वैसे तो जब भी बात स्त्री सौंदर्य के संचार-माध्यमों में चित्रांकन की आती है तो बाजारवाद का हिंसक पशु अपना सबसे मनमोहक आवरण ओढ़ कर बाहर निकल पड़ता है। मार्केट, मार्केटिंग और करियर के मुलम्मे में स्त्री के शरीर की कमियां गिनाईं जाती हैं। हाय रे! तुम्हारा चेहरा तो किसी सिनेस्टार जैसा चमकीला नहीं कैसे जीतोगी साक्षातकर्ताओं का दिल और फिर दिमाग; या कि एक सफल करियर-वुमन के लिए ऐसी देहयष्टि चाहिए; या कि तुम्हारे जिस्म की वसा की ‘जरूरत से ज्यादा’ मात्रा तुमको इस काबिल नही बनने देती की तुम खुल कर हंस पाओ, जी पाओ, खेल पाओ, घूम पाओ। इन सब के बीच अगर नए ज़माने के कुछ धारावाहिक, फिल्में, विज्ञापन देखें तो, बाज़ार के तमाम छुपे हथकंडों के बावजूद, कुछ नई बातें मंज़रे आम में, पब्लिक डोमेन में आ जाती हैं-कोई नई बात, कोई नई बहस-जो अंततः हमारी जंजीरों की एक और कड़ी के टूटने का पर्याय तो बनती ही है।
चलिए मै इस प्रसंग की शुरुआत दीपिका पादुकोण अभिनीत और होमी अदजानिया निर्देशित सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर वाइरल हुए एक वीडियो ‘माइ च्वॉइस’ (यह बात और है कि इसको दीपिका के वीडियो के रूप मे प्रचारित किया गया है) से करती हूं। यह ढाई मिनट का वीडियो एक अमेरीकन फ़ैशन मैगज़ीन वोग के भारतीय संस्करण ने कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) के तहत ‘एम्पावरिंग वुमेन’ सीरीज के तहत बनाया है। इस वीडियो में स्त्रियों के तन, मन और आत्मा पर खुद के अधिकार की बात की गई है। इस वीडियो में यह भी है कि यह औरतों की मर्ज़ी होनी चाहिए वो शादी से पहले, शादी के बाद या शादी से इतर अपनी यौनिकता को महसूस करना चाहती हैं या नही। लोगों ने इस पर बहुत शोर शराबा मचाया, सिने-तारिका दीपिका पादुकोण के निजी संबंधों के पूरे इतिहास को उलते-पलटते यह कहा गया कि यह तो शादी से इतर यौन संबंधों को लेजीटिमेसी (वैधता) देने की कोशिश है। साथ ही साथ ये बात भी बहस का सबब बनी कि एक स्त्री ऐसा कैसे कह सकती है कि यह उसकी ‘च्वॉइस’ होगी कि वह सुबह के 4 बजे घर आए या फिर शाम के 6 बजे, क्योंकर? वैसे इस वीडियो पर बहुत सारी बातें लिखी कही जा चुकी हैं, लेकिन मुझे लगता है कि किसी मुद्दे पर न बात करने, या कम बात करने से तो अच्छा है की उसपर खूब बातें की जाए, बहस किया जाए, मनन किया जाए। एक तरफ यह वीडियो तमाम सोशल मीडिया साइट्स पर अभूतपूर्व रूप से वाइरल हुआ, वहीं दूसरी तरफ एक नई बहस शुरू हुई – इस वीडियो की भाषा और सामग्री पर। बात यहां से शुरू और खत्म भी हो रही थी कि क्यों न इसको अमीर और संभ्रांत वर्ग से आने वाली महिलाओं की खाई-अघायी प्रवृति का हिस्सा मान लिया जाए – जो शरीर को ही सब कुछ मान बैठी हैं।
