यह किसका अफगानिस्तान है? उन सैन्य शक्तियों का, जिन्होंने दशकों तक इसकी सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति का फायदा अपनी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के लिए उठाया? उसके कुछ पड़ोसी मुल्कों का, जिन्होंने स्वार्थसिद्धि के लिए इसकी सरजमीं पर गिद्ध दृष्टि डाली? उन तथाकथित जिहादी ताकतों का, जो बर्बरता के क्रूरतम तरीकों से उसे वापस मध्यकालीन युग में नजरबंद रखना चाहते हैं? या फिर उसकी चार करोड़ अवाम का, जिसकी ख्वाहिश अमन-चैन है? आज का अफगानिस्तान वहां के अमनपसंद लोगों का तो फिलहाल कतई नहीं दिखता। पिछले कुछ दिनों से इस खूबसूरत देश से जैसी भयावह तस्वीरें आ रही हैं, वे सिर्फ सकते में डालने वाली नहीं हैं। वे इस ओर भी इशारा कर रही हैं कि 21वीं सदी के दो दशक बाद भी जब मानवाधिकार, नागरिक सुरक्षा और नारी स्वतंत्रता वैश्विक स्तर पर हमारे बौद्धिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप से प्रगतिशील होने के मानक बन चुके हैं, अब भी विश्व समुदाय इनका बेफिक्र हनन करने वाली शक्तियों की चुनौतियों से जूझ रहा है।
ऐसा नहीं होता तो काबुल एअरपोर्ट पर विमानों के पीछे बदहवास भागती भीड़ का मंजर नहीं दिखता। यह सिर्फ यही नहीं दिखाता है कि वहां की अवाम तालिबान की वापसी से किस कदर खौफजदा है, बल्कि यह भी कि अमेरिका जैसा सुपरपावर भी पिछले दो दशकों में अपनी तमाम सैन्य शक्तियों की मौजूदगी के बावजूद वहां सामान्य स्थितियां बहाल करने में नाकाम रहा। इसलिए जैसे ही अमेरिकी सेना के वहां से लौटने का सिलसिला शुरू हुआ, वर्षों तक सिर झुकाए रहीं तालिबान शक्तियों ने अपना पुराना रंग दिखाना शुरू कर दिया और कुछ ही दिनों में देश पर कब्जा जमा लिया। खून-खराबों के बीच तालिबान के निरंतर बढ़ते वर्चस्व के कारण अमेरिकियों द्वारा प्रशिक्षित देश की सेना ने भी आत्मसमर्पण कर दिया और देश के सियासी हुक्मरानों ने पलायन करने में ही भलाई समझी। इस पूरे प्रकरण में न सिर्फ स्थानीय सरकार, बल्कि अमेरिकी प्रशासन और वहां की गुप्तचर एजेंसियों के साथ-साथ राष्ट्रपति जो बाइडन की भी काफी किरकिरी हुई है। उन पर आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने परिस्थितियों का सही आकलन नहीं किया और अफगानिस्तान के निर्दोष नागरिकों को वापस वहीं धकेल दिया, जहां वे इस सहस्त्राब्दी की शुरुआत में थे। ऐसा कर उन्होंने पिछले बीस वर्षों की मेहनत और रणनीति पर भी एक झटके में पानी फेर दिया। शायद 9/11 हमले के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारने का लक्ष्य पूरा कर लेने के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी दिलचस्पी खत्म हो चुकी थी।
मुमकिन है, अमेरिका के लिए तालिबान प्राथमिकता नहीं रह गया था या फिर उसे लगा कि बीस साल बाद कमजोर दिखने वाला तालिबान फिर कभी पुराने दौर में लौटने का दुस्साहस नहीं कर पाएगा। लेकिन, उसका आकलन यथार्थ से परे था, जिसका खामियाजा अब वहां की जनता को उठाना पड़ रहा है। महिलाओं को ऑफिस और शिक्षण संस्थानों में न जाने का फरमान जारी हो चुका है और बिना हिजाब के घर से बाहर निकलने पर कइयों के उत्पीड़न की खबरें आ रही हैं। देश पर कट्टरपंथियों का कब्जा हो चुका है। उनके लिए मानवाधिकार, मौलिक अधिकार और नारी स्वतंत्रता जैसे शब्द बेमानी हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या इन परिस्थितियों में संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक संगठन और दुनिया के बाकी ताकतवर राष्ट्र अफगानिस्तान में तख्तापलट के बाद तालिबानी नेतृत्व पर कुछ महीनों में आमजन की भागीदारी आश्वस्त करके निष्पक्ष चुनाव कराने और लोकतंत्र बहाल करने का दवाब डाल पाएंगे या फिर वहां की घटनाओं को अंदरूनी मामला कहकर अपना मुख मोड़ लेंगे? विश्व समुदाय को यह समझना होगा कि अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी का असर वहां की अवाम पर ही नहीं, बल्कि उन सभी मुल्कों, खासकर उसके पड़ोसी देशों पर पड़ेगा, जहां ऐसी शक्तियां लंबे समय से सिर उठाने के लिए माकूल मौके की बाट जोह रही हैं। चीन, रूस और पाकिस्तान जैसे देश भी भविष्य में इसकी आंच से अछूते नहीं रह पाएंगे, जिन्हें फिलहाल तालिबान की वापसी में अपना हित नजर आ रहा है। भारत तो तालिबान के वर्चस्व के वर्ष 1999-2000 में कंधार विमान हाईजैक प्रकरण में कीमत दे चुका है।
तालिबान के फिर ताकतवर होने से यह खतरा बना रहेगा कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल आतंकवादियों के ठिकाने के रूप में हो। यह न सिर्फ भारत या किसी अन्य देश, बल्कि अफगानिस्तान की अवाम के हित में भी नहीं है। तालिबान को भी यह समझना होगा कि मजहब की आड़ में अवाम को संगीनों के साए में रखकर हुकूमत नहीं की जा सकती है। बंदूक की नोक पर सत्ता पर काबिज होना तो मुमकिन है लेकिन लंबे समय तक लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन और घड़ी की सुइयों को उल्टा घुमाकर उस दौर को वापस नहीं लाया जा सकता, जिसे दुनिया मध्यकाल में ही पीछे छोड़ चुकी है।