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किशोर न्याय विधेयक की बड़ी खामियां

हमारी सरकार यह कहकर जनता का समर्थन जुटा रही है कि नया किशोर न्याय विधेयक 16 से 18 साल के उन बच्चों के लिए है जो वयस्कों की तरह जघन्य अपराध को अंजाम देते हैं लेकिन इसमें उसी पहलू को नजरअंदाज कर दिया गया है जिसके लिए यह विधेयक बनाने का सुझाव दिया गया था।
किशोर न्याय विधेयक की बड़ी खामियां

इसके कई प्रावधानों में बाल अधिकार एवं संव‌िधान संबंधी चिंताओं के अलावा कई गंभीर और हानिकारक खामियां हैं। ये प्रावधान आपराधिक प्रणाली और कानून की बुनियादी समझ को भी निरर्थक बना देते हैं।

यहां विधेयक के कुछ दृष्टांत इस प्रकार हैंः

  1. अपराध की परिस्थितियां-किशोर न्याय विधेयक (जेजेबी) ने जिन तीन वजहों से किसी बच्चे के अपराध को वयस्क आपराधिक न्याय प्रक्रिया की श्रेणी में रखा गया है, उनमें से एक वजह ‘अपराध की परिस्थितियां’ भी हैं। जेजेबी के पास इसकी  ‘प्रारंभिक जांच’ के लिए एक महीने का वक्त दिया गया है। यह वक्त का सवाल नहीं है। समय बढ़ा देना कोई समाधान नहीं है क्योंकि इस प्रावधान की समस्या इससे नहीं सुलझ सकती। आपराधिक मामले से ताल्लुक रखने वाला कोई भी व्यक्ति जानता है कि ‘अपराध की परिस्थितियों’ के हमेशा दो स्वरूप होते हैं। एक शिकायतकर्ता के अर्थ में तथा दूसरा आरोपी के अर्थ में। अपराध कानून में अदालतें मुकदमे के जरिये इसका फैसला करती हैं जिसमें साक्ष्य और उसकी परस्पर जांच को शामिल किया जाता है जबकि प्रत्येक पक्ष को अपने बयान के समर्थन में दलीलें और साक्ष्य पेश करने का समान अवसर दिया जाता है। यहां ‘प्रारंभिक जांच’ की प्रक्रिया इन सब चरणों के बगैर ही पूरी हो रही है। इसका मतलब है कि मजिस्ट्रेट के पास ‘अपराध की परिस्थितियों’ के तौर पर सिर्फ शिकायतकर्ता या पुलिस के बयान ही पेश किए जाएंगे। यह न सिर्फ अन्यायपूर्ण है बल्कि अपराध कानून के बुनियादी सिद्धांतों के भी विपरीत है। यदि मैं किसी निर्णय से आहत हुआ हूं तो मुझे शिकायतकर्ता या पुलिस के बयानों के खिलाफ प्रभावी रूप से कुछ कहने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए जिसका प्रावधान इस नए विधेयक में नहीं है। यदि यह विधेयक कानून का रूप ले लेता है तो निर्दोषों को बेवजह प्रताड़ित होना पड़ेगा।
  2. ‘शारीरिक डील-डौल के हिसाब से उम्र का निर्धारण पहला विकल्प है’

दूसरी बड़ी समस्या ‘उम्र संबंधी जांच’ है जिसका प्रावधान धारा 95 के तहत रखा गया है। उम्र निर्धारण की प्रक्रिया को मजबूत करने के बजाय इस विधेयक में इसे बहुत हद तक अनर्थकारी बना दिया गया है। इसमें जेजेबी को शारीरिक डील-डौल के आधा‌र पर उम्र निर्धारण करने की छूट दे दी गई है और सिर्फ उसी मामले में दस्तावेज की जांच का प्रावधान है जहां ‘संदेह का उचित आधार’ बनता है। भारत जैसे देश में न्यायिक व्यवस्‍था में पहले से ही बहुत सारे मामले लंबित हैं और अब इनकी संख्या इस हद तक पहुंच गई है कि किसी न्यायिक अधिकारी का प्रदर्शन मूल्यांकन इसी आधार पर किया जाता है कि उन्होंने ‘अब तक कितने मामले सुलझाए हैं?’  ऐसे में कौन कहेगा कि  ‘मेरे पास संदेह का उचित आधार है’ और उम्र की विस्तृत जांच कराने में समय बिताना पसंद करेगा। सिर्फ अमीर ही किसी वकील का खर्च उठाकर उससे उम्र संबंधी उचित जांच करवा सकता है, किसी वकील का खर्च उठाने में असमर्थ गरीब या उपेक्षित व्यक्ति संदेह का उचित आधार बताने की दलील देने में भी सक्षम नहीं हो सकता और ऐसे लोगों को ही शारीरिक ‌डील-डौल के आधार पर उम्र की जांच कराने का सामना पड़ेगा।

  1. चिकित्सकीय आधार पर उम्र निर्धारण के लिए हड्डियों की दृढ़ता जांचने की प्रक्रिया

बोन ऑसिफिकेशन यानी हड्डियों की दृढ़ता जांचने की प्रक्रिया में दो साल ऊपर-नीचे की त्रुटि बनी रहती है जबकि इसके विपरीत 2000 के जेजे अधिनियम में ‘यथोचित गठित चिकित्सा बोर्ड’ के मौजूदा प्रावधान में तीन प्रकार की जांच को शामिल किया गया है- (1) बोन ऑसिफिकेशन टेस्ट (2) दांतों की जांच और (3) शारीरिक जांच। इन सभी जांचों में महज छह माह की त्रुटि हो सकती है। नए विधेयक में ‘यथोचित गठित चिकित्सा बोर्ड’ के प्रावधान को दरकिनार कर दिया गया है और इसकी जगह जेजेबी के लिए पहले विकल्प के तौर पर ‘बोन ऑसिफिकेशन’ की अप्रचलित और पुरानी तकनीक को लाया गया है। अब यदि चिकित्सा जांच की संभावित खामियों को दूर करने का ही मन बना लिया गया है तो फिर ‘बोन ऑसिफिकेशन जांच’ के प्रावधान को भी नहीं शामिल किया जाना चाहिए।

  1. किसी बच्चे का अपराध सिद्ध होने से पहले या तहकीकात पूरी होने से पहले और उसके खिलाफ आरोप-पत्र दाखिल होने से पहले किशोर न्यायिक बोर्ड उसके साथ वयस्क जैसा सलूक करने का फैसला कर सकता है।

यह सही है। किसी बच्चे पर आरोप-पत्र दाखिल होने से पहले या मुकदमा शुरू होने से पहले उसके साथ वयस्क जैसा बर्ताव किया जा सकता है। लेकिन बाद में जो बच्चे निर्दोष करार देते हुए बरी कर दिए जाएंगे, उनका क्या होगा?

 अधिवक्ता एवं बाल अधिकार विशेषज्ञ, दिल्ली हाईकोर्ट

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