मेरा सवाल यह है कि क्यों हम जब भारतीय समाज में स्त्री अधिकारों की बात करते हैं, तो उनकी देह की स्वतंत्रता के मायने नही समझते? जब भी स्त्री यौनिकता की बात उठती है, तो क्यों समाज का बड़ा हिस्सा और कुछ तथाकथित प्रोग्रेसिव लोग इतने विचलित दिखने लगते हैं। अपने शरीर की ही स्वतन्त्रता की मासूम-सी मांग क्योंकर उच्छृंखलता की राह में तब्दील हो जाती है। इस दृष्टिकोण के साथ क्या हम उसी दक्षिणपंथी सवालों मे नहीँ अटक रहें कि देह के पैदा होने, बढ़ने, परवरिश होने, मरने – सबकी बात करिए। लेकिन एक ‘स्त्री की सेक्सुयलाईज्ड देह’ पर बात कदापि ना करिए! आप पाश्चात्य संस्कृति और बाजारवाद के सैद्धांतिकरण में फंस रहे हैं। अगर किसी स्त्री का अपने शरीर और मन पर सिर्फ अपना अधिकार है और वो अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेती है तो पुरुषवादी वर्चस्व को तोड़ने के अलावा और कोई जुर्म साबित नही होता! स्त्रियों के काम करने की स्वतन्त्रता, समान वेतन और सुविधायों के साथ ही साथ क्यों न उनके इस अधिकार की भी बात की जाए की ये दुनिया, समाज, शहर और गांव उनका ही है और ये उनकी मर्जी हो कि दिन या रात के किसी भी पहर वो किसी भी गली, चौराहों, सड़कों, खलिहानों मे घूमें, भटकें और जाने की ये दुनिया कितनी खूबसूरत है या के हो सकती है।
इस बात में कहां किसी समझदारी का अभाव है कि यह वीडियो वोग जैसे ‘परफेक्ट वुमन’ के प्रतिरूप को बेचने वाली एक मैगज़ीन ने बनाया है, तो बाज़ार तो हावी रहेगा ही। बाज़ार को बेचने हैं सौन्दर्य को बढ़ाने वाले संसाधन इसलिए ‘च्वॉइसेस’ या विकल्पों की बात हो रही है। लेकिन मुझे परेशानी इस बात से ज्यादा है कि वही स्त्री जब भारत के सड़कों, गलियों, खेतों, खलिहानों, कस्बों में बलत्कृत, क्षत-विक्षत मृत शरीर के रुप मे पायी जाती है। तब ना आपको उस पर बात करने से गुरेज है और ना उसका छायांकन करने में। लेकिन वही स्त्री जीवित अवस्था में अपने उसी शरीर पर हक की बातें करती है तो आपको 'परिवार व्यवस्था' से लेकर 'स्त्री देवी' के भ्रम के टूटने की धमक सुनाई देने लगती है। वोग ने स्त्री सशक्तिकरण के नाम पर जिस भी फायदे के लिए यह वीडियो बनाया होगा, मेरे लिए इस वीडियो का महत्व इतना ही है कि इसमें औरतों के इस पितृसतात्मक बेड़ियों से आजादी का नारा कहीं ना कहीं गूंजता है। और हां, दीपिका को कहीं भी मैं हम नारीवादियों का रहनुमा या झण्डा-बरदार नही बना रही, वह एक कलाकार है जिसने बस अपना काम किया। लेकिन तकलीफदेह रही वो भाषा, वह टोन जिसमें दक्षिणपंथी से प्रगतिशील लोगों ने एक ही स्वर में एक महिला कलाकार (पढ़िए दीपिका पादुकोण) का चरित्र हनन किया, वहां उनका स्त्रीवाद हवा में विलीन हो गया था, शायद!
