संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एन्टोनियो गुटेरस ने न्यूयार्क में विगत 23 सितम्बर को हुए संयुक्त राष्ट्र वातावरण सम्मेलन में दुनिया के नेताओं को यह कहते हुए आमंत्रित किया था कि वे दुनिया में मौसम परिवर्तन की समस्या को निर्मूल करने के लिए अपनी सटीक योजना के साथ आएं। इस समिट में भाग लेने के लिए अभिनेता पिता व गायिका माता की सुपुत्री स्वीडन की 16 वर्षीय छात्रा ग्रेटा थनबर्ग ने भी इंग्लैण्ड से 15 दिन का प्रदूषण मुक्त सफर तय करके न्यूयार्क इस सम्मेलन में पहुंचकर स्पष्ट संदेश दिया था कि भविष्य कठिनाइयों से भरा है और हमें सावधानी से आगे बढ़ना है। उस समय ग्रेटा ने अपनी जागरूकता व क्रिया-कलाप से मौसम परिवर्तन की समस्या को युवाओं के बीच महत्वपूर्ण मुद्दा बना दिया था जो आज भी उतना ही असरकारक है। इस सम्मेलन में दुनिया के अन्य नेताओं ने भी भाग लेकर भविष्य का एक खाका खींचा था। इस सम्मेलन से निकले सार पर पुनः चर्चा दिसम्बर में चिली के सेंटयागो में आयोजित हुए कोप-25 में भी हुई।
मौसम परिवर्तन की समस्या विश्व में विकराल रूप धारण करती जा रही है। विश्व के लगभग सभी देश इससे चिंतित हैं। आए दिन नए-नए शोध इस विषय पर प्रस्तुत किए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पूरी दुनिया के देशों में इस समस्या के समाधान पर सहमति बनाने का लगातार प्रयास कर रहा है जो किसी हद तक सफल भी हो रहा है। मौसम परिवर्तन की समस्या के संबंध में 2018 में पौलण्ड के शहर काटोवाइस में आयोजित हुए कोप-24 सम्मेलन में समझौते के तहत जारी की गई 156 पन्नों की रूलबुक के अनुसार लगभग सभी देश समस्या की गंभीरता पर सहमत हुए तथा समाधान के लिए प्रयास करने पर भी राजी हुए, लेकिन तीन बिन्दुओं धन के खर्च, बचाव के उपाय व सभी देशों की ईमानदार कोशिश पर रूलबुक खामोश रही। भारत ने इस रूलबुक के प्रावधानों को लेकर असहमति जताई थी। भारत ने कहा था कि पेरिस समझौते को लागू करने में बराबरी नहीं होने पर इसमें असहमति है क्योंकि बराबरी का जिक्र पेरिस समझौते के आर्टिकल 14 में है और यह समझौते का बुनियादी सिद्धांत है। सम्मेलन के अंत में कोप-24 के अध्यक्ष माइकल कुर्टिका ने अपने भाषण में कहा था कि सभी देशों ने समझौते के लिए अथक प्रयत्न किए व सभी ने अपनी प्रतिबद्धता जताई, ऐसे में सभी देश गर्व की अनुभूति के साथ काटोवाइस से विदा ले सकते हैं।
मौसम परिवर्तन की समस्या की जड़ में अभी भी अमेरिका जैसे मनमौजी देश रोड़ा बन रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा मौसम परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या को पहले ही नकारा जा चुका है। अमेरिका द्वारा मौसम परिवर्तन के अंतराष्ट्रीय समझौते से अपने आप को पहले ही अलग भी कर लिया गया है। ट्रम्प का यह फैसला ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत बड़ा रहा। ट्रम्प के इस निर्णय से दुनियाभर के पर्यावरणविद् सकते में आ गए थे, क्योंकि अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी के दबाव में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के समय मौसम परिवर्तन पर अमेरिका का रुख कुछ सकारात्मक बना था, लेकिन ट्रम्प के इस निर्णय ने पूरी दुनिया का एक झटका दे दिया। अमेरिका के निर्णय से पेरिस समझौते में आनाकानी करते हुए जुड़े देश भी अगर अब बेलगाम हो जाएं तो कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। ट्रम्प अपने चुनाव प्रचार के दौरान से ही मौसम परिवर्तन की समस्या को मात्र कुछ देशों व वैज्ञानिकों का हौवा मानते रहे हैं, जबकि दुनिया धरती के बढ़ते तापमान से लगातार जूझ रही है। ऐसे में दुनिया का सबसे प्रभावशाली व्यक्ति एक विश्वव्यापी समस्या को दरकिनार करके उससे अलग हो चुका है। अब यह भी तय है कि भविष्य में इस विषय पर बड़े नीतिगत बदलाव होंगे। जिनकी पहल आगामी कोप सम्मेलनों में अवश्य दिखेगी।
संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून ने अपने पहले ही सम्बोधन में दुनिया को आगाह किया था कि जलवायु परिवर्तन भविष्य में युद्ध और संघर्ष की बड़ी वजह बन सकता है। बाद में जब संयुक्त राष्ट्र ने ग्लोबल वार्मिंग के संबंध में अपनी रिपोर्ट पेश की तो उससे इसकी पुष्टि भी हो गई थी। संयुक्त राष्ट्र के उनसे पहले के महासचिव स्वर्गीय कोफी अन्नान भी मौसम परिवर्तन पर अपने पूरे कार्यकाल में चिंता जताते रहे। इससे भी एक कदम आगे दुनियाभर के पर्यावरण विशेषज्ञ पिछले ढाई दशक से चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अगर पृथ्वी व इस पर मौजूद प्राणियों के जीवन को बचाना है तो मौसम परिवर्तन को रोकना होगा। विश्व मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन व यूनाइटेड नेशन्स के पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा वर्ष 1988 में गठित की गई समिति इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के पूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय डा0 राजेन्द्र कुमार पचौरी व अमेरिका के पूर्व उप राष्ट्रपति अल गोर को नोबल समिति द्वारा वर्ष 2007 में जब शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया तो विषय की गंभीरता इससे साफ झलक गई। लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा इस ज्वलंत समस्या को नकारना विश्व के प्रयासों को एक झटका है। डोनाल्ड ट्रम्प क्योंकि व्यापारी भी हैं तो यह मानकर भी चला जा रहा है कि क्लाइमेट चेंज संधि के चलते ऐसे स्थानों से गैस और तेल नहीं निकाल पा रहे हैं जिनको प्रतिबंधित किया हुआ है।
डोनाल्ड ट्रम्प के इस रुख से कुछ गरीब और विकासशील देश जरूर खुश होंगे जो अपने देश के विकास में मौसम परिवर्तन की संधि को बाधा मानकर चल रहे हैं। भारत ने ट्रम्प के इस निर्णय पर कोई गम्भीर प्रतिक्रिया नहीं दी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी मौसम परिवर्तन की समस्या पर चिंतित नजर आते हैं। वह पहले ही साफ कह चुके हैं कि वर्तमान में विश्व के सामने दो सबसे बड़े संकट हैं- एक तो आतंकवाद दूसरा क्लाइमेट चेंज और इन दोनों समस्याओं से लड़ने के लिए गांधी दर्शन पर्याप्त है। ट्रम्प का रुख मोदी के एकदम विपरीत है, ट्रम्प क्लाइमेट चेंज को समस्या मानने को ही तैयार नहीं हैं। भारत की तरह ही यूरोपीय देशों को भी क्लाइमेट चेंज पर अमेरिका के साथ कदम ताल मिलाने में दिक्कत आ रही है।
अतीत में मौसम परिवर्तन की समस्या को लेकर जहां गरीब व विकासशील देश हमेशा दबाव महसूस करते रहे हैं वहीं अमीर देश अपने यहां कार्बन के स्तर को कम करने व अपनी सुविधाओं तथा उत्पादन में कमी लाने के लिए ठोस कदम उठाते नहीं दिखे हैं। इस विषय पर पेरिस से लेकर मोरक्को सम्मेलनों में जितने भी मंथन हुए हैं सबमें अमृत तो विकसित व अमीर देशों के हिस्से ही आया है जबकि विष का पान गरीब और विकासशील देशों को करना पड़ा है।
वैसे क्लाइमेट चेंज के विषय में अमेरिका के पूववर्ती राष्ट्रपतियों का रूख भी बहुत उत्साहजनक नहीं रहा है क्योंकि सन् 1997 के क्योटो सम्मेलन में दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के संबंध में की गई संधि में प्रत्येक देश को वर्ष 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 1990 के मुकाबले 5.2 प्रतिशत तक की कमी करना तय किया गया था। इस संधि को वर्ष 2001 में जर्मनी के बॉन में हुए जलवायु सम्मेलन में अंतिम रूप दिया गया था। इस संधि पर दुनिया के अधिकतर देशों द्वारा अपनी सहमति भी दी गई थी। गौरतलब है कि पर्यावरण विशेषज्ञ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को 2 प्रतिशत करने के हक में थे, लेकिन अमेरिका जहां पर दुनिया की कुल आबादी के मात्र 4 प्रतिशत लोग ही बसते हैं वह इस पर