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नजरिया: स्त्री के कंधों पर ही नैतिकता की जिम्मेदारी क्यों

“जो समाज स्त्री को अपनी देह पर अधिकार नहीं देता, वह कैसे स्वीकार करेगा कि संबंध बनाने में दोनों की...
नजरिया: स्त्री के कंधों पर ही नैतिकता की जिम्मेदारी क्यों

“जो समाज स्त्री को अपनी देह पर अधिकार नहीं देता, वह कैसे स्वीकार करेगा कि संबंध बनाने में दोनों की सहमति जरूरी है, अब वक्त है कि स्त्री की यौनिकता पर बात हो”

जब देश की एक बड़ी अदालत मैरिटल रेप पर फैसला नहीं दे पाई, तो किससे उम्मीद की जाए? दिल्ली हाइकोर्ट के दोनों जज मैरिटल रेप के मामले में एकमत नहीं हैं। यह दुखद है कि देश की अदालत इतने साल बाद भी इस मामले पर अभी तक कोई फैसला नहीं ले पाई है। जाहिर है, यह आसान फैसला नहीं है शायद इसलिए इतने साल बाद भी हमारी न्यायिक व्यवस्था एक राय नहीं हो पाई। पति भी बलात्कार कर सकता है, यह स्वीकारना हमारे समाज में मुश्किल है। जो समाज स्त्री को अपनी देह पर अधिकार नहीं देता, वह समाज इसे कैसे स्वीकार करेगा कि संबंध बनाने में दोनों की सहमति जरूरी है। आज भी स्त्री की यौनिकता पर पुरुषों का कब्जा है। पति होने भर से उसे यह अधिकार मिल जाता है।

जब हर रोज बलात्कार से जूझती स्त्रियों को न्याय नहीं मिलता, तो पति द्वारा किए गए बलात्कार को यह समाज इतनी जल्दी कैसे स्वीकार करेगा। हमारे समाज ने मर्दों को इनसान समझा और औरतों को मादा। सिमोन द बोउआर कहती हैं, “जब-जब मादा इनसानों की तरह व्यवहार करती है, उस पर मर्दों की नकल के आरोप लगते हैं। दरअसल स्त्री के पास चुनने की आजादी नहीं है। जब भी उसने चुनने की कोशिश की उसे जोखिम उठाना पड़ा।”

विवाह जैसे सामाजिक बंधन के पीछे भी यही अवधारणा है कि स्त्री संतान पैदा करने के लिए है। उसके लिए सेक्स आनंद का विषय नहीं है। जिस संबंध की बुनियाद ही असमानता पर हो उस संबंध में स्त्री की आजादी और उसकी यौनिकता पर कौन बात करेगा। सिमोन यह भी कहती हैं कि, “मेरी समझ में औरत को मातृत्व और शादी की जकड़न से आजादी पाने के लिए बहुत सतर्क और चौकन्ना रहना चाहिए। अगर किसी औरत को बच्चे प्यारे लगते हैं, तो उसे उन चीजों पर ध्यान से सोचना चाहिए, जो बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी सिर्फ औरत पर डालती हैं। इस तरह मां होना गुलामी है। पिता और समाज मिल कर, बच्चे की सारी जिम्मेदारी मां पर डाल देते हैं। बच्चों की देखभाल के लिए औरतों को अपनी नौकरी तक छोड़नी पड़ती है।”

हमारी आबादी का भी एक बड़ा हिस्सा कामकाजी महिलाओं का है। वे इसलिए नौकरी छोड़ देती हैं कि घर और बच्चे की जिम्मेदारी उन पर रहती है। स्त्री की आजादी का मतलब, सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक और राजनीतिक आजादी है।

आखिर क्यों स्त्री अपने सेक्सुअल राइट पर बात नहीं कर सकती है? क्यों इस समाज में स्त्री को अपनी यौनिकता पर बात करने की इजाजत नहीं है? क्यों वह अपनी शादीशुदा जिंदगी में आपसी सहमति से सेक्स करने की मांग नहीं कर सकती है? क्यों उसे ऑर्गेज्म पर बात करने का हक नहीं है? क्यों ये सवाल उठते ही स्त्री को अश्लील और व्यभिचारी साबित कर दिया जाता है, उसके चरित्र पर सवाल उठने लगते हैं? क्योंकि हमारा समाज स्त्रियों को मनुष्य मानता ही नहीं है। उसे उसकी देह पर नियंत्रण देता ही नहीं है। फिर कैसे यह समाज उसके चरम सुख पर बात कर सकता है। ये तमाम बहस सिर्फ और सिर्फ औरतों की सेक्स लाइफ को नियंत्रित करने के लिए है। जब मैं अफ्रीका में थी तब मैंने देखा कि वहां कुंआरी लड़कियों की योनि को सिल दिया जाता था। सिर्फ पेशाब करने के लिए एक छोटा छेद रहता था। शादी के बाद ही उन टांकों को काटा जाता था। महिलाओं के साथ इस अमानवीय प्रथा के पीछे उनके यौन सुख को नियंत्रित करने की अवधारणा है। दुनिया के कई देशों में आज भी इस तरह की प्रथाएं हैं। मैं दुनिया के कई देशों में ऐसी स्त्रियों से मिली जिनके लिए यौन संबंध हादसा है। उनका समाज इतना कुंद है कि उनकी योनि नियंत्रित करता है। बचपन में ही लड़कियों का खतना कर दिया जाता है। उनके क्लिटोरिस को काट कर निकाल दिया जाता है, ताकि वे यौन आनंद न ले सकें। यौन आनंद लेने का हक इस समाज में सिर्फ पुरुषों को है। इसके लिए वे समाज के किसी नियम में नहीं बंधे हैं।

