यह प्रश्न भारतवर्ष की दासता के युग में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उठाया था। अपने अतीत और वर्तमान ही नहीं, बल्कि उन्होंने ‘और क्या होंगे अभी’ कहकर भविष्य का प्रश्न भी खड़ा कर दिया था। ‘भारत भारती’ नामक काव्य में व्यक्त ये प्रश्न इसलिए उपयुक्त और सार्थक थे क्योंकि तब हम अंग्रेजों के गुलाम थे। मगर यदि इसी प्रकार के प्रश्न पुनः उठ रहे हों, इक्कीसवीं शताब्दी के स्वतंत्र भारतवर्ष में, तब तो यह चिंताजनक है। चिंताजनक ही नहीं, बल्कि भयावह भी। अधिक गहराई में जाएं तो विषाक्त भी।
महानगर दिल्ली का वातावरण भांति-भांति के प्रदूषणों की वजह से इतना विषाक्त हो गया है कि घर से बाहर निकलना और सांस लेना लोगों के लिए दूभर हो गया है। इसकी चिंता समूची व्यवस्था को है। इस समस्या के निवारण के उपाय भी खोजे ओर सुझाए जा रहे हैं। मगर उस प्रदूषण और उस विषाक्त वातावरण से मुक्ति का कौन-सा उपाय है, जिसके ‘कारण’ स्वयं ही प्रदूषित और विषाक्त हैं।
तात्पर्य यह कि हम दासता के युग की अपेक्षा स्वाधीनता के युग में ज्यादा असहाय हैं, क्योंकि हमारे सामने उक्त समस्या से मुक्त होने का कोई उपाय है ही नहीं, क्योंकि ‘बाहृय कारणों’ से निबटने का उपाय तो हो सकता है, मगर ‘आंतरिक कारणों’ से निबटना कठिन ही नहीं, असंभव होता है।
वस्तुतः ऐसे प्रदूषण के मूल में मुख्यतः ‘राजनीति’ होती है। और भारतवर्ष जैसे इस महादेश का दुर्भाग्य है कि यहां की राजनीति इतनी प्रदूषित और विषाक्त हो चुकी है कि उसे किसी भी प्रकार के ‘स्वच्छता अभियान’ से स्वच्छ नहीं किया जा सकता। यह ऐसा ‘कचरा’ है, जिसे कोई भी ‘झाड़ू’ अथवा कोई भी ‘वैक्युम-क्लीनर’ साफ नहीं कर सकता।
कुछ लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है, इसलिए उपर्युक्त विचार का स्पष्टीकरण आवश्यक है। इसके लिए यहां केवल कुछ प्रश्न प्रस्तुत किए जा रहे हैं, उत्तर पाठकगण स्वयं तलाशें।
1. स्वाधीन भारत के इतिहास में क्या कभी ऐसा हुआ है, कि देश के समस्त महत्वपूर्ण पदों-राजनैतिक अथवा अर्द्ध राजनैतिक पदों पर एक ही पार्टी अथवा समान विचारधारा के लोगों को बैठा दिया जाए या फिर उनकी नियुक्ति कर दी जाए?
2. स्वाधीन भारत के इतिहास में क्या कभी ऐसा हुआ है, कि देश का कोई एक वर्ग यह चुनौती दे कि संविधान चाहे कुछ भी कहे और सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे जो भी हो, होगा वही जो हम चाहेंगे।
3. स्वाधीन भारत के इतिहास में क्या कभी ऐसा हुआ है, कि ‘सही राष्ट्रभक्त’ की परिभाषा की गई हो और ऐसी शर्तें लगाई गई हों कि जो लोग इन शर्तों का पालन नहीं करेंगे, उन्हें देश छोड़कर बाहर जाना होगा।
4. आज के समय से पहले क्या कभी यह कहा गया था, कि भारतवर्ष एक हिंदू राष्ट्र है? और यह, कि इस देश के मुसलमान भगवान राम के वंशज हैं? आश्चर्य तो यह है कि किसी ने भी यह प्रश्न नहीं उठाया कि ‘वंशज’ शब्द का अर्थ क्या है? ‘वंशज’ कोई साधारण शब्द नहीं है, जिसे किसी पर भी थोप दिया जाए। मुसलमानों को तो छोड़िए, क्या इस देश के सारे हिंदू ‘भगवान राम के वंशज’ हैं? यदि होंगे भी तो वे सिर्फ क्षत्रिय ही होंगे। अन्य जातियों के जो लोग स्वयं को भगवान राम का वंशज मानते हैं, वे सब राम के वंश को कलंकित कर रहे हैं। कहां राम जैसे धीर, गंभीर और मर्यादा पुरुषोत्तम और कहां राम के तथाकथित वंशज!
