यह शब्द प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोधी किसी कांग्रेस नेता के नहीं बल्कि उन युवकों के हैं जिन्होंने सिर्फ डेढ़ साल पहले फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्किंग प्लेटफार्म के अलावा सड़कों पर 'हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ के नारे लगाए थे। ये कोई दलित, पिछड़े, आदिवासी या मुसलमान भी नहीं हैं। ये हैं गुजरात के सबसे समृद्ध और प्रगतिशील पाटीदार समाज के युवक।
पिछले दो महीने से ये युवक गुजरात की सड़कों पर उतर आए हैं। पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति के बैनर तले गुजरात के प्रमुख शहरों में इन युवकों ने लाखों लोगों की सभाएं की हैं और रैलियां निकाली हैं। इनका नेता है एक 22 साल का युवक, हार्दिक पटेल, जिसे दो महीने पहले कोई नहीं जानता था। इसे रातों-रात हीरो बनाने का श्रेय और किसी को नहीं बल्कि आनंदीबेन पटेल सरकार को जाता है जिसने निस्पृह होकर पाटीदार आंदोलनकारी संगठन को बढ़ने दिया और आखिरी समय में बिना किसी उकसावे के एक शांतिपूर्ण सभा में पुलिस से लाठी चार्ज करवाया। दो महीने से जो आंदोलन पूर्णत: शांतिपूर्ण था उसने 25 अगस्त की पुलिस कार्रवाई के बाद हिंसात्मक मोड़ ले लिया। हार्दिक पटेल को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद अहमदाबाद सहित गुजरात के कई शहरों में आगजनी की व्यापक घटनाएं हुईं जिसमें मुख्य रूप से पुलिस चौकियों और वाहनों को निशाना बनाया गया। देर रात तक चली हिंसा की वजह से राज्य के कई नगरों में कर्फ्यू लगा दिया गया।
जिस ढंग से पूरे दो महीने तक पटेल आरक्षण आंदोलनकारियों को राज्यव्यापी संगठन खड़ा करते और जगह-जगह बड़े पैमाने के प्रदर्शनों का आयोजन करते गुजरात सरकार ने नजरंदाज किया और आखिरी समय में बल प्रयोग कर उकसाने का काम किया उससे लगता है कि इस पूरे मामले को जान बूझकर तूल दिया गया।
पटेल युवाओं के इस आंदोलन ने गुजरात के तथाकथित विकास गाथा की पोल खोल दी है। पिछले करीब दो दशक से प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा का जो व्यापारीकरण हुआ है उस कारण मध्यम वर्ग के लोगों के लिए बच्चों की शिक्षा पहुंच से बाहर हो गई है। निजी कॉलेज से इंजीनियरिंग और मेडिकल शिक्षा के लिए लाखों की फीस ली जाती है। नतीजा यह है कि इंजीनियरिंग कॉलेज में राज्य में 50,000 से ऊपर सीटें खाली हैं।
दूसरी ओर सरकारी नौकरियों में भी नगण्य बढ़ोतरी हुई है। इस क्षेत्र में ठेके पर अस्थायी कर्मचारियों की भर्ती की प्रथा शुरू हुई है। पुलिस कांस्टेबल, वन रक्षक, शिक्षक, नर्स जैसी सरकारी नौकरियों को अस्थायी ठेके पर भरे जाने का निजी कंपनियों के तर्ज पर रिवाज पिछले दस वर्षों में प्रचलित हो गया है। तीन से पांच वर्ष के अनुबंध पर इन कर्मचारियों को मासिक 3,000 से 5,000 रुपये की तनख्वाह पर रखा जाता है और वह भी मोटी रकम घूस ले कर।
पटेलों द्वारा आरक्षण की मांग के पीछे मध्यम वर्ग में बढ़ते असंतोष और असहायता की भावना काम करती दिख रही है। अब तक पटेलों का आरक्षण आंदोलन सरकार के खिलाफ ही नजर आ रहा है। मगर इसके कभी भी पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के खिलाफ हो जाने के खतरे को नकारा नहीं जा सकता। वैसे पटेलों के आंदोलन के दौरान दो-तीन स्थानों पर दो गुटों के बीच टकराव की घटनाएं हो चुकी हैं।
1985 में पिछड़ों के आरक्षण में 10 प्रतिशत वृद्धि के निर्णय के खिलाफ अगड़ों ने जो आंदोलन किया था उसने सवर्ण बनाम दलित दंगों का स्वरूप ले लिया था और उस समय के मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी को जाना पड़ा था। पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ उस समय चलाए गए आंदोलन में भी पटेल समुदाय के नेताओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।
पटेल आंदोलनकारी की यह मांग कि या तो उन्हें पिछड़ा गिना जाए या आरक्षण का आधार सामजिक न हो कर आर्थिक किया जाए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की घोषित नीति से मेल खाती है इससे यह आशंका होती है कि कहीं गुजरात में पटेलों के आरक्षण के आंदोलन के पीछे संघ का हाथ तो नहीं है ताकि आर्थिक आधार पर आरक्षण देश में चर्चा का विषय बन जाए। वैसे आंदोलन के युवा नेता हार्दिक पटेल के पिता भाजपा के कार्यकर्ता हैं और वह स्वयं विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया के निकटस्थ हैं।