इस संदर्भ में झारखंड का आंकड़ा तो किसी का दिमाग फेर देने के लिए काफी है। उस पठारी वन्य प्रदेश में 36,160 परिवारों के पास मशीनी नौकाएं बताई गई हैं जो समुद्र तटीय गुजरात के आंकड़े 16,493 के मुकाबले लगभग सवा दो गुणा और तमिलनाडु के मुकाबले लगभग पौने तीन गुणा से ज्यादा हैं। कई बार आंकड़े इच्छित से अलग भी कोई तथ्य बयान कर देते हैं। मसलन, दिल्ली और झारखंड में समुंदर हो न हो, मशीनी नौका संबंधी आंकड़े साफ-साफ दिखा रहे हैं कि झारखंड और दिल्ली में भ्रष्टाचार अथवा अक्षमता का एक समुंदर जरूर है।
इसी तरह अन्य कई आंकड़ों के अलावा बिना सिर्फ अपने शारीरिक अंगों से मैला साफ कर ढोने वाले श्रमिकों के आंकड़े भी आपको चौंकाएंगे। आम जानकारी है कि सारे देश में खास दलित जातियों के लोग ही परंपरा से ऐसे काम में लिप्त हैं। लेकिन सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश के ऐसे कुल श्रमिकों में 50 प्रतिशत गैर दलित हैं। जबकि राज्यवार आंकड़ों के अनुसार गुजरात जैसे राज्य के आंकड़े तो अपने राज्य में ऐसी प्रथा के प्रचलन, जिसकी पुष्टि अन्य शोध और दस्तावेज करते हैं, को ही झुठलाते हैं।
उपरोक्त दोनों तरह के आंकड़ों के अपनी-अपनी तरह के अंतर्विरोधों का जिक्र हमने खास मकसद से किया है। ये आंकड़े सामाजिक -आर्थिक-जाति जनगणना के उन आंकड़ों में शामिल हैं जिनके आधार पर निर्धारित मानकों ने तय किया है कि कोई परिवार वंचित की श्रेणी में आएगा या नहीं। वंचित की श्रेणी में आने पर ही सरकारी सामाजिक-आर्थिक कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए किसी भी परिवार की हितग्राहिता तय होगी। यानी यह तय होगा कि किसी भी कार्यक्रम से कैसा परिवार लाभ लेने के योग्य है। ग्रामीण विकास मंत्री वीरेंद्र सिंह के साथ सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) के आंकड़े जारी करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बार-बार कल्याण कार्यक्रमों की सही टारगेटिंग यानी लाभार्थियों या हितग्राहितयों की सही निशानदेही की बात कही। लेकिन सोचिए, अगर निशानदेही गलत आंकड़ों या जानकारी पर होगी तो सही नहीं होगी, और अगर निशानदेही गलत हुई तो सही लोगों को लाभ नहीं मिलेगा। यानी जिन्हें लाभ मिलना चाहिए उन्हें शायद न मिले और जिन्हें नहीं मिलना चाहिए, उन्हें शायद मिल जाए।
इस आलोक के उपरोक्त दोनों आंकड़ों को देखें। मशीनी नौकाएं, अपनी श्रेणी में दो, तीन और चार पहिया वाहनों की मिल्कियत के साथ उन 14 मानकों का हिस्सा है। जिनमें से कोई एक भी पूरा करने पर कोई भी परिवार वंचित की श्रेणी से स्वत: बाहर हो जाएगा। ये 14 मानक हैं: (1) मशीनी दो/तीन/चार पहिया वाहनों/ मछली पकड़ने की नौकाओं की मिल्कियत, (2) मशीनी तीन/ चार पहिया कृषि उपकरण की मिल्कियत, (3) रु. 50,000/- की ऋण सीमा वाले किसान क्रेडिट कार्ड का होना, (4) परिवार के किसी सदस्य का सरकारी सेवा में होना, (5) सरकार में पंजीकृत गैर कृषि उद्यम वाले परिवार, (6) परिवार के किसी भी सदस्य की 10,000 रु. प्रतिमाह से अधिक होना, (7) परिवार के किसी सदस्य का आयकार दाता होना, (8) पेशा कर दाता होना, (9) तीन या ज्यादा पक्के कमरों और पक्की छत वाले घर में रहने वाले परिवार, (10) फ्रिज मिल्कियत, (11) अपना लैंडलाइन फोन होना, (12) ढाई एकड़ से ज्यादा सिंचित भूमि के साथ कम से कम एक सिंचाई उपकरण का स्वामित्व, (13) दो फसलों वाले 5 एकड़ या ज्यादा सिंचित भूमि का स्वामित्व और (14) साढ़े सात एकड़ या ज्यादा कृषि भूमि और एक सिंचाई उपकरण का स्वामित्व।
उसी तरह मैला ढोने वाले सफाई कर्मचारियों से संबंधित आंकड़े उन पांच मानकों का हिस्सा है जिनमें से कोई एक भी पूरा करने पर कोई परिवार स्वत: वंचित में शामिल हो जाएगा। ये पांच मानक हैं: (1) बेघर परिवार, (2) कंगाल और भीख पर निर्भर परिवार, (3) शरीर से मैला ढोने वाले सफाई मजदूर, (4) आदिम जनजाति समूह और (5) कानून के जरिये मुक्त कराए गए बंधुआ मजदूर।