‘वाल्मीकि रामायण’ के अनुसार तो राम ‘इक्ष्वाकु वंश’ में उत्पन्न हुए (इक्ष्वाकुवंशे प्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः) तथा राजा दिलीप के पुत्र ‘रघु’ के वंश में पैदा हुए। जहां तक ‘राम के वंशजों’ की बात है, तो महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘रघुवंश’ नामक महाकाव्य के अंतिम चार सर्गों में उनका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। अतः उनके बाद के वंशजों की सूची बनाए बगैर यह कहना कठिन है कि वर्तमान समय में वे कौन-से भाग्यशाली हैं जो सही अर्थों में ‘राम के वंशज’ हैं। हां, अगर शोध किया जाए तो यह मालूम किया जा सकता है कि वह कौन-सा क्षत्रिय था जो धर्मांतरण करके मुसलमान बन गया था-जो कि वास्तव में भगवान राम का वंशज था? यह सब ठीक है, किंतु अनर्गल प्रलाप सिर्फ ‘भड़काऊ’ होते हैं और उनका खमियाजा पूरे देश को उठाना पड़ता है।
5. वर्तमान समय से पूर्व क्या इतने बड़े पैमाने पर नामों में परिवर्तन किए गए हैं? नगरों से लेकर सड़कों, रेलवे स्टेशनों, कस्बों, बाजारों आदि के नाम धड़ाधड़ बदले जा रहे हैं। अनेक नामों के बदले जाने की योजनाएं बन रही हैं। आगे चल कर संभव है, गांवों आदि के नाम भी बदल दिए जाएं।
निस्संदेह यह कोई नई बात नहीं है। नाम पहले भी बदले गए हैं। मगर इस प्रकार किसी एक पक्ष को लक्ष्य करके तो शायद ही कभी इतने नाम बदले गए हों।
तर्क यह दिया जा रहा है कि इस प्रकार हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को वापस लौटा रहे हैं। तो, क्या यही हमारी सांस्कृतिक पहचान रही है? हमारी पहचान तो ‘विविधता में एकता’ की रही है, ‘एकरूपता’ की नहीं। जबकि आज हम अपनी संस्कृति को ‘एकरूपता’ की ओर धकेल रहे हैं। सबसे हास्यास्पद तो यह जानकर लगा कि ‘उर्दू बाजार’ को ‘हिंदी बाजार’ का नाम दिया जाएगा। अरे भई, नाम बदलने से पहले कुछ तो सोच-विचार कर लेना चाहिए। जिन दिनों किसी इलाके को ‘उर्दू बाजार’ नाम दिया गया, उन दिनों ‘उर्दू’ की पहचान भाषा के रूप में नहीं थी। ‘उर्दू’ तो तुर्की भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- ‘फौजी छावनी’ और जिस फौजी छावनी के इर्द-गिर्द बाजार बन गया, वह उर्दू बाजार कहलाने लगा। वैसे ‘बाजार’ शब्द भी बाहर का है। यह शब्द फारसी में भी है और तुर्की में। इसलिए यदि नाम बदलना ही है तो ‘हिंदी बाजार’ नहीं, बल्कि ‘हिंदी हाट’ किया जाना चाहिए।
हां, ‘नाम-परिवर्तन’ की इस राजनीति को ‘मुस्लिम-मुक्त भारत’ से जोड़ना कतई उचित नहीं है।
6. इस महादेश में विभिन्न प्रकार के राजनैतिक दल पहले भी थे और आज भी हैं। ये दल चुनाव के मैदान में एक-दूसरे के विरुद्ध आकर खड़े हो जाते थे, किंतु एक-दूसरे को ‘शत्रु’ नहीं समझते थे। इसके विपरीत सत्तासीन दल दूसरे राजनैतिक दल या दलों के महत्वपूर्ण नेताओं का इतना सम्मान करते थे, कि उन्हें राज्यसभा का सदस्य तक मनोनीत कर देते थे। उदाहरण के रूप में डॉ. राममनोहर लोहिया को स्मरण कर लेना चाहिए। क्या किसी राजनैतिक दल का व्यक्ति या प्रवक्ता किसी अन्य दल के प्रमुख नेता का मजाक उड़ाता था? क्या वह उसे अपना शत्रु समझकर उसके प्रति अपशब्दों का प्रयोग करता था? क्या उसकी जाति, उसके धर्म अथवा उसकी नस्ल पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करता था? क्या भारतवर्ष की नागरिकता ग्रहण कर लेने वाले