीमा कंपनी को दे देते हैं। लेकिन इसमें व्यावहारिक सवाल यह है कि कर्ज देते समय बैंक किसानों की जमीन के मालिकाना हक और उसके आधार पर तय रकम की सीमा के अनुपात में ही कर्ज देते हैं। इस कर्ज का इस्तेमाल किसान कौन-सी फसल के लिए खाद, बीज या दूसरी जरूरी चीजें खरीदने के लिए करेगा, इसको लेकर अधिकांश मामलों में स्थिति साफ नहीं होती है। ऐसे में कई बार ऐसी फसलों का भी बीमा कर दिया गया जिनके लिए अभी तक प्रीमियम की दर ही तय नहीं है।
व्यावहारिकता की कमी और लालफीताशाही के चलते यह स्कीम किसानों का भला नहीं कर पा रही है। इसमें पारदर्शिता की घोर कमी है। एक बड़ा भ्रम यह भी बना हुआ है कि यह योजना फसल को होने वाले पूरे नुकसान को कवर करती है जबकि वास्तविकता यह है कि पूरी स्कीम स्केल ऑफ फाइनेंस के एक फार्मूले पर चलती है। उसी को आधार बनाकर प्रीमियम तय होता है। यानी नुकसान की स्थिति में फसल की लागत के लिए तय राशि के ही दावे का भुगतान होगा। इसके उलट किसान को उक्वमीद होगी कि फसल बरबाद हो जाती है तो पूरे नुकसान की भरपाई होगी, जो वास्तविकता के परे है।
खरीफ 2016 में शुरू की गई योजना के तहत गैर कर्ज वाले किसान भी बीमा करा सकते हैं। लेकिन कुछ राज्यों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो अभी भी केवल पांच फीसदी किसान ही ऐसे हैं जो गैर कर्ज वाले बीमा के लाभार्थी हैं। हालांकि फसल बीमा के तहत कवरेज तेजी से बढ़ी है और यह आंकड़ा करीब चार करोड़ किसानों तक पहुंच गया है जो देश में कुल किसानों की तादाद का करीब 30 फीसदी है। लेकिन फसल बीमा योजना को लेकर जिस तरह से महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक (कैग) की ताजा रिपोर्ट में टिप्पणी की गई है वह चिंता का विषय है। इसमें कहा गया है कि फसल बीमा किसानों के लिए फायदेमंद होने की बजाय बीमा कंपनियों के लिए ज्यादा फायदेमंद साबित हो रही है। हालांकि यह टिप्पणी पुरानी योजना के लिए थी। लेकिन चौंकाने वाली है और वास्तविकता के काफी करीब है।
सरकार ने नई योजना का दायरा बढ़ाने के लिए निजी कंपनियों को भी शामिल किया है और ये राज्यों में बोली लगाकर इसमें शामिल हो रही हैं। इसके चलते बीमा कंपनियों को प्रीमियम तो खूब मिल रहा है लेकिन कुल प्रीमियम के मुकाबले किसानों को दावों का भुगतान बहुत कम हुआ है। साथ ही नई योजना में बीमा प्रीमियम सब्सिडी में राज्य आधा हिस्सा देते हैं। ऐसे में कई राज्यों में तो कृषि बजट का एक बड़ा हिस्सा प्रीमियम सब्सिडी में जाने लगा है। फसल खराब होने की स्थिति में क्रॉप कटिंग एक्सप्रीमेंट (सीसीई) का जिम्मा भी राज्यों का है जिसमें राज्यों की एजेंसियां देरी करती हैं। योजना के साथ प्रधानमंत्री का नाम जुड़ा होने के चलते भी कुछ राज्य इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं क्योंकि प्रीमियम सब्सिडी में बराबर की हिस्सेदारी के बावजूद राजनैतिक फायदा केंद्र को ही मिलेगा।
अभी तक का अनुभव और तथ्य बहुत बेहतर तस्वीर पेश नहीं करते हैं। ऐसे में सरकार को सोचना पड़ेगा कि देश के किसानों को वित्तीय संकट से बचाने के लिए जोर-शोर से शुरू की गई योजना का फायदा किसानों को वाकई मिल भी रहा है या केवल प्रचार तंत्र के जरिए बेहतर तस्वीर पेश की जा रही है। बात भरोसे की है। जिस तरह के तथ्य सामने आ रहे हैं वे भरोसे को मजबूत नहीं करते हैं और अगर भरोसा कायम नहीं हुआ तो किसानों की बेहतरी के लिए की गई एक पहल रास्ते में ही गुम हो जाएगी। उस स्थिति में फसल बीमा का मकसद बीमा कंपनियों और बैंकों के लिए फायदे की फसल के रूप में बदलने का आरोप लगने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।