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आप का एजेंडा क्या है

क्या आम आदमी पार्टी (आप) सचमुच लोकतांत्रिक मूल्यों या सामाजिक सरोकारों के लिए लड़ना चाहती है या जैसे-तैसे चुनाव जीतना ही इसका पहला मक़सद है? पार्टी के भीतर चल रही उथल-पुथल से यह अहम सवाल पैदा होता है।
आप का एजेंडा क्या है

प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव वाले मुद्दे में जिस तरह सवालों के बजाय सवाल उठाने वालों को ही ख़त्म करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है, वह पार्टी के प्रभावशाली नेताओं की निरंकुशता की एक बानगी भर है। चर्चा है कि केजरीवाल गुट के निशाने पर अब पार्टी के ओम्बुड्समैन एडमिरल रामदास हैं।

ताजा घटनाक्रम को देखते हुए अगर आप की तुलना कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी जैसी परंपरागत और घाघ पार्टियों से की जाए तो यह पार्टी भी धीरे-धीरे उन्हीं परंपरागत पार्टियों के पदचिह्नों पर चलती नज़र आ रही है। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के बदले यहां भी हाईकमान संस्कृति का बोलबाला दिखाई देने लगा है। स्वराज के नाम पर मोहल्ला सभाएं करने वाली पार्टी के भीतर ही स्वराज की प्रवृत्तियां नहीं नजर आती हैं।  

कोई भी पार्टी जब सत्ता में होती है तो उससे फायदा उठाने के लिए तरह-तरह के तत्व सक्रिय हो जाते हैं। कई बार पार्टी के भीतर तिकड़मी लोग अपना वर्चस्व भी बना लेते हैं। ऐसे में व्यक्तिगत स्वार्थों का बहुमत जनहितों पर हावी होने लगता है  और जनता के सवाल हाशिये में चले जाते हैं। तिकड़मियों की तरफ से सेट किया गया एजेंडा मुख्य हो जाता है। 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप की अप्रत्याशित जीत के बाद इस तरह के लोग बड़ी संख्या में पार्टी से जुड़कर उसके निर्णयों को प्रभावित करने लगे। आशीष खेतान और आशुतोष जैसे लोग इसका एक छोटा सा उदाहरण हैं। आप में फिलहाल जो कुछ भी चल रहा है, वैचारिक ईमानदारी से बचते हुए सत्ता के शॉर्टकट में चलने का उतावलापन वहीं से आ रहा है। ऐसे लोग पार्टी के निर्णायक पदों पर लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का खुलेआम मखौल उड़ा रहे हैं। यही वजह है कि न तो दिल्ली सरकार में कोई महिला है और न ही उत्पीड़ित समुदाय का कोई व्यक्ति। पार्टी की पीएसी में भी कोई महिला नहीं है।   

यह बात सही है कि अरविंद केजरीवाल ने एक खास तरह की लोकप्रियता हासिल की है। वह भीड़ खींचने और एजेंडा सेट करने में माहिर हैं यानी उनमें यह काबिलियत है कि पहले जनता को सोचने के लिए कोई मुद्दा दिया जाए, फिर उसे बताया जाए कि उस मुद्दे पर कैसे विचार करना है। एजेंडा सेटिंग में कई बार फर्जी और जन-विरोधी एजेंडे को महत्वपूर्ण बताकर जनता को बेवकूफ बनाया जा सकता है तो कई बार जनहित के मुद्दे को भी सामने लाया जा सकता है। आपका एजेंडा कैसा होगा यह आपकी नीयत पर निर्भर करता है। गैरजरूरी मुद्दों को जनता के बीच लोकप्रिय बनाने की राजनीति को ही हम पापुलिज्म या लोकलुभावनवाद के नाम से जानते हैं। केजरीवाल इस कला में उस्ताद हैं। वर्तमान विवाद में भले ही केजरीवाल खुद ज्यादा मुंह नहीं खोल रहे हों, आप की राजनीति पर नजर रखने वाले जानते हैं कि उनके गण उनकी ही भाषा बोल रहे हैं।