दूसरे देश के व्यक्ति को ‘विदेशी’ कह कर उसे अपमानित करता था? मुझे अच्छी तरह याद है कि ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के एक कार्यक्रम में बेल्जियम मूल के डॉ. फादर कामिल बुल्के को, जिन्होंने न केवल भारत की नागरिकता ले रखी थी बल्कि ‘रामकथा’ पर उनके द्वारा किया गया शोधकार्य ‘अन्यतम’ माना गया था, जब कार्यक्रम के संचालक ने ‘हिंदी साहित्य के विदेशी विद्वान’ कहकर संबोधित किया तब उन्होंने अपने वक्तव्य के आरंभ में ही अत्यंत क्षोभ के साथ कहा था, कि जब तक ऐसी मानसिकता रहेगी तक तक हिंदी का विकास असंभव है।
मैं उन दिनों हिंदी साहित्य में एमए कर रहा था और इस कार्यक्रम में एक श्रोता के रूप में विद्यमान था। इसका उल्लेख विशेष रूप से इसलिए कर रहा हूं कि मुझे भी एक नहीं, अपितु अनेक बार ‘हिंदी के मुसलमान विद्वान अथवा मुसलिम लेखक’ जैसे विशेषणों के दंश बार-बार झेलने पड़े हैं। मैंने तो सोचा था कि यह मनोवृत्ति धीरे-धीरे बदल जाएगी, मगर हुआ उलटा। अब तो स्थिति ऐसी है कि –
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।
मगर प्रश्न यह है कि हम करें भी तो क्या? ऐसे ‘कुसमय’ में जीने से अच्छा तो मर जाना है। मगर ऐसा सोचते ही एक अन्य प्रश्न फन फैला कर खड़ा हो जाता है कि-
जी में आता है यही मेरे कि मर जाएं हम
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएं हम।
राजनीति तो राजनीति है ही, मगर आज का समाज? वह भी तो पहले जैसा नहीं रहा। हम जानते हैं कि हमारा समाज वैविध्यपूर्ण है। इसमें धर्मगत और जातिगत विभिन्नताएं हैं। मगर ‘विविधता में एकता’ तो हमारा मूल मंत्र रहा है। इसीलिए तमाम विभिन्नताओं के बावजूद एक ऐसी ‘एकता’ थी जो अंतःसलिला की भांति पूरे समाज के भीतर प्रवाहित थी। मैं तो गांव में पैदा हुआ (वैसे, अधिकांश लोग गांव में ही पैदा हुए हैं) इसलिए गांव का अनुभव बता रहा हूं। गांव में यदि किसी की मृत्यु हो जाती थी-चाहे वह किसी भी धर्म अथवा जाति से संबंधित हो-तो पूरे गांव में चूल्हा नहीं जलता था। गांव में यदि किसी तिथि को किसी का विवाह होना तय होता था और दुर्योगवश उसी तिथि को किसी की मृत्यु हो जाती थी तो विवाह वाले घर में सिर्फ विवाह की रस्में होती थीं, गाजा-बाजा नहीं होता था। गांव में छुआछूत बहुत हुआ करती थी, मगर हृदयों में उसका वास नहीं होता था।
मैं अपना अनुभव बताता हूं। मेरा गांव ब्राह्मण-बहुल है और मैं ठहरा मुसलमान। लेकिन चूंकि मैंने हिंदी के साथ-साथ संस्कृत भी पढ़ रखी थी, इसलिए ब्राह्मणों के बीच मेरा बहुत सम्मान था। मेरे गांव में एक ब्राह्मण को पाणिनि के व्याकरण अर्थात् ‘सिद्धांत कौमुदी’ का अच्छा ज्ञान था। मैंने भी ‘लघु सिद्धांत कौमुदी’ पढ़ रखी थी। अतः कभी-कभी हम दोनों संस्कृत व्याकरण को लेकर खूब जिरह-बहस करते थे (‘मुखड़ा क्या देखे’ नामक अपने उपन्यास में मैंने इसका विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है) मगर ‘छुआछूत’ के नाते वे मेरे घर का पानी भी नहीं पीते थे, जबकि मैं उनके घर भरपेट भोजन किया करता था। एक बार हुआ क्या, कि मैंने एक शर्त रख दी, यदि आप मेरे घर आकर खाएंगे-पिएंगे तभी मैं आपके यहां खाऊंगा-पियूंगा। परिणामतः मैंने उनके घर का खाना-पीना छोड़ दिया। अर्थात् यदि आपके लिए मैं अछूत, तो मेरे लिए आप अछूत।
इसके बावजूद हमारे संबंधों में कोई खटास नहीं आई।
