अगर पिछले महीने चेन्नई में आई बाढ़ से कोई अच्छी बात निकल कर आई है तो वह सिर्फ यह कि प्रकृति ने हमलोगों को एक बार फिर से बता दिया कि हम गरीब हों या अमीर, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह किसी भी तरह छोटे-छोटे अंतराल पर सभी को समान रूप से दंड देगी।
चेन्नई में आई बाढ़ से हमें कुछ सार्थक सबक लेते हुए सबसे पहले यह समझना होगा कि यह प्राकृतिक नहीं बल्कि पूरी तरह निर्मित आपदा थी। यह शहरी आपदा है। चेन्नई में जो कुछ भी हुआ, उसे मौसम वैज्ञानिकों ने एक चरम घटना करार दिया। यह असाधारण रूप से बहुत ही कम समय में अतिवृष्टि का मामला था। ऐसी भयावह घटनाएं मानव निर्मित भी हैं जिसमें पृथ्वी के प्रदूषण के कारण जलवायु में बड़ा अपरिवर्तनीय बदलाव आया है और अब इसका परिणाम सूखा, लू और अतिवृष्टि के रूप में जलवायु परिवर्तन देखा जा रहा है। लेकिन थोड़ी देर के लिए हम दलील दे सकते हैं कि ऐसी गड़बड़ियां हमारे सीधे नियंत्रण से बाहर हैं। लेकिन आखिरकार चेन्नई में जो कुछ हुआ, वह अतिवृष्टि के सिवा कुछ नहीं था। बारिश के पानी को घरों में घुसने और सड़कों पर जमा होने और सब कुछ बहा ले जाने के अलावा कहीं निकलने का रास्ता नहीं मिला। बिल्कुल ऐसा ही पिछले साल कश्मीर में हुआ और उससे एक वर्ष पहले उत्तराखंड में।
अगस्त 2000 में हैदराबाद और जुलाई 2005 में मुंबई को भी ऐसे ही हालात से जूझना पड़ा था। जून 2014 में गुवाहाटी में ऐसी आपदा बरपी थी। जितनी बार ऐसी आपदाएं आती हैं, राहत कार्यों पर हजार नहीं तो सैकड़ों-करोड़ों रुपये तो बहाए ही जाते हैं। ऐसे हालात में मिल-जुलकर राहत कार्य और मदद करने के लिए हम एक-दूसरे की पीठ थपथपाते हैं। हम आपदा की गंभीरता को कम करने के लिए योजनाएं बनाते हैं। लेकिन प्रतिदिन होते शहरी निर्माण कार्यों से बढ़ते जोखिम को हम इसे नजरअंदाज कर देते हैं कि पानी का बहाव किधर होगा। हम इसकी धारा बदल नहीं सकते या इसकी प्रकृति को जबरन बदल नहीं सकते।
हम क्या गलत कर रहे हैं? शहरों का निर्माण जलनिकासी प्रणाली के आसपास किया जा रहा है। जलधाराएं, नदियां, झील, कुएं, जलस्रोत आदि के तंत्र शहरों के लिए बहुत जरूरी हैं। ये हमें पीने का पानी मुहैया कराते हैं। हमारे प्रत्येक शहर को कम से कम 30 प्रतिशत पानी का जरूरत भूजल से पूरी होती है। वे हमें जैव-विविधता उपलब्ध कराते हैं। ऐतिहासिक रूप से इन तंत्रों ने खेती, मत्स्य पालन और विभिन्न परंपरागत कारोबारियों की सहायता की है। इन स्रोतों से अपनी आजीविका चला रहे लोगों ने इन स्रोतों के संरक्षक में अहम भूमिका निभाई। लेकिन शहरी अर्थव्यवस्था में इन पारंपरिक व्यवसायों और कृषि गतिविधियों के हाशिये पर आने से उन संरक्षकों ने पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बनाए रखने में अपनी हिस्सेदारी खो दी। वह खाली जगह अन्य हितधारकों से नहीं भरा गया।
मसलन, जो मछुआरे जलस्रोतों या झीलों से अपनी आजीविका चलाते थे, उनकी ही झीलों की सफाई बनाए रखने में भागीदारी थी। मछलियों के गायब होने के बाद मछुआरों ने महसूस किया कि यहां ऐसा कोई समुदाय नहीं है जो इस संपूर्ण प्रणाली में रुचि रखता हो। इससे संगीन सच्चाई क्या होगी कि शहर में गरीब लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या को उचित रिहाइश से अलग रखा गया। किफायती आवास की तलाश में 70 और 90 के दशक के बीच ये लोग सभी आम संसाधनों पर कब्जा करते जा रहे थे जो कि हर तरह खाली कराया जाता रहा। नब्बे के दशक से मध्य वर्ग और उच्च बुनियादी ढांचे के बिल्डरों ने इन लोगों को विस्थापित किया और इनके इन जनस्थलों को कब्जा कर लिया। परिणामस्वरूप अब हमारे पास वे शहर हैं जहां पानी के प्रवाह को अवरुद्ध करते, जल निकासी की व्यवस्था को मिटाते, जल निकायों में टनों कचरों का निर्वाह करते अपार्टमेंट परिसर हैं। समस्त धाराओं को अवरुद्ध करते और प्रवाह को अप्रत्याशित दिशाओं में मोड़ने वाले हमारे पास विशाल बुनियादी ढांचे हैं।
यह चेन्नई, गुवाहाटी, मुंबई, हैदराबाद की कहानी है। आपदा प्रबंधन योजनाएं इससे निपटने का उपकरण नहीं हैं। हमें शहरों की एक व्यापक हाइड्रोलॉजिकल मॉडलिंग की जरूरत है। हर किसी को उचित आवास के अवसर प्रदान करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। हम शहर की 70 प्रतिशत आबादी को 10 प्रतिशत जमीन पर ठूंस कर एक आपदा प्रबंधन योजना नहीं तैयार कर सकते। हम पहले धाराओं को रोक कर और फिर जोखिम का मूल्यांकन तैयार नहीं कर सकते। हम एक अन्यायपूर्ण और अवैज्ञानिक शहर का निर्माण करें और फिर इसका दोष प्रकृति को नहीं दे सकते हैं। हम बेहतर कर सकते हैं। और यह याद रखते हुए कि पानी बहता है, इसका शुरुआती बिंदु है।
(लेखक हैदराबाद अर्बन लैब के प्रमुख हैं।)