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जगेन्द्र सवाल उठाता था, सत्ता ने मार दिया

शाहजहांपुर के पत्रकार जगेन्द्र सिंह ने अपने मृत्‍युपूर्व बयान में खनन माफिया, स्मैक तस्करी और बलात्कार व हत्या आरोपी उत्तर प्रदेश के पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्यमंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा के इशारे पर पुलिस द्वारा उन्‍हें जिंदा जलाने की बात कही थी। इस घटना ने पूरे देश को सकते में डाल दिया है। लेकिन मामले में नामजद होने के बावजूद अभी तक मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा को गिरफ्तार नहीं किया गया है। आखिरकार जगेन्‍द्र की मौत के जिम्‍मेदार लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करते हुए उनके पूरे परिवार को अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठने को मजबूर होना पड़ा। परिवार के सदस्यों का आरोप है कि राज्यमंत्री राममूर्ति वर्मा उन पर मुकदमा वापस लेने का दबाव डलवा रहे हैं।
जगेन्द्र सवाल उठाता था, सत्ता ने मार दिया

गौरतलब है कि है कि जगेन्द्र सिंह ने मंत्री के भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए कई खबरें लिखी थीं और मारे जाने से पूर्व मंत्री द्वारा अपनी हत्या कराने का अंदेशा लिखित रूप में जाहिर किया था। जो लोग अखिलेश यादव सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल से वाकिफ हैं उनके लिए यह घटना आश्चर्यचकित करने वाली नहीं है। क्योंकि सत्ता की सरपरस्ती में चल रहे गुंडा व माफिया राज के खिलाफ सिस्टम के अंदर और बाहर से सवाल उठा रहे लोगों पर ऐसे हमले रोजमर्रा का हिस्सा हैं।

मसलन पिछले दिनों ही झांसी के तहसीलदार गुलाब सिंह, जो अपने क्षेत्र में खनन माफिया के खिलाफ खड़े थे, को सपा के राज्य सभा सांसद चन्द्रपाल सिंह यादव द्वारा फोन पर धमकी दी गई, जिसका आॅडियो क्लिप वाइरल भी हो चुका है। वहीं बिजनौर के एसपी अखिलेश कुमार भी अवैध खनन रोकने का खामियाजा तबादले के रूप में भुगत चुके हैं। दूसरी तरफ सिस्टम के बाहर के व्हिसल ब्लोवर बहराइच के आरटीआई कार्यकता गुरु प्रसाद शुक्ल को सूचना मांगने के चलते एक दबंग ग्राम प्रधान ने अपने गुंडों और स्थानीय पुलिस के साथ साजिश करके लाठी-डंडे से पीटकर मार डाला। इस सबके बीच पुलिस, माफिया और नेता का सबसे शर्मनाक नजीर पिछले दिनों ही मंजर पर आया है। जिसमें पूर्व पुलिस महानिदेशक अंबरीश चन्द्र शर्मा (जिन पर कानपुर में 2001 में हुए सांप्रदायिक हिंसा में निभाई गई भूमिका की जांच के लिए माथुर कमीशन जांच आयोग का गठन हुआ था) और जेल में बंद सपा नेता शैलेन्द्र अग्रवाल के बीच थानों व जिला पुलिस मुख्यालयों की बिक्री और स्थानांतरण के कारोबार का खुलासा होना है। जिसमें शर्मा और अग्रवाल के बीच बाॅलीउड के अंडरवल्र्ड माफिया किरदारों की तरह बकरा (बड़ा क्लाइंट), मुर्गा (छोटा क्लाइंट), मिठाई (1 करोड घूस़), शर्ट (1 लाख रुपए) कोड में बात हो रही है।

यानी कि एक तरह से देश के सबसे बड़े सियासी सूबे में पूरा सिस्टम ‘कोलैप्स’ कर चुका है। जिसके दुरुस्त होने की उम्मीद कोई भी सियासी समझ वाला आदमी नहीं कर सकता। क्योंकि प्रदेश सरकार इन घटनाओं पर लगाम लगाने के बजाए इन्हें सिर्फ विपक्षी दलों और संगठनों का दुष्प्रचार साबित करने में जुटी है और मुख्यमंत्री इसके लिए प्रत्येक जिले में अपनी पार्टी के कार्यकताओं की ‘दुष्प्रचार विरोधी टीम’ गठित कर रहे हैं। यानी आने वाले दिनों में ऐसी और घटनाओं के लिए जमीन तैयार है।