मगर जमाना बदला। छुआछूत की मनोवृत्ति गांव-घर में तो रही, मगर बाहर नहीं। चायखानों और होटलों आदि में तो एकदम गायब। यही नहीं, ब्राह्मण-परिवारों के लड़के मांसाहारी भी हो गए। अर्थात् सब कुछ बदल गया। छुआछूत की मानसिकता लगभग समाप्त-सी हो गई। मगर, जैसा कि कवि ‘रहीम’ ने लिखा हैः
ऐसी प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन
बाहर तो एकै दिखै, भीतर फांकें तीन।
अर्थात् बाहरी भेदभाव तो समाप्त हो गया, मगर वह अंतस्तल में धंस गया। और परिणाम यह हुआ कि बाहर जो दिखता है, वह भीतर नहीं है। बाहर ‘एकता’ है और भीतर ‘सांप्रदायिकता’ है।
पहले जब भी साहित्यिक आयोजन होता था, हम लेखक लोग अपने व्याख्यानों में बड़े गर्व के साथ कहा करते थे कि सांप्रदायिकता सिर्फ शहरों में है, गांवों में नहीं। गांवों भी अभी भी आपसी भाईचारा है। लेकिन कुछ ही अर्से बाद हमारा यह भ्रम टूट गया। सांप्रदायिकता ने तो अपने पांव चारों तरफ पसार लिए हैं। क्या गांव, क्या कस्बा, क्या नगर, क्या महानगर सर्वत्र।
यानी जितनी विषैली राजनीति हो गई है, उससे कहीं ज्यादा ही हमारा समाज विषैला हो गया है। वह समाज, जिसमें रहने के लिए हम बाध्य हैं। सांप्रदायिकता के पहले भी दो नारे होते थे, अब भी हैं। मगर वे बदल गए हैं। पहले के नारे थे, ‘हर हर महादेव’ और ‘अल्ला हो-अकबर।’ अब के नारों में एक तरफ ‘जय श्रीराम’ है तो दूसरी तरफ वही ‘अल्ला हो-अकबर’ बख्तमारे मुसलमान अपना कोई दूसरा नारा गढ़ ही नहीं पाए अतः यही दोनों नारे आमने-सामने शस्त्र बांधे खड़े हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य व्यक्ति जो दोनों ही नारों से निरपेक्ष होकर अपना जीवन जी रहा है, वह अपने घर से बाहर निकलकर किस दिशा में जाएगा?
अर्थात् हमारे समाज की न कोई दिशा सुरक्षित है, न ही कोई कोना। पहले केवल पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ही असुरक्षित प्रतीत होते थे; मगर अब तो ईशान, आग्नेय, नैऋृत्य एवं वायव्य जैसे कोण यानी कोने भी सुरक्षित नहीं हैं। कहीं धार्मिक उन्माद खड़ा है, कहीं उसे प्रोत्साहित करने वाले लोग खड़े हैं, कहीं नक्सलियों का गिरोह छिपा बैठा है, कहीं बाहरी और अंदरूनी आतंकवादी घात लगाए बैठे हैं, कहीं पत्थरबाज हैं तो कहीं त्रिशूलधारी, कहीं राजनैतिक धौंस है, कहीं छुटभैयों की गुंडागर्दी, कहीं आमने-सामने का युद्ध है, कहीं गुरिल्लाओं की छापामारी... फिर कहां है वह सुरक्षित भूमि, जहां हम चैन की सांस ले सकें? और आज का साहित्य? उसे तो मानो लकवा मार गया हो। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान साहित्यकारों ने अपनी लेखनी के माध्यम से ऐसा वातावरण बना दिया था, कि ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिल गई थीं। यद्यपि उनकी अनेक रचनाएं जला दी गईं या प्रतिबंधित कर दी गईं, मगर उनका मुखर विरोध जारी रहा। अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अपने भारत देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद कराने में जितनी भूमिका स्वतंत्रता सेनानियों की थी, उनसे कम भूमिका तत्कालीन साहित्यकारों की नहीं थी।