साथ-ही साथ मैं इस बात से भी आश्चर्यचकित हूँ कि भारत के कुछ प्रगतिशील लोगों के लिए जर्मनी के एक 20 साला युवती एलोने के द्वारा नए तरह के प्रदर्शन के तरीकों को भी एक खास वर्ग के सवालों से ही जोड़ कर देखा गया। यह विरोध का नॉवल (अनूठा) तरीका था जहाँ मासिक धर्म में इस्तेमाल होने वाले पैड्स को ही हथियार बना लिया गया - पितृसत्ता और लिंग के आधार पर भेद भाव के खिलाफ। अखबारों में लिपटी हुई, सिमटी सिमटाई हुई वो ‘चीज’ बन गई वह दीवार जहां मुक्ति के नारे लिखे जाने लगें। फिर तो यह प्रदर्शन ‘पैड्स अगेन्स्ट सेक्सिज्म’ के नाम से भारत के कई जाने माने विश्वविद्यालयों जैसे –जामिया, जाधवपुर और जेएनयू में विरोध के गंभीर स्वर के रूप में उभरा। यह अलग बात रही कि मुख्य रूप से सोशल मीडिया साइट्स ने ही इसको दर्ज किया और आम छात्रों-छात्राओं मे चेतना फैलाई कि मासिक धर्म स्त्री के देह की एक बहुत-ही स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसमें न छुपा हुआ रहस्य है और न ही घिन करने वाली कोई बात।
इस प्रसंग से जुड़ा एक और मामला था जहां एक दूसरे फोटो शेयरिंग साइट इंस्टाग्राम ने एक कैनेडियन कवयित्री रूपी कौर की एक फोटो को आपत्तिजनक बताकर अपने साइट से हटा दिया था। वह फोटो थी एक मासिक होती महिला की जिसके खून के धब्बे उसके बिस्तर पर होते हैं, उन महिला ने इस फोटो को लोगों के साथ बांटकर मासिक से जुड़ी परेशानियों पर चुप्पी तोड़ी और लिंगात्मक स्टीरियोटाइपिंग को भी ध्वस्त किया। रूपी कौर ने अपना विरोध बार-बार दर्ज कराया और अंततः उस साइट को उनसे माफी मांगनी पड़ी और तस्वीर वापस साइट पर लगानी पड़ी। क्या ये सारे कदम स्त्री के मानवीय रूप को ही उजागर नही कर रहे हैं; क्या ये सदियों पुराने स्त्री सौन्दर्य और सौम्यता के संदर्भ में बनाए गए गढ़ों-मठों को नही गिरा रहे हैं? मुझे इन कदमों को कुछ भौंडे से बहानों के साथ सिरे से नकारने वालों के सामाजिक सरोकारों और बौद्धिक तार्किकता पर संदेह होता है। मेरी राय में तो मीडिया की भाषा में कहीं ना कहीं बदलाव की धमक महसूस की जाने लगी है। कभी-कभी समाज के बदलावों से बदलता हुआ और कभी समाज को बदलाव के संकेत देता हुआ।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुये एक नजर भारतीय सिनेमा पर भी डालना समीचीन है – आखिर समाज और सिनेमा को दूर रखें भी तो कैसे! कुछ दिन पहले एक फिल्म आयी थी ‘दम लगा के हइसा’। प्लाट था बेमेल शादी का, जहां वर-वधू को छोड़कर परिवार का हर सदस्य विवाह के रस्मों-रिवाजों के मजे ले रहा होता है। फिल्म की नायिका जो कि 90 के दशक की बी.