केवल एक चीज निश्चित थी कि निकट भविष्य में लाजिम अस्थिरता के साथ अनिश्चितता भी जारी रहेगी। विश्व अर्थव्यवस्था का एक और पक्ष शीशे की तरह साफ हो गया कि 16 साल पहले बने यूरो का भविष्य एक मुद्रा के तौर पर पहले से और अधिक अनिश्चित हुआ है। यूरोप के 28 देशों में से केवल 19 देशों के यूरोजोन का हिस्सा होने के बावजूद युद्ध की सीमाएं स्पष्ट हो गई हैं। शक्तिशाली बनाम शक्तिहीन, जर्मनी बनाम ग्रीस। पहले पहल कौन करेगा?
अर्थव्यवस्था के साये में यह लड़ाई सैद्धांतिक भी हैः पूंजीवाद बनाम समाजवाद
क्या भारत असावधान रहने का जोखिम उठा सकता है? भारत सरकार के वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रहमण्यम ने पत्रकारों को कहा, यह ऐसा नाटक है जो कुछ समय तक जारी रहेगा। हम कम से कम तीन तरह से पूरी तरह सुरक्षित हैं। हमारी व्यापक आर्थिक स्थिति पहले से अधिक स्थिर है। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार भरा पूरा है। हमारी अर्थव्यवस्था अब भी एक आकर्षक निवेश स्थल है इसलिए मैं मानता हूं कि हम औरों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं। उसके बाद उन्होंने सावधानी बरतते हुए कहा, ऐसे हालात में पूंजी सुरक्षित आश्रय की ओर भागती है। यह रुपये के बाह्य मूल्य को प्रभावित कर सकता है। उनके सहयोगी वित्त सचिव राजीव महर्षि ने संक्षेप में स्वीकारा कि ग्रीस का संकट भारत को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर सकता है।सच्चाई यह है कि पिछले कुछ सप्ताह की घटनाओं और उसके बाद के घटनाक्रम से भारत समेत पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से प्रभावित होने जा रही है।
नाजी जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने 81 साल पहले अपने आलोचकों यानि रूढ़ीवादियों और वामपंथियों दोनों की सफाई का अभियान एक सप्ताह तक चलाया था। इसे नाइट ऑफ द लॉन्ग नाइव्स कहा गया। इसके पांच साल बाद द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया। अब तुरंत वर्तमान में आइए। यह उतना नाटकीय नहीं है जितना कि नाइट ऑफ द लॉन्ग नाइव्स। जर्मनी की चांसलर एंजेला मार्केल यूरोपीय संघ, यूरोपीय आयोग और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की त्रिमूर्ती द्वारा और मदद दिए जाने का विरोध करने वाली यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के जनमत को महज दोहरा रही थीं। (ग्रीस ३० जून को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कर्ज की अदायगी न कर पाने वाला पहला विकसित देश बन गया।)
जर्मनी के सोशल डेमोक्रेट वाइस चांसलर सिग्मर गैब्रियल ने रविवार को कहा कि ग्रीस के 40 वर्षीय प्रधानमंत्री सिप्रास ने यूरोजोन के साथ सुलह की अंतिम आस को खत्म कर दिया है। इन दो सबसे शक्तिशाली जर्मनों के लिए सबसे बड़े दुश्मन वारूफकिस थे। उन्होंने उन दोनों को अपने बेवजह के लंबे बयानों और धमकी भरे लहजे से क्रोधित किया हुआ था। हद तो तब हो गई जब वारूफकिस ने ग्रीस को कर्ज देने वालों को आतंकवादी करार दे दिया। यूरोप के गैर यूनानी नेताओं के लिए यह थोड़ा ज्यादा था। पूर्व वित्त मंत्री ने अपने त्याग पत्र में ऐसा कुछ उल्लेख किया: मुझे लगा कि मेरी गैरमौजूदगी प्राधानमंत्री सिप्रास के लिए मुफीद होगी और वह इसे किसी समझौते पर पहुंचने का बेहतर उपाय मानेंगे।
अपने ब्लॉग पर विदाई शॉट के रूप में उन्होंने पोस्ट किया कि यूनानियों ने बाकी यूरोप को लोकतंत्र सिखाया है और अब आर्थिक उद्धार की बेहतर शर्तों के लिए उसे मांग करनी चाहिए। जो लोग सिप्रास और वारुफकिस के बीच मनमुटाव के गहराने की बात सोचते थे वे शायद ख्याली पुलाव पका रहे थे। टेलीविजन पर प्रसारित अपने संबोधन में ग्रीक प्रधानमंत्री सिप्रास ने अपने उत्साहित समर्थकों से कहा था, आपने बहुत बहादुरी का निर्णय लिया है....61.2 प्रतिशत का जो जनादेश आपने मुझे दिया है वह यूरोप के साथ अलगाव का जनादेश नहीं है, बल्कि एक सही समाधान हासिल करने के लिए हमारी सौदेबाजी को मजबूत करने का जनादेश है।
एक सप्ताह से ग्रीस के बैंकों ने कामकाज बंद कर रखा है। उनकी स्वचालित टेलर मशीनें तेजी से नकदी से खाली होती जा रही हैं। क्या उन लोगों ने अपनी स्थिति को और कमजोर करने के लिए वोट दिया था? शायद नहीं।आखिरकार महज पांच सालों में ग्रीस की राष्ट्रीय आय चार गुना कम हुई है और वास्तविक मजदूरी भी उसी अनुपात में घटी है। ग्रीस की 11 करोड़ की आबादी में 26 प्रतिशत लोग बेरोजगार हैं और देश के 60 प्रतिशत युवा बगैर काम के हैं।