उपरोक्त दोनों श्रेणियों के मानकों की प्रामाणिकता क लिए जरूरी है कि संबंधित जानकारी और आंकड़े आसानी से पुष्टि योग्य हों। पहली श्रेणी के आंकड़े चूंकि लोगों को वंचित से वर्ग से बाहर रखने वाले हैं, इसलिए तर्कसम्मत है कि उन्हें संभावित लाभार्थी झूठमूठ खुद को उन्हें पूरा करने वाला नहीं बताएगा। यानी यदि गड़बड़ी हो तो जानकारी लेने या दर्ज करने वाले व्यक्ति से होगी। दिल्ली या झारखंड में यदि इतनी मशीनी नौकाएं दर्ज की गईं तो मतलब यह कि दर्ज करने वाले व्यक्ति ने मौके पर गए बिना मेज पर ही अनाप-शनाप आंकड़े गढ़ लिए या फिर समझ नहीं पाया कि क्या जानकारी लेनी है अथवा जिससे जानकारी लेनी थी उसे समझा नहीं पाया कि उसे क्या जानकारी देनी है। ये तीनों ही बातें संभव हैं। आंकड़े इकट्ठा करने के लिए टैबलेट इस्तेमाल कर सकने लायक युवा ठेके पर नियुक्त किए गए थे। हो सकता है, भ्रष्ट सरकारी तंत्र में कुछ लोगों ने ठेके पर फर्जी नियुक्तियां दिखला कर मेज पर फर्जी आंकड़े गढ़ टैबलेट में दर्ज कर लिए हों।
हालांकि अन्य दो बातों की संभावना इससे भी ज्यादा है। चूंकि सारी जानकारियां जनगणना प्रक्रिया में अप्रशिक्षित और अंग्रेजी भाषा में अनिपुण युवाओं को एकत्र करनी थीं, इसलिए संभव है कि उन्होंने न तो सही जानकारी लेना भी समझा न अंग्रेजी की गैर जानकार आबादी को सही जानकारी देना समझा पाए। इसके अलावा पहली श्रेणी के मानकों में कुछ और भी झोल हैं। मसलन, मशीनी मछली-पकड़ नौकाएं या तीन पहिया/ चार पहिया वाहन टैक्सी के रूप में कमाई का भी जरिया हो सकते हैं न कि निजी आरामदेह सैर सपाटे की मिल्कियत। अगर इनसे जीवन यापन या इनके लिए लिया कर्ज चुकता करने के लिए कमाई कम हुई तो भी परिवार दरअसल वंचित ही कहलाना चाहिए। इसी तरह पथरीले इलाके, जैसे राजस्थान के रेगिस्तान या पहाड़, में गरीब के घर भी पक्के होंगे और बारिश-भूकंप के इलाके में खाते-पीते लोगों के घर भी कच्चे यानी मिट्टी, बांस या लकड़ी के हो सकते हैं।
दूसरी तरफ, दूसरी श्रेणी के आंकड़े चूंकि वंचित समूह में स्वत: शामिल करने वाले हैं इसलिए उनके बारे में लाभ प्रार्थी झूठ बोल सकता है। मसलन, मैला न ढोने सवर्ण भी कह सकते हैं कि वे मैला ढोने और सफाई के काम में लगे हैं क्योंकि इससे उन्हें अति वंचित समूह का लाभ मिले की आशा होगी। वैसे, पहली और दूसरी श्रेणी के मानों के प्रसंग में वे आंकड़े ज्यादा प्रामाणिक हैं जिनकी भौतिक या दस्तावेजी पुष्टि आसान है। जैसे किसी का घर आसानी से देखा जा सकता है, उसके भू-स्वामित्व के दस्तावेजों से दी गई जानकारी का मिलान किया जा सकता है, उसके कर भुगतान या आदिम अनुसूचित जनजाति होने के दस्तावेजी प्रमाण देखे जा सकते हैं, आदि।
उपरोक्त दो मानक समूहों के अलावा सात ऐसे मानकों का भी एक समूह है जो वंचितों का श्रेणीकरण करता है। यदि कोई परिवार इनमें से एक भी पूरा करता है तो अपने समूह के लिए तय कल्याण कार्यक्रमों की पात्रता प्राप्त कर लेगा। ये मानक हैं: (1) सिर्फ एक कमरे, कच्ची दीवारों और कच्ची छत वाले परिवार, (2) वे परिवार जिनका कोई भी सदस्य 18 से 59 वर्ष की उम्र का व्यस्क व्यक्ति न हो, (3) महिला मुखिया वाले परविार जिनमें 16 से 59 वर्ष का कोई पुरुष सदस्य न हो, (4) विकलांग मुखिया वाले परिवार जिनमें पूर्ण सक्षम शरीर वयस्क सदस्य कोई न हो, (5) अनुसूचित जाति/ जनजाति परिवार, (6) जिन परिवारों में 25 वर्ष से ऊपर का कोई सदस्य साक्षर न हो और (7) शारीरिक श्रम से कमाने वाले भूमिहीन परिवार।
इस तीसरे मानक समूह से संबंधित आंकड़ाें की प्रामाणिकता के बारे में जानकारी एकत्र करने वालों की क्षमता और जानकारी की पुष्टि योग्यता की वही बातें लागू होती हैं जो अन्य दो मानक समूहों के बारे में हमने देखीं। जनगणना शुरू होते वक्त 2011 में ही संभावित गड़बड़ियों के बारे में जमीनी वास्तविकता से वाकिफ विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने सरकार को आगाह किया था। कल्याण कार्यक्रमों की टारगेटिंग यानी हितग्राहियों की जमीनी स्तर पर निशानदेही के लिए सरकार पद्धतिगत गड़बड़ियों के सुधार का रास्ता निकाले तो बेहतर। हां, यहां हम यह जरूर कहेंगे कि इस तरह की पहली जनगणना से कई उपयोगी आंकड़े एकत्र हुए हैं और भविष्य में तुलना के लिए एक बेंच मार्क बना है।