आखिरकार जोड़-तोड़ की राजनीति हारी और लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत हुई। एक बार फिर साबित हो गया कि देश में लोकतंत्र की जड़े बहुत मजबूत हैं। तमाम कोशिशों और हथकंडों के बावजूद भाजपा कर्नाटक विधान सभा के पटल पर बहुमत के लिए जरूरी विधायकों का आंकड़ा नहीं जुटा पाई। अंततः भाजपा के महज दिन के मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा को विधान सभा में एक भावनात्मक भाषण के बाद मुख्यमंत्री पद से शनिवार को वोटों के बंटवारे के पहले ही इस्तीफा देना पड़ा।
जिस तरह से कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा को बहुमत नहीं होते हुए भी बी.एस. येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन देने का फैसला दिया था उसकी लगातार आलोचना हो रही थी। राज्यपाल के इस फैसले का सीधा मतलब था कि 104 विधायकों वाली भाजपा विपक्षी दलों कांग्रेस या जनता दल (एस) के विधायकों को तोड़कर या नैतिक अनैतिक लालच देकर बहुमत का जुगाड़ करेगी, क्योंकि 222 विधायकों के सदन में 112 विधायक बहुमत के लिए जरूरी थे। सदन में 78 विधायक कांग्रेस के हैं बसपा के एक विधायक के साथ 38 विधायक जनता दल (एस) गठबंधन हैं। वहीं केवल दो निर्दलीय विधायक हैं। ऐसे में बिना दलों में तोड़फोड़ किये भाजपा को बहुमत मिलना संभव ही नहीं था। लेकिन इसके साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिए जिस तरह से मामला से सुप्रीम कोर्ट में गया और सुप्रीम कोर्ट ने लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में फैसला दिया उससे साफ है कि न्यायपालिका ने लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए अहम भूमिका निभाई।
असल में इस पूरे प्रकरण में देश भर की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर ही लगी हुई थी और सुप्रीम कोर्ट ने जिस से रात भर सुनावाई करने के बाद येदियुरप्पा के शपथ ग्रहण को तो नहीं रोका लेकिन अपनी टिप्पणियों से न्याय की उम्मीद को जगा दिया। और अगले दिन विधान सभा में बहुमत साबित करने के लिए शनिवार चार बजे की समय सीमा तय कर विधायकों की खरीद फरोख्त की संभावनाओं को लगभग विराम दे दिया था। इसके बाद प्रो टेम स्पीकर की नियुक्ति को लेकर कांग्रेस के सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद नियुक्ति पर रोक नहीं लगाकर विधान सभा की कार्यवाही के टीवी पर लाइव प्रसारण के निर्देश और राज्य की पुलिस को जरूरी सुरक्षा मुहैया कराने के निर्देश पूरी स्थिति को पारदर्शी बनाने के लिए काफी थे। इसलिए तमाम मुद्दों और परिस्थितियों को देखते हुए इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका सबसे अहम रही है और लोकतंत्र की बुनियाद और मजबूत हुई है।
जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है तो सब अपने दांव खेल रहे थे और अपनी रणनीति बना रहे थे। भाजपा को इस बात का सबसे अधिक अफसोस है कि दक्षिण के राज्यों में अपनी पकड़ बनाने के लिए लंबे समय बाद उसे एक बार फिर मौका लगभग मिल गया था। लेकिन बहुमत से कम सीटें मिलने के चलते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चमत्कारिक छवि का पूरी फायदा पार्टी की नहीं मिल पाया और वह सरकार बनाने से चूक गई।
हालांकि पार्टी की कमजोरी का अहसास चुनाव के नतीजों के दिन 15 मई को ही हो गया था जब पार्टी के दिल्ली मुख्यालय में शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की मौजूदगी में जो जश्न मनाया जाना था वह काफी हद तक फीका ही रहा। लेकिन राजनीतिक पंडित मान कर चल रहे थे कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह का रणनीतिक कौशल और पार्टी के मैनेजरों की अभूतपूर्व क्षमता इस संकट का निदान खोज लेगी और पार्टी को बहुमत जुटाने में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन यहीं पर शायद उनसे भूल हो गई। यही वजह है कि पूरी तैयारी के बिना ही सादे समरोह में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की शपथ तो दिलवा दी गई लेकिन उस तेजी से तैयारी नहीं की गई जिससे विपक्ष कर रहा था।
असल में इस पूरे घटनाक्रम में कई ऐसी बातें सामने आई हैं जो विपक्षी खेमे को मजबूत करती दिखती हैं। पहली तो यह कि केंद्र और 21 राज्यों में सत्ता पर काबिज भाजपा कांग्रेस व जनता दल (एस) के विधायकों को नहीं तोड़ पाई। कांग्रेस और जनता दल (एस) का विधायकों को एकजुट रखना साबित करता है कि उनकी रणनीति भाजपा से बेहतर थी। असल में जिस तरह से चुनाव नतीजों के पहले दिन से ही कांग्रेस और जनता दल (एस) ने रणनीति बनानी शुरू कर दी थी उसने इस गठबंधन को भाजपा से आगे कर दिया था। दोपहर तक नतीजों में बढ़त के चलते जश्न मना रही भाजपा का चेहरा उस समय फक्क रह गया जब कांग्रेस ने जनता दल (एस) को कुमारस्वामी के नेतृत्व में सरकार बनाने के लिए बिना शर्त समर्थन दे दिया। वहीं सोनिया गांधी की एचडी देवेगौड़ा से बातचीत और कांग्रेस के वरिष्ठ रणनीतिकार अशोक गहलौत, गुलाम नबी आजाद का बेंगलूरू में जम जाना और कुमारस्वामी के साथ राज्यपाल के पास जाना व दावा पेश करने का घटनाक्रम चौंकाने वाला था। साथ ही सिद्धरमैया का पूरे मामले में तत्परता से भूमिका में आना और पूरी कांग्रेस का एकजुट दिखना अहम रहा।
पूरे मामले में कांग्रेस नेता डीके शिवकुमार की भूमिका को अहम माना जा रहा है क्योंकि विधायकों को एकजुट रखने का जिम्मा उनके ऊपर ही था। वहीं जनता दल (एस) विधायकों के एकजुट रखने के साथ ही कुमारस्वामी का परिवार के पुराने मतभेदों को दूर करने की कवायद बहुत पुख्ता रही। यही नहीं जिस तरह से देश भर से विपक्षी दलों ने इस पूरे प्रकरण में एकजुटता दिखाई उसने भाजपा को बैकफुट पर ला दिया। साथ ही 2019 में भाजपा के सामने एक बेहतर तालमेल और एकजुट विपक्ष की संभावनाओं के दरवाजे खोल दिये हैं।
इस पूरे प्रकरण से यह बात साबित हो गई है कि भले ही ताकतवर पार्टी राज्यपाल की ताकत का अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश में कुछ हद तक कामयाब हो जाए लेकिन लोकतंत्र और न्यायिक व्यवस्था अभी भी देश में बहुमत है और सच की जीत का रास्ता बनाने की क्षमता रखती है।