सहमत नहीं हुआ था, हालांकि वर्ष 1997 में क्योटो संधि के दौरान बिल क्लिंटन द्वारा इस पर सहमति जरूर जताई गई थी लेकिन जार्ज डब्ल्यू बुश ने राष्ट्रपति बनने के पश्चात् इसको मानने से इनकार कर दिया था। बराक ओबामा भी अपने हितों को सुरक्षित करते हुए कुछ बदलावों के साथ बुश की नीतियों को ही आगे बढ़ाते दिखे थे। उस समय अमेरिका के इस रवैये से क्योटो संधि का भविष्य ही संकट में पड़ गया था, लेकिन प्रारम्भ में क्योटो संधि पर झिझकने वाले रूस के इससे जुड़ जाने के कारण दुनिया के अन्य ऐसे देशों पर दबाव बना जो इससे बचते रहे थे। इसका श्रेय रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की दूरदर्शिता को जाता है। उस समय अमेरिका के 138 मेयर इस संधि के पक्ष में माहौल बनाने में लग गए थे। अब जैसे कि ट्रम्प के रुख से जाहिर हो रहा है कि वे पुतिन के प्रसंशक हैं, ऐसे में क्लाइमेट चेंज पर दोनों का दोस्ताना कैसे आगे बढ़ेगा यह देखना महत्वपूर्ण है। अगर ट्रम्प और पुतिन की रणनीति क्लाइमेट चेंज को लेकर ट्रम्प की राह चली तो यह पर्यावरण हितैषी नहीं होगा। अमेरिका के अधिकतर उद्योग तेल व कोयले पर आधारित हैं इसलिए वहां अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। ब्रिटेन के एक व्यक्ति के मुकाबले अमेरिका का प्रत्येक नागरिक दो गुणा अधिक कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस का अत्सर्जन करता है। जबकि भारत विश्व में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का मात्र तीन प्रतिशत उत्सर्जन करता है।
यूनाइटेड नेशन्स की रिपोर्ट के अनुसार अगर ग्रीन हाउस गैसों पर रोक नहीं लगाई गई तो वर्ष 2100 तक ग्लेशियरों के पिघलने के कारण समुद्र का जल स्तर 28 से 43 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। उस समय पृथ्वी के तापमान में भी करीब तीन डिग्री सेल्शियस की बढ़ोत्तरी हो चुकी होगी। ऐसी स्थिति में सूखे क्षेत्रों में भयंकर सूखा पड़ेगा तथा पानीदार क्षेत्रों में पानी की भरमार होगी। वर्ष 2004 में नेचर पत्रिका के माध्यम से वैज्ञानिकों का एक दल पहले ही चेतावनी दे चुका है कि जलवायु परिवर्तन से इस सदी के मध्य तक पृथ्वी से जानवरों व पौधों की करीब दस लाख प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी तथा विकासशील देशों के करोड़ों लोग भी इससे प्रभावित होंगे। रिपोर्ट के संबंध में ओस्लो स्थित सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एन्वायरन्मेंट रिसर्च के विशेषज्ञ पॉल परटर्ड का कहना है कि आर्कटिक की बर्फ का तेजी से पिघलना ऐसे खतरे को जन्म देगा जिससे भविष्य में निपटना मुश्किल होगा। रिपोर्ट का यह तथ्य भारत जैसे कम गुनहगार देशों को चिन्तित करने वाला है कि विकसित देशों के मुकाबले कम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जित करने वाले भारत जैसे विकासशील तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे गरीब देश इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट हमें आगाह कर रही है कि धरती के सपूतों सावधान, धरती गर्म हो रही है। वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाइ ऑक्साइड, मीथेन व क्लोरोफ्लोरो कार्बन आदि) की मात्रा में इजाफा हो रहा है। यही कारण है कि धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। ओजोन परत छलनी हो रही है जिसके कारण सूर्य की पराबैंगनी किरणें सीधे मानव त्वचा को रौंद रही हैं। ग्लेशियर पिघल रहे हैं तथा समुद्रों का जल स्तर बढ़ रहा है। बेमौसम बरसात और हद से ज्यादा बर्फ पड़ना अच्छे संकेत नहीं हैं। इस रिपोर्ट ने सम्पूर्ण विश्व को दुविधा में डाल दिया है। सब के सब भविष्य को लेकर चिन्तित नजर आ रहे हैं। इस विषय पर औद्योगिक देशों का रवैया अब भी ढुल-मुल है।