दरअसल सपा की बुनियादी दिक्कत यह हैं कि वह इन प्रवृत्तियों पर रोक ही नहीं लगा सकती। ये प्रवृत्तियां उसकी संरचना में निहित है। बिना इन प्रवृत्तियों के सपा, सपा नहीं रह जाती। यह गठजोड़ उसका सबसे बड़ा आर्थिक स्रोत है। इसीलिए हम पाते हैं कि अधिकतर मंत्रियों, विधायकों और नेताओं पर अवैध खनन कराने, खनन माफिया को संरक्षण देने और वसूली ‘सिंडिकेट’ के चलाने के गंभीर आरोप हैं। जाहिर है ‘नेता जी’ इस गठजोड़ के आर्थिक मूल्य को सबसे बेहतर तरीके से समझते हैं। इसीलिए ऐसी हर वारदात के चर्चा में आ जाने के बाद वे अपने मंत्रियों, नेताओं और कार्यकताओं से ‘सीमा’ में रहने और ‘पाटी’ (पार्टी) की छवि खराब न करने की हिदायत तो देते हैं पर कभी उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करते। जैसे कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पत्रकार प्रकरण में हुआ है। हत्यारोपी मंत्री अभी भी अपने पद पर कायम हैं और उल्टे इस प्रकरण को उठाने वाले (शायद व्यक्तिगत कारणों से) एक पूर्व स्थानीय सपा विधायक को ही अनुशासनहीनता का आरोप लगाकर पार्टी से निष्कासित कर दिया गया है।

बहरहाल, इस प्रकरण का एक और स्याह पक्ष भी है जिस पर खुल कर बात किए जाने की जरूरत है। आखिर सरकार के खिलाफ लिखने या भ्रष्टाचार को उजागर करने वाला पत्रकार व्यवस्था का इतना आसान शिकार क्यों होता जा रहा है? क्या इसकी वजह सत्ता और माफिया द्वारा आसानी से पत्रकारों के बीच ‘अपने’ और ‘विरोधी’ का आसान होता वर्गीकरण तो नहीं है? क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो क्या वजह है कि जिन सवालों को जगेन्द्र सिंह उठा रहे थे उन्हें शहर के बाकी अखबारों ने उसी शिद्दत से क्यों नहीं उठाया। अगर ऐसा होता तो क्या इसकी कल्पना की जा सकती है कि शहर से निकलने वाले आधा दर्जन अखबारों के पत्रकारों को जिंदा जलाने की हिम्मत ‘माननीय’ मंत्री करते? शायद नहीं।


दरअसल मीडिया जगत की एक तल्ख सच्चाई यही है कि बहुत सारी खबरों को तमाम सबूतों के बावजूद कोई ईमानदार पत्रकार अपने अखबारों में नहीं लिख सकता क्योंकि उसका संस्थान इसकी इजाजत नहीं देता। ऐसे में अगर वह उन खबरों को व्यक्तिगत खतरा मोल लेते हुए सोशल मीडिया पर जारी करता है तो बदले में जगेन्द्र सिंह की तरह जिंदा जला दिया जाता है। वहीं ऐसे पत्रकार जो पत्रकारिता के अलावां बाकी सब कुछ कर रहे हैं वे सुरक्षित ही नहीं सत्ता से संरक्षित भी हैं। मसलन सोनभद्र जो अवैध खनन का गढ़ है वहां दर्जनों पत्रकार खनन पट्टों के मालिक हैं। ऐसी स्थिति में समझा जा सकता है कि ईमानदार पत्रकारों को अकेले ही मरना होगा और उनके सहकर्मी शायद अपने व्यक्तिगत हितों और कहीं अपने मालिकों के डर से इमानदारी से एक मिनट का मौन भी नहीं रख सकते।

इसलिए जगेन्द्र सिंह की हत्या पर सिर्फ राजनीति को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। पत्रकार बिरादरी के अंदर अपने पेशेगत मूल्यों के प्रति कम हुई प्रतिबद्धता और घटती सामूहिकता भी इसके लिए जिम्मेदार है।

 
 
(लेखक रिहाई  मंच से जुड़े हुए हैं।)

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