एड. पास है, मतलब पर्याप्त ‘पढ़ी-लिखी’। लेकिन जरूरत से ज्यादा वसा समेटे स्त्री वाले खांचे में फिट बैठती हैं। वह ब्याह दी जाती हैं एक ऐसे युवक से जिसके लिए सबसे कष्टकर है - पढ़ाई। वैसे इस फिल्म में उस स्त्री को समाज बेचारगी और हास्य की नज़रों से ही देखता है। लेकिन यहां से यह फिल्म अलग पांत में दिखाई देती है। फिल्म में नायिका के चित्रण की वजह से, यहां वह कहीं से भी दबी-कुचली, मिमियाती, हीनतर भावना से ग्रस्त लड़की नहीं है। बल्कि वह अपनी पढ़ाई, बुद्धि, काबिलियत पर फ़ख्र करने वाली आधुनिक नारी है, जिसके लिए उसका दूसरों से अलग होना कहीं भी उसकी काबिलियत को कम नही करता। मसलन, बार-बार उसका अपने पति से सम्मान की अपेक्षा करना और अपेक्षित व्यवहार नही मिलने पर उसकी सीमित शिक्षा को उसका असल कारण समझना और बताना – बदलते समाज की ही तो निशानी है। मुख्य-धारा की अधिकतर फिल्मों में सामाजिक संदर्भों में ‘अच्छी न दिखने वाली’ नायिका फिल्म के अंत में परी चेहरा 'सुपरहिरोइन' निकलती हैं, और तब जाकर नायक के सपने पूरे होते हैं। लेकिन यहां अंत इस संदर्भ मेँ अलग है कि दोनों उस प्रेम रूपी धागे को हर दुनियावी कमियों से ऊपर मानते हैं और आगे चल पड़ते हैं इस नाजुक डोर को थामे। और भी सिनेमा के नए प्रयोग जैसे -- ‘लंचबॉक्स’, ‘हाइवे’, ‘शुद्ध देसी रोमांस’ आदि हैं जिनमें स्त्री का चित्रण आपको अलग संदर्भों मेँ दिखेगा। एक छोटे से शहर की लड़की हो या या बड़े शहर की अमीरजादी या फिर अपनी रूटीन ज़िंदगी से मायूस और होकर भी पति की नजरों से ओझल महिला हो सब अपने आप में नयेपन के प्रयाय हैं।
लगे हाथ अगर धारावाहिकों पर एक नजर डाली जाए तो शायद पिछले दो दशक से जो 'सास, बहु और साज़िश' जैसे देखने मे बहुरंगी लेकिन अर्थों में एकरंगी सीरियल्स का दौर आया तो कुछ नहीं रह गया नया कहने को। वही भौंडा मेकअप, औसत से बहुत ही नीचे स्तर का अभिनय और बेवजह के षड्यंत्र और खूब सारी झौं-झौं। एक दशक पहले कुछ सीरियल्स जैसे 'जस्सी जैसी कोई नहीं' और 'शाहीन' भी बनते थे जो स्त्री के दर्द का जनता से तआरुफ़ करते थे। यह अलग मुद्दा है कि 'जस्सी..' भी अंततः एक केरीकेचर में ही तब्दील हो गई थी। छोटा पर्दा इन अर्थों में सबसे पिछड़ा हुआ संचार साधन है जहाँ नयेपन और प्रोग्रेसिव कहानियां बेहद जरूरी है। 'जिंदगी' नाम से छोटे पर्दे पर एक नया चैनल शुरू हुआ है जिस पर कुछ पाकिस्तानी अफ़साने दिखाए गए जो बहुत देखे गए, और साथ-ही-साथ सराहे भी गए। यह वक़्त है कि भारत में छोटे पर्दे के दर्शकों की बदलती जरूरत और समाज को कुछ बेहतर बनाने के अपने दायित्व के मद्देनज़र निर्देशक-निर्माता कुछ अच्छे धारावाहिक बनाएं, जो समाज के ज्वलंत मुद्दों को छूएं और नई बहस छेड़ें।
बदलते वक़्त के साथ कभी कदमताल करता तो कभी नीचे गिरता संभलता भारत का मीडिया भी स्त्री सौंदर्य के मायावी भ्रमजाल रचने के साथ-साथ उनकी पीड़ाओं, अहसासों, भावनाओं को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देख पा रहा है। और बात इसी आशा के साथ खत्म की जानी चाहिए की साथी! बदलेगा जमाना बदलेगा।
(दिव्य शिखा, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में शोध छात्रा हैं।)