इस सब से उबरने के लिए महिलाओं की समानता को बराबरी के अधिकार से जोड़ कर देखने की जरूरत है। सेक्स को जीवन का हिस्सा मानने की जरूरत है। जैसे भूख और प्यास होती है, जैसे शरीर को अनाज की जरूरत है, बस वैसे ही इस शरीर को सेक्स की जरूरत है। सेक्स कोई अनोखी चीज या अजूबा नहीं है। लेकिन जब स्त्रियां इस मुद्दे पर खुलकर बोलती हैं, तो समाज के लिए यह अश्लील हो जाता है। इसलिए समाज स्त्री को सेक्स करने की इजाजत सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए देता है। इसके पीछे भी पुरुष सत्ता है, जिसकी समझ है कि स्त्रियों को यौन आनंद लेने का अधिकार नहीं है। अगर हमारी पौराणिक कथाओं को पढ़ेंगे, तो सारे मर्द चाहे वे ऋषि मुनि ही क्यों न हों, स्त्रियों को देखकर संयम खो देते थे। विश्वामित्र जैसे कई उदाहरण हैं। दरअसल इस समाज ने नैतिकता का पाठ स्त्रियों के लिए गढ़ा है। इतिहास पलट कर देखें तो यौन शुचिता के लिए पहले कमरपेटियां बनाई जाती थीं। पुरुष पत्नियों को कमरपेटियां पहनाते थे, जिसकी चाभी उनके पास रहती थी। कमरपेटियों में मल, मूत्र के लिए छेद रहते थे और यह सामाजिक और आर्थिक दबदबे का भी प्रतीक थीं। जो जितना पैसे वाला उसकी बीवी की कमरपेटी उतनी ही महंगी। कमरपेटियां स्त्री को नियंत्रित करने के लिए बनाई गई थीं।

इतनी अमानवीय यातना इसलिए क्योंकि पुरुषों को हमेशा यह डर सताता रहा है कि अगर स्त्रियों की योनि को नियंत्रित नहीं किया गया तो उन्हें ‘अक्षत योनि’ नहीं मिलेगी। हाल तक हमारे समाज में अक्षत योनि की अवधारणा रही है और आज भी है। शादी के बाद चादर पर खून के धब्बे न दिखें, तो माना जाता था कि स्त्री की योनि अक्षत नहीं है। आज भी हमारे देश के कुछ हिस्सों में औरतें आभूषण के तौर पर मरुगुबिल्लाएं इस्तेमाल करती हैं, जिसका आकार कमरपेटियों की तरह है। इसे लाज रक्षक पदक कहा जाता है।

मर्द इतने चालाक हैं कि यो‌िन नियंत्रण के अनोखे तरीके निकालते रहे और इसे स्त्री का गहना कहते रहे हैं। स्त्री की योनि को कीमती बना दिया गया जैसे यह कोई लॉकर में रखने की चीज है और इसे सिर्फ पुरुष ही अपनी मर्जी के मुताबिक खर्च करेगा। स्त्री को अपनी मर्जी से कुछ भी करने की इजाजत नहीं है। मर्दवादी समाज ने औरतों की सारी लाज उसकी योनि तक सीमित कर दी। वह खुद इससे मुक्त रहा। लिंग उसकी लाज कभी नहीं बना, शायद इसलिए वह सरे आम सड़क पर खड़े होकर पेशाब कर सकता है। मर्द का लिंग ही उसकी ताकत है इसलिए वह स्त्री के साथ बलात्कार करता है। ऑर्गेज्म की कहानी भी इससे कुछ अलग नहीं है। जिस समाज में स्त्री को सिर्फ प्रजनन के लिए इस्तेमाल किया जाता हो उस समाज में उसके चरम आनंद की किसे पड़ी है।

ये तमाम सवाल स्त्री के अधिकार और उसकी सामाजिक स्थितियों से जुड़े हैं। हमारा कानून यह हक देता है कि अगर पति और पत्नी किसी भी वजह से सेक्स नहीं कर पाते या चरम आनंद नहीं पाते हैं, तो वे अलग हो सकते हैं। पर कानून इसकी इजाजत नहीं देता कि किसी रिश्ते में रहते हुए अगर आप सेक्स से संतुष्ट नहीं हैं, तो किसी दूसरे के साथ सेक्स कर सकते हैं। यदि कोई ऐसा करता है, तो वह पॉलीगामी कहलाएगा। लेकिन पति को यह हक है कि वह जबरन पत्नी के साथ संबंध बनाए। ऐसे तो जबरन संबंध को भी सामाजिक मान्यता है। शायद इसलिए कानून के पास यह साहस नहीं है कि वह इसके खिलाफ कोई फैसला दे।

ऐसी तमाम बहस के पीछे सिर्फ यही मंशा है कि स्त्रियों को भी सामान्य मनुष्य की तरह अधिकार मिलें। उसे अपने शरीर को सुख देने का अधिकार मिले। उसे भी 'न' कहने का अधिकार मिले। बिना सहमति के कोई उसके शरीर को हाथ न लगाए। अगर यह नहीं होगा तो वह हर रोज भयावह हिंसा की शिकार होती रहेगी। अब समय आ गया है जब स्त्री की यौनिकता पर लगातार बात की जाए। उसकी देह पर किसी और का नियंत्रण न हो।

निवेदिता

(लेखिका, कवि, वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता। मुजफ्फरपुर शेल्टर होम मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसके आधार पर अपराधियों को सजा हुई। विचार निजी हैं।)

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