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बिहार चुनाव के उत्तरित-अनुत्तरित प्रश्न | नीलाभ मिश्र

पहली बार मैं किसी मामले में अमित शाह से खुद को पूरी तरह सहमत पाता हूं। यह कि बिहार चुनाव केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों और कामकाज पर जनमत संग्रह नहीं है।
बिहार चुनाव के उत्तरित-अनुत्तरित प्रश्न | नीलाभ मिश्र

केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह अपने कथन के निहितार्थ तो खुद जानें, मेरी नजर में बिहार चुनाव के मोदी सरकार पर जनमत संग्रह न होने के ठोस कारण हैं। चुनाव अभियान शुरू होने के वक्त से ही बिहार के आम मतदाता को यह मालूम था कि विधानसभा चुनाव राज्य की सरकार बनाने के लिए हो रहे हैं, न कि केंद्र की। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के समर्थक मतदाताओं को मालूम था कि अपने वोट के जरिये वे बिहार की वर्तमान आर्थिक-राजनीतिक गति के सत्ता समीकरण से छुटकारा पाकर राज्य को अपने मनोनुकूल ढालना चाहते थे। वे जानते थे कि केंद्र की भाजपा सरकार को अपनी आर्थिक-राजनीतिक विचारधारा और मशीनरी के वर्चस्व के लिए बिहार की जरूरत भले ही हो, उससे ज्यादा राज्य में भाजपा की जरूरत उन्हें अपने न्यस्त हितों के मनोनुकूल बिहार के शासन-प्रशासन को ढालने के लिए है। इस तरह के मतदाताओं के अलग-अलग स्तर चुनाव अभियान के दौरान स्पष्टत: उभरने लगे। 

सबसे पहले वह वर्ग है जो बेहतर अवसरों के लिए राज्य के बाहर आजादी के बाद से ही अपनी पहुंच सुगम पाता था। यह राज्य का पारंपरिक एलीट था। इसके एक हिस्से ने राज्य के बाहर रुतबा, शोहरत और धन अर्जित किया लेकिन उसे बाहर भेजने में, निवेश के लिए संसाधन राज्य की आर्थिक संरचना में उसकी हैसियत ने मुहैया कराए। यह हैसियत अक्सर उसकी उच्च सामाजिक हैसियत की बदौलत बनी थी जिसने इस वर्ग को 1980 के दशक तक राजनीतिक सत्ता में भी वर्चस्व की जगह दी थी। इस वर्ग का दूसरा हिस्सा अपनी हैसियत और वर्चस्व के तकाजों से रहा तो राज्य में, लेकिन अपने पहले हिस्से की बाहर अर्जित उपलब्धियों के लिए उसने निवेश किया। दोनों हिस्से एक-दूसरे से लाभान्वित हुए और यह चीज 1980 के दशक तक इस पूरे वर्ग को राज्य की सत्ता में अधिकांशत: वर्चस्वशील बनाए रही। यह वर्ग ज्यादातर अगड़ी जातियों और कुछ पिछड़ी दबंग जातियों के ऊपरी तबके से निर्मित है। इस वर्ग का सबसे मुखर हिस्सा वे युवा हैं जिन्हें राज्य के बाहर ऊपरी गतिशीलता के नए तरह के अवसर आकर्षित कर रहे हैं। 

बिहार में भाजपा के मतदाताओं का दूसरा वर्ग पिछड़ी और दलित जातियों के वे लोग और तबके हैं जिन्हें 1990 के बाद अगड़ी जातियों की राजनीतिक सत्ता छिनने और पूरे तंत्र पर उनकी पकड़ ढीली पड़ने का लाभ तो हुआ लेकिन पहले लालू के कुछ वर्चस्वशील पिछड़ी जातियों के दबंग नेतृत्व वाले तंत्र और फिर नीतीश कुमार के ज्यादा प्रतिनिधित्वपूर्ण और इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारी सार्वजनिक निवेश पर आधारित विकास तंत्र में जिनका नेतृवर्ग खुद को पर्याप्त वर्चस्व से वंचित पा रहा था। इन्हें और इनके जनाधार को भाजपा ने जातीय गौरव या धार्मिक अस्मिता या निजी महत्वाकांक्षा के आधार पर संगठित करने और साथ लाने की कोशिश की। इसका उदाहरण निषाद, कोइरी, मुसहर, दुसाध जैसी जातियां और जयनारायण निषाद/मुकेश साहनी, उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और रामविलास पासवान सरीखा उनका नेतृत्व है। भाजपा की ओर झुकते इसी मतदाता वर्ग में सेंध लगाने के लिए लालू प्रसाद ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयानों का लाभ उठाते हुए आरक्षण और अगड़े-पिछड़े का कार्ड बखूबी चला। 

इसी तरह जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के महागठबंधन को देखें। उनके समर्थक पिछड़े मतदाता केंद्र में भाजपा राज के रुझानों को बिहार में पिछले 25 सालों में आए सामाजिक समीकरणों में बदलाव के लिए घातक मानते हैं। इसलिए भाजपा के खिलाफ  होते हुए भी उन्हें मालूम था कि वे अभी केंद्र से ज्यादा बिहार को लेकर चिंतित हैं। इस मतदाता समूह के भी दो हिस्से हैं जिनके पास नीतीश और लालू को समर्थन के अलग-अलग कारण शुरू से दिखे। लालू को समर्थन पिछड़ों की पूर्ण राजनीतिक सत्ता के संस्थापक और अब उसके बचाव के लिए प्रयासरत होने की वजह से मिलता दिखा। हालांकि इस विषय पर लालू की आक्रामकता और संकीर्णता कई मतदाता तबकों को बिलगाती भी दिखी। जबकि नीतीश को समर्थन पिछड़े नेतृत्व में तंत्र को ज्यादा प्रतिनिधिपूर्ण, कानूनसम्मत और विकासोन्मुख बनाने के लिए दिखा। उनके समर्थन में महिलाएं ज्यादा मुखर दिखीं। हालांकि अगड़े एलीट के एक दबंग तबके को उनका पिछड़ा होना मात्र नागवार गुजरता रहा जो तभी तक सह्य था जब तक वह भाजपा के साथ थे। 

पर महागठबंधन के समर्थन में सबसे बड़ा एकजुट आधार निर्विवाद तौर पर राज्य के 17.2 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं का दिखा। वे निर्विवाद तौर पर भाजपा नेताओं के हाल में तेज हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से सबसे ज्यादा आशंकित दिखे क्योंकि अल्पसंख्यक होने की वजह से कई भाजपा नेताओं के आक्रामक बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद का खामियाजा अपने जान-माल और दोयम दर्जे की नागरिकता की कीमत पर पूरे देश में वही चुका रहे हैं। लेकिन वे भी शुरू से स्पष्ट थे कि अपने वोट से वे केंद्र में भाजपा राज नहीं बदल पाएंगे बल्कि राज्य में खुद को शिकार बनने से ही बचा पाएंगे। अगर महागठबंधन के अन्य मतदाता देश में भाजपा नेताओं की आक्रामक सांप्रदायिकता से विचलित दिखे तो इसलिए कि बिना मुस्लिमों संग एका रखे वे बिहार में समाजतंत्र के बदलावों को बचा नहीं पाएंगे। 

उपरोक्त सारे प्रसंग में देश और बिहार की राजनीतिक-आर्थिकी की दिशा और विकास तथा संपूर्ण समता एवं न्याय को लेकर बिहार चुनाव अभी कई प्रश्न अनुत्तरित छोड़ेगा, जिनकी तरफ  देखें, राजनीति एक इंच भी बढ़ती है या नहीं।

 

 

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