बान की मून ने अपने कार्यकाल में अमेरिका से भी आग्रह किया था कि वह ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को कम करने के लिए सम्पूर्ण विश्व की अगुवाई करे, लेकिन अमेरिका क्योटो संधि तक पर सहमत नहीं हुआ, जबकि दुनिया में कुल उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैसों का एक चौथाई अकेले अमेरिका उत्सर्जित करता है। अमेरिका अपने व्यापारिक हितों पर तनिक भी आंच नहीं आने देना चाहता है। अमेरिका, अफ्रीका जैसे देशों को पैसे देकर उसके कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन के अधिकार खरीदना चाहता है लेकिन अपने यहां कार्बन डाइ ऑक्साइड की मात्रा में कमी नहीं लाना चाहता। ऐसे में मौसम परिवर्तन की समस्या को लेकर डोनाल्ड ट्रम्प का बेपरवाह रुख अमेरिका को निरंकुश बना सकता है, जिसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे।
नोबल पुरस्कार विजेता वांगरी मथाई का यह कथन कि जो देश क्योटो संधि से बाहर हैं वे अपनी अति उपभोक्तावाद की शैली को बदलना नहीं चाहते, सही है क्योंकि वातावरण में हमारे बदलते रहन-सहन व उपभोक्तावाद के कारण ही अधिक मात्रा में ग्रीन हाउस गैसें उत्सर्जित हो रही हैं। इस कारण जलवायु में लगातार परिवर्तन हो रहे हैं। अगर दुनिया के तथाकथित विकसित देशों द्वारा अपने रवैये में बदलाव नहीं लाया गया तो पृथ्वी पर तबाही तय है। इस तबाही को कुछ हद तक सभी देश महसूस भी करने लगे हैं तथा भविष्य की तबाही का आइना हॉलीवुड फिल्म ‘द डे आफ्टर टूमारो’ के माध्यम से दुनिया को परोसा भी गया। गर्मी-सर्दी का बिगड़ता स्वरूप, रोज-रोज आते समुद्री तूफान, किलोमीटर की दूरी तक पीछे खिसक चुके ग्लेशियर, मैदानी क्षेत्रों के तापमान का माइनस में जाना, ये सब कुछ एक आगाज हैं।
आज विश्व का जो भी बड़ा आयोजन आज हो रहा है उसमें मौसम परिवर्तन को रोकने की बात कही जा रही है। यहां तक कि आइफा भी इसके लिए आगे आ चुका है। सार्क सम्मेलनों में भी इस पर चर्चा की जाने लगी है। वर्ष 2002 में काठमांडू में हुए सार्क सम्मेलन में मालदीव के राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम ने अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहा था कि अगर धरती का तापमान इसी तेजी से बढता रहा तो मालदीव जैसे द्वीप शीघ्र ही समुद्र में समा जाएंगे। उनकी यह चिंता उन देशों व द्वीपों पर भी लागू होती है जो समुद्र के किनारे या उसके बीच में स्थित हैं।
वर्ष 2002 में ही जलवायु परिवर्तन पर दिल्ली में हुए एक सम्मेलन में जो घोषणापत्र जारी हुआ था उसमें मौजूद 186 देशों में से अधिकतर देश इस बात पर सहमत थे कि ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाई जानी चाहिए। लेकिन यूरोपीय संघ, कनाडा व जापान जैसे देश इससे नाखुश थे। इस सम्मेलन में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी का यह कहना कि जो देश अधिक प्रदूषण फैलाते हैं उन्हें प्रदूषण रोकने के लिए अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए भी इन देशों को चुभ गया था। तथाकथित विकसित व औद्योगिक देश अपने विकास में किसी भी प्रकार का रोड़ा नहीं चाहते हैं। वे अपनी मर्जी के मालिक बने हुए हैं।
आज के ऐसे कठिन समय में जब विश्व कोरोना जैसी महाकारी के चलते पर्यावरणीय बदलाव भी महसूस कर रहा है, तब दुनिया के अगवा देश के प्रमुख डोनाल्ड ट्रम्प ने अगर इस विषय पर अपनी नीति में बदलाव नहीं किया तो दुनिया में अव्यवस्था होनी तय है और फिर दुनिया में बहस एक नए सिरे से प्रारम्भ होगी। उस बहस के नतीजे क्या होंगे अभी उसका आकलन करना कठिन है, लेकिन इतना तय है कि पर्यावरण के लिए परिणाम अच्छे नहीं होंगे और दुनिया एक नए सिरे से दो धड़ों में बंटी दिखेगी। बीमारी को अगर नजर अंदाज किया जाएगा तो तय है कि वह बढ़कर नासूर बनेगी ही।
(लेखक नैचुरल एन्वायरन्मेंटल एजुकेशन एण्ड रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक हैं)