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नेपाल पर भारत से सावधानी, संयम की अपेक्षा | नीलाभ मिश्र

श्रीलंकाई तमिलों की तरह नेपाली मधेसियों के साथ भारत के घनिष्ठ सांस्कृतिक, जातीय और भाषायी संबंध हैं। सिर्फ श्रीलंकाई तमिल और मधेसी तो क्या, अगर आप सिंहल या गोरखा एवं गोरखा पूर्व इतिहास में गहरे उतरें तो भारत के साथ संबंधों का एक जैविक तंतु-जाल देखेंगे।
नेपाल पर भारत से सावधानी, संयम की अपेक्षा | नीलाभ मिश्र

लेकिन आधुनिक परिप्रेक्ष्य में इससे भारत को एक ज्यादा शक्तिशाली पड़ोसी होने के नाते यह अधिकार नहीं मिल जाता कि अपने पड़ोसियों की राष्ट्रीयता परिभाषित करे, उनका संवैधानिक ढांचा अपनी इच्छानुसार गठित करे, उनकी नीतियां नियंत्रित करे और अपने मान्य अथवा गढ़े हुए हितों के अनुरूप उनकी संप्रभुता के साथ खेले। भिन्न परिस्थितियों के बावजूद श्रीलंका में अपनी उंगलियां झुलसाने के सबक नेपाल के साथ भारत के संबंधों की दिशा की निर्धारित करें तो अच्छा होगा।

 

नेपाल के मामले में यह ज्यादा जरूरी है क्योंकि गोरखा काल से नेपाल अपनी संप्रभुता पर उत्तर में तिब्बत-चीन की ओर से तथा दक्षिण में पहले ब्रिटिश भारत फिर स्वतंत्र भारतीय गणराज्य की ओर से अतिक्रमण की आशंकाओं के प्रति प्राणपण से चौकस रहा है। दरअसल, अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को लेकर नेपाली इतने संवेदनशील हैं कि पिछले साल बुद्ध केे जन्मस्थान लुंबिनी की सही-सही अवस्थिति को लेकर इतिहासकारों के बीच तर्क-वितर्क शिक्षित नेपालियों में नेपाल की संप्रभुता और भारत के प्रभुत्व को लेकर बहस का मुद्दा बन गया। चंद किलोमीटर के इधर-उधर होने से लुंबिनी की अवस्थिति नेपाल में हो जाती या भारत में, संप्रभुता पर तकरार का यह मूल बिंदु था।

 

नेपाल के लिए लोकतंत्र की राह पर मील के पत्थर माने जाने वाले क्षणों में नेपाली भारतीय सहयोग के प्रति आभार प्रकट करते रहे हैं - चाहे भारतीय राज्य का सहयोग रहा हो या भारतीय जनता का। लेकिन कई बार भारत के रवैये में दबंगई का या नेपाली ताने-बाने में दरारों के दोहन का जरा-सा भी संकेत उन्हें रोष दिलाता रहा है। भारत-नेपाल संबंधों में कांटेदार मसलों में 1950 की संधि शामिल है जिसके तहत नदी जल और सैन्य सहयोग के क्षेत्र में नेपाल को भारत के पक्ष में झुके असमान प्रावधानों की झलक दिखती रही है। इसके अलावा नेपाली राजनीति के विभिन्न पक्षों की नजर में कभी-कभी भारत इस या उस राजनीतिक दल, गुट और व्यक्ति की तरफदारी करता दिखा है। माओवादी गृहयुद्ध के दिनों में भी भारत कई बार एक खास पक्ष लेता हुआ कई नेपालियों को नजर आया। भारतीय सुरक्षा अधिकारियों के भी हस्तक्षेप और धृष्टता की शिकायतें तक नेपालियों से सुनने में आई हैं। पिछले साल अपनी नेपाल यात्रा के दौरान मैंने नेपाली सत्ता के शीर्ष स्तरों से यह दबी जुबान शिकायत सुनी कि कुछ भारतीय सुरक्षा अधिकारी ठेकों के आवंटन और नेपाली नौकरशाहों के तबादलों और नियुक्तियों में हस्तक्षेप करने से बाज नहीं आते। इस तरह की सभी बातें नेपालियों को चुभती रही हैं।

 

पिछले साल भारत में सरकार परिवर्तन के समय से नेपाली राजनीतिक और बुद्धिजीवी वर्ग कुछ नए चुभते बिंदुओं को लेकर सजग होना शुरू हुए। नेपाल के नए निर्माणाधीन संविधान को धर्मनिरपेक्षता के बदले हिंदू राष्ट्र की दिशा में ले जाने के सूक्ष्म और स्पष्ट सुझाव तथा उकसावे भारत के नए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन निजाम और उसके बंधु-सखाओं की तरफ से आने लगे। धर्मांतरणों, गैर हिंदू उपासना स्थलों और पश्चिम से वित्तीय सहायता प्राप्त गैर सरकारी संगठनों की गतिविधियों पर नियंत्रण एवं अंकुश के सुझाव तथा दबाव भी भारत की ओर से उत्साह के साथ दिए जाने लगे। नेपाली कानून निर्माताओं ने इन सबको जोरदार ढंग से नामंजूर कर दिया और धर्मनिरपेक्षता पर अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट अभिव्यक्त की। दरअसल, धर्मनिरपेक्षता नेपाली संप्रभुता का नया चिह्न जैसा बन गया। नेपाल की तराई में हिंसा की ज्वाला भड़कना भारत को नेपाल के नए संविधान में जनजातियों और मधेसियों से संबंधित संघीय प्रावधानों के बारे में बिन मांगी सलाह देने के प्रति सावधान करे तो अच्छा। अपनी जनसंख्या के अनुरूप प्रतिनिधित्व मिलने के बारे में कुछ जनजातीय एवं मधेशी चिंताएं संभवत: जायज हैं, लेकिन वंशानुगतता, क्षेत्रीयता, आव्रजन और प्राकृतिकरण के आधार पर मधेसियों को परिभाषित करने के बारे में बताए जा रहे भारतीय सुझाव किसी इतर इरादे से दिए गए माने जा सकते हैं। श्रीलंका को याद करते हुए, नेपाल में आग के साथ खेलने से परहेज कीजिए तो अच्छा होगा। 

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