आधुनिक युग में साहित्यकारों के समक्ष वह पहली चुनौती थी। दूसरी चुनौती आई इंदिरा गांधी द्वारा थोपी गई इमरजेंसी के दौरान। उस समय के साहित्यकार लगभग असहाय-से हो गए थे। क्योंकि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली सामग्री का पहले विश्लेषण होता था, कि उस सामग्री में कहीं कोई सत्ताविरोधी तत्व तो नहीं है। और ऐसे तत्व की ‘इंगिति’ मात्र से वे रचनाएं नहीं छप पाती थीं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण कमलेश्वर द्वारा संपादित ‘सारिका’ का वह अंक है, जिसमें छपी हुई सामग्री के उस कथित अंश को काली स्याही से पोत दिया गया था जिसमें सरकारी अधिकारियों को ‘सत्ता-विरोध’ का मात्र आभास हुआ था। मगर कमलेश्वर ने ऐसा साहस दिखाया कि उस अंक को काली स्याही से पुते हुए रूप के सहित प्रकाशित कर दिया था, जिसका कोई भी अंश पठनीय नहीं था।
अब जिस दौर में हम सांस ले रहे हैं, साहित्यकारों के लिए यह तीसरी चुनौती है। अब न तो कोई राष्ट्रीय आंदोलन है और न ही कोई आपातकाल, मगर हमारे देश का जो वातावरण पिछले कुछ वर्षों से बना हुआ है वह एक प्रकार का अप्रत्यक्ष आपातकाल-जैसा ही है। क्योंकि हमारे सामने जिस तरह की चुनौतियां हैं, वे आज से पहले कभी नहीं थीं। राजनीति के मंच से ऐसे-ऐसे प्रश्न उभर रहे हैं जो साहित्यकारों को विचलित कर देने वाले हैं। आज, एक बार फिर वही स्थिति आ गई है कि साहित्यकारों के माध्यम से मुखर विरोध का होना आवश्यक हो गया है। किंतु दुर्भाग्यवश आज का साहित्यकार पिटे-पिटाए विमर्शों से बाहर निकलकर वर्तमान परिस्थिति का सामना या तो नहीं कर रहा है, या कर भी रहा है तो वह बहुत कमजोर है। अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसा क्यों है? क्या आज का साहित्यकार अपने सामने खड़ी चुनौतियों को समझ नहीं रहा है? या फिर, वह उसका सामना करने से डरता है? जी नहीं, इसका कारण कुछ और है।
जहां तक मेरी जानकारी है, साहित्य से संबंधित ऐसी पत्रिकाएं बंद होने के कगार पर हैं, जो सरकारी विज्ञापनों के बल पर निकलती थीं। कुछ पत्र-पत्रिकाएं तो इतनी डरी हुई हैं, कि अगर उनमें असतर्कता के कारण ऐसी कोई सामग्री छप गई तो उनकी खैर नहीं। और अब स्वाधीनता आंदोलन के युग के अनुरूप कोई पत्रिका निकल ही नहीं रही है। कारण स्पष्ट है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में जो पत्र-पत्रिकाएं निकलती थीं और अत्यंत मुखर रूप में ब्रिटिश सत्ता के विरोध में लिखी गई सामग्री छापती थीं, उनके उद्देश्य में ‘देशप्रेम’ था, जबकि आज की पत्र-पत्रिकाओं में से सबका नहीं, किंतु अधिकांश का उद्देश्य धनार्जन है। यही कारण है कि वे वर्तमान स्थिति के विरुद्ध रचनाओं को हाशिए में डाल देते हैं और आज के अधिकांश रचनाकारों का इष्ट केवल छपना मात्र है, इसलिए वे ऐसी रचनाएं लिख रहे हैं जो आसानी से हजम हो जाएं।
यही कारण है कि आज के अधिकांश लेखन में जो कुछ भी गलत हो रहा है, उसका मुखर विरोध नहीं लक्षित होता। या फिर कुछ लक्षित भी होता है, तो उसका स्वरूप प्रभावोत्पादक नहीं होता।
इससे तो यही सिद्ध होता है कि आज का रचनाकार या तो सुवस्था में है, या फिर स्वप्नावस्था में। जिस दिन वह जागृत होगा, उसी दिन वर्तमान परिस्थिति की चुनौतियों से जूझना प्रारंभ हो जाएगा। ऐसा कब होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। विश्वास तो यही है कि यह एक दिन जरूर होगा और हमें सकारात्मक स्वप्न देखना होगा।
(लेखक वरिष्ठ कथाकार, चिंतक और अनुवादक हैं। झीनी-बीनी चदरिया, मुखड़ा क्या देखें, समर शेष है उनकी चर्चित कृतियां हैं)