आज की राजनीति में भंगिमाओं, मुद्राओं और अभिनय की काफी अहमियत हो चुकी है। मीडिया भी एक तरह का मीडियाकृत यथार्थ गढ़ता है इसलिए आप का अंदरूनी युद्ध मीडिया में भी लड़ा जा रहा है। अगर मीडिया में योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रोफेसर आनंद कुमार और अजीत झा जैसे लोगों के खिलाफ माहौल बन जाता तो केजरीवाल गुट उन्हें निकालने में एक पल नही लगाता। लेकिन हालात फिलहाल ऐसे नहीं हैं। आप कार्यकर्ता और मीडिया का एक हिस्सा भी केजरीवाल गुट के निर्णयों पर सवाल उठा रहा है।

अपने जन्म के समय आप ने अपना मुख्य एजेंडा भ्रष्टाचार विरोधी राजनीति को स्थापित करना बनाया था। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी में जिस तरह लोकलुभावन मुद्दों को उठाकर वास्तविक लोकतंत्र और सत्ता के विकेंद्रीकरण के मुद्दे को दरकिनार किया है। वह अपने आप में खतरनाक है। पार्टी में पत्रकार से नेता बने आशुतोष जैसे अरविंद केजरीवाल के क़रीबी लोग जिस तरह पॉलीटिकल अफेयर्स कमेटी (पीएसी) को भंग कर सारी ताकत अरविंद के हाथ में सौंपने का अभियान चलाए हुए हैं, उससे पता चलता है कि आप में किस तरह की व्यवक्तिवादी राजनीति के पक्ष में एजेंडा सेट करने की कोशिश हो रही है। प्रशांत और यादव को पहले ही पीएसी से किनारे लगाया जा चुका है।

केजरीवाल के करीबी आशुतोष जब आइबीएन-7 चैनल में मैनेजर/एडिटर थे तो उन पर करीब तीन सौ पत्रकारों को निकालने का आरोप था। चैनल पर अंबानी का मालिकाना होते ही आशुतोष नए मैनेजमेंट के फैसले को लागू करने में जुट गए थे। यह बात और है कि बाद में उन्हीं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। अब वही आशुतोष, केजरीवाल की कोटरी से बयान दे रहे हैं कि पार्टी में वामपंथी कट्टरपंथ और कल्याणकारी राजनीति के बीच संघर्ष चल रहा है जबकि प्रशांत भूषण और अरविंद केजरीवाल का वामपंथी कट्टरपंथ से कुछ लेना-देना नहीं है। भूषण मानवाधिकारों के पक्ष में सक्रिय रहे हैं तो यादव भारतीय समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे हैं। आप में जाने के बाद योगेंद्र यादव ने जब विचारधारा की ही जरूरत को नकार दिया था तो मार्क्सवादी वामपंथ की तरफ से उनकी आलोचना भी हुई थी। इस पृष्ठभूमि को जानते हुए भी जब केजरीवाल गुट पार्टी के भीतर उठाये गये सवालों से कन्नी काटकर एक नया एजेंडा सेट करने की कोशिश करता है तो यह असली मुद्दे से ध्यान हटाने के अलावा और कुछ नहीं है।

इस महीने की 28 तारीख को पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक होनी है। इसमें देशभर के 300 पार्षद हिस्सेदारी करेंगे। बैठक से पहले अलग-अलग राज्यों से आने वाले पार्षदों को फोन कर उन्हें केजरीवाल के पक्ष में एकजुट करने की कोशिशें जारी हैं। इस बीच पार्टी के भीतर एकजुटकता की खबरों के साथ-साथ यह भी खबर आ रही है कि इस बैठक में योगेंद्र और प्रशांत को पार्टी से बाहर निकाला जा सकता है। आप अगर अपने भीतर उठ रहे सवालों की इसी तरह अनदेखी करती रही तो भविष्य में यह पार्टी भले ही देश की सत्ता में आ जाए लेकिन इसे कांग्रेस और भाजपा की कार्वन कॉपी बनने से कोई नहीं रोक सकता।

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