सीरीजिया, जिसका अर्थ साम्यवादियों का गठबंधन है, यूरोप के तथाकथित मितव्ययिता उपायों, जो स्वास्थ्य सेवा, पेंशन और शिक्षा पर सरकारी खर्च में कटौती का आसान सा नाम है, को थोपने के विरोध के एजेंडा पर जनवरी में सत्ता में आया था। सिप्रास की सरकार शायद ही अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की फिजूलखर्ची के कारण पड़े बोझ से निपट सके जिन्होंने न सिर्फ कर्ज के पैसों पर अय्याशी और दिखावा किया बल्कि खातों में भी धोखाधड़ी और हेरफेर की थी। यूनान के कर्ज का 80 प्रतिशत मोटे तौर पर यूरोप के विभिन्न सरकारी संस्थानों और आईएमएफ से लिया गया है। चुनावों में मुद्दा स्पष्ट था। क्या एथेंस को अपने कर्जदाताओं का बंधुआ मजदूर बन जाना चाहिए या उन लोगों का जोशीले अंदाज में कड़ा मुकाबला करना चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त ‘कैपिटल इन दी 21 सेंचुरी’ नामक किताब के लेखक और फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी के जर्मनी सरकार के खिलाफ की गई लगातार तीखी टिप्पणियों ने आग में घी डालने का काम किया। कुछ हद तक उनकी बातों पर भरोसा फायदेमंद है। जर्मन समाचार पत्र डाइ जीट को दिए साक्षात्कार में पिकेटी ने कहा कि इतिहास को नकारने के कारण जर्मनी के रूढ़िवादी एकीकृत यूरोप के विचार को बर्बाद करने के कगार पर थे। उन्होंने कहा कि पहले इंग्लैंड, जर्मनी और फ्रांस आज के ग्रीस से ज्यादा कर्ज में थे रह चुके हैं। सन् 2004 में ग्रीस का सार्वजनिक ऋण देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 127 प्रतिशत था और अब बढ़कर जीडीपी का 175 प्रतिशत हो गया है। पिकेटी ने कहा, ‘जर्मनी सबसे बेहतर उदाहरण है इतिहास के ऐसे देश का जिसने कभी अपना बाह्य कर्ज नहीं चुकाया है। न ही प्रथम विश्व युद्ध के बाद और न ही द्वितीय विश्व युद्ध के बाद। जबकि उसने दूसरे देशों को कर्ज चुकाने के लिए लगातार बाध्य किया है। उदाहरण के लिए 1870 के फ्रांस-प्रशिया युद्ध के बाद जब उसने फ्रांस से भारी क्षतिपूर्ति की मांग की और अतंत: हासिल भी किया। फ्रांस इस कर्ज से दशकों प्रभावित रहा।
सार्वजनिक ऋणों का इतिहास बड़ा विडंबनात्मक रहा है। यह हमारे न्याय और व्यवस्था की अवधारणा को शायद ही कभी मानता हो। पिकेटी ने कहा कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी की ‘अर्थव्यवस्था में चमत्कार महंगाई, निजी संपत्ति पर विशेष कर और कर्ज राहत पर आधारित था जो ग्रीस को देने से आज जर्मनी इनकार कर रहा है। उन्होंने कहा, ‘1953 में लंदन में हुए कर्ज समझौते पर ध्यान दें, जहां जर्मनी का 60 प्रतिशत विदेशी कर्ज रद्द कर दिया गया और उसके आंतरिक कर्जों को पुनर्गठित किया गया...द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की तरह हमें पूरे यूरोप में एक सम्मेलन करना चाहिए। केवल ग्रीस में ही नहीं बल्कि यूरोप के अधिकतर देशों में कर्जों का पुनर्गठन जरूरी है’। पिकेटी ने मार्केल को ग्रीस की समस्या का हल ढूंढने की सलाह देते हुए कहा, ‘‘जो लोग ग्रीस को यूरोजोन के बाहर खदेड़ना चाहते हैं वे कल इतिहास में कचरे के ढेर पर पड़े होंगे।’’ वर्तमान संकट पर जर्मनी के रूख की आलोचना करने वाले फ्रांसीसी अर्थशास्त्री एकलौते व्यक्ति हैं। अगर ग्रीस संकट का यूरोप और दुनिया के बाकी अंतरसंबंधित हिस्सों में फैलता है तो भारत इससे बचने की आशा नहीं कर सकता है।
यूरोप भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है। मई में यूरोप को निर्यात पांच गुना कम हुआ है यह प्रवृत्ति पिछले लगभग एक साल से लगातार जारी है। बावजुद इसके कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपये में गिरावट भी आई है। भारत की इंजिनियरिंग एक्सपोर्ट काउंसिल ने कहा है कि ग्रीस का आर्थिक संकट भारत से होने वाले इंजीनियरिंग निर्यात को प्रभावित करेगा क्योंकि यूरोपीय संघ इस तरह के निर्यातों का सबसे बड़ा स्थान है। निर्यातकों के संगठन ने सोमवार को कहा कि इंग्लैंड, इटली, तुर्की और फ्रांस को होने वाले निर्यातों पर भी इसका अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ते हुए दिख रहा है।
भारत के कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के निर्यातकों को भी मुद्रा बाजार के पहले से अधिक अनिशि्चत हो जाने के कारण वैसी ही समस्या का सामना करना पड़ सकता है। साल 2007-2008 की विकराल मंदी के दुष्प्रभावों का सफलतापूर्वक सामना कर चुके इस देश की अर्थव्यवस्था को एक अनिश्चित दौर के लिए तैयार रहना होगा। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन सही हैं। परसों ही विकराल मंदी आए यह जरूरी नहीं है, मगर यूनान और जर्मनी का शुक्रिया कि इस धरती की राजनीतिक अर्थव्यवस्था नाटकीय रूप से बदल सकती है।