यह किसी क्षेत्र में हर 40 की आबादी को काबू में करने के लिए एक सशस्त्र सुरक्षा कर्मी हो जो अंग्रेजों के कब्जे के दौरान भी भारत में कभी नहीं रहा, यही कहीं सशस्त्र बलों में लगातार 50 वर्षों से अधिकार हो कि किसी को संज्ञेय अपराध करने के इरादा रखने के आरोप में भी गोली से उड़ा दें और इसकी कानूनी समीक्षा का भी प्रावधान न हो, जैसा अनियंत्रित कानूनी अधिकार रखने को ब्रिटिश मुकुट के अधीन भारत में भी सुरक्षाकर्मी तरस जाते, यदि कहीं की सरकार ही माने कि पुलिस ने महज 9 महीने में सिर्फ 26 लाख की आबादी पर 260 विद्रोहियों को गोली से उड़ा दिया है यानि लगभग प्रतिदिन एक व्यक्ति को गोली से उड़ाया है, यही कहीं फौज को अनियंत्रित कानूनी अधिकार के खिलाफ लगातार 10 साल से एक औरत आमरण अनशन कर रही हो, जैसा इस अहिंसक राजनीतिक हथियार के जनक महात्मा गांधी ने भी कभी नहीं किया, और उस औरत को कैद में जबरन नाक के रास्ते तरल खाद्य देकर सरकार ने येन केन प्रकारेण जिंदा रखा हो, तो उस क्षेत्र को क्या आप आजाद कहेंगे? हम इतिहास में औपनिवेशिक गुलामी के अधीन किसी देश की बात नहीं कर रहे। न हम बर्बर टिनहा फौजी तानाशाही के अधीन लैटिन अमेरिका या अफ्रीका के किसी बनाना रिपब्लिक की बात कर रहे हैं। यदि लैटिन अमेरिकी उपन्यासकारों द्वारा अदभूत तीखेपन के उकेरे गए प्रशासकीय भ्रष्टाचार, तिकड़मी राजनीति, तस्करी, सशस्त्र बागी समूहों और खूंरेजी के गठजोड़ वाले किसी बर्बर प्रदेश का आसपास साक्षात अनुभव लेना हो तो आप मणिपुर जा सकते हैं। जी हां, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, अति प्राचीन सभ्यता, तीव्र विकास दर वाली उभरती अर्थव्यवस्था और भावी महाशक्ति की ख्याति के दावेदार भारत के उत्तरपूर्व का एक छोटा सा राज्य जहां सी. उपेन्द्र जैसे न्यायाधीश भी रोते हैं। कि अब तक उन्होंने पुलिस मुठभेड़ में मौतों के जिन 12 मामलों की न्यायिक जांच की उनमें सभी मुठभेड़े फर्जी थीं लेकिन राज्य सरकार ने उन्हें सार्वजनिक नहीं किया।
इक्का-दुक्का अपवादों को छोडक़र, वैश्विक द`ष्टि का दावा करने वाले भारतीय महानगरों के अंग्रेजी मीडिया में मणिपुर क्या पूरा उत्तर पूर्व एक फुटनोट ही होता है। वह भी बागी भूमिगत गुटों की हिंसा के कारण। राष्ट्रभाषा होने का दावा करने वाली हिंदी के मीडिया से तो इसी राष्ट्र का हिस्सा माना जाने वाला मणिपुर अमूमन गायब ही होता है और उत्तर पूर्व में असम अगर यदा-कदा चर्चा में आता भी है तो बिहारियों, झारखंडियों पर उग्रवादी हमले के कारण या अरूणाचल प्रदेश की चर्चा होती है तो चीनी दावेदारी के हंगामें के कारण। हिंदी के एक्टिविस्ट संपादक प्रभाष जोशी के निधन के बाद की चर्चा में यह प्रसंग जरूर आया कि वह 5 नवंबर को नागरिकों की एक टीम के साथ मणिपुर जाना चाहते थे लेकिन यह टीम मणिपुर की जिन उपरोक्त परिस्थितियों के बारे में एक तथ्यान्वेषण मिशन पर वहां जा रही थी उसका जिक्र ओझल ही रहा। और जिस ऐतिहासिक अवसर पर यह टीम मणिपुर जा रही थी उसका जिक्र तो भला कितना होता? यह ऐतिहासिक अवसर था 37 वर्षीय इरोम शर्मिला के आमरण अनशन के दसवें वर्ष में प्रवेश का। गांधी और नेल्सन मंडेला की जीवनी सिरहाने रखे बंदी परिस्थितियों में इंफाल के एक अस्पताल में अनशनरत अहिंसक वीरांगना के नाक में टयूब के जरिये जबरन तरल भोजन देकर सरकार जिंदा रखे हुए है। अपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी पिता और अपढ़ माता की नौवीं संतान शर्मिला सन 2000 में असम राइफल्स के जवानों पर बागियों की बमबारी के जवाब में सशस्त्र बलों द्वारा एक बस स्टैंड पर 10 निर्दोष नागरिकों को भूने जाने की खबरें अखबारों में पढक़र और तस्वीरें देखकर तथा उन सुरक्षाकर्मियों को सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम के कारण सजा की कोई संभावना न जानकर इतना विचलित हुई कि उन्होंने इस तानाशाही कानून के खिलाफ आमरण अनशन का फैसला ले लिया।
सशस्त्र बल का विशेष अधिकार अधिनियम, 1958, जो सिक्किम छोडक़र उत्तरपूर्व के सभी राज्यों में लागू है, सेना तथा अन्य अर्धसैनिक बलों को यह अधिकार देता है कि वे महज शक के आधार पर संज्ञेय अपराध करने का इरादा रखने वालों को गोली से उड़ा सकते हैं। इस अधिकार का वे दुरुपयोग करें या इसके इस्तेमाल में गलती करें तो भी उनके खिलाफ कोई मुकदमा बिना केंद्र सरकार की अनुमति के नहीं दर्ज हो सकता। न आम मणिपुरी की दिल्ली तक पहुंच है, और न यह अनुमति ही कभी हासिल होती है क्योंकि सरकार सुरक्षा बलों के मनोबल गिरने के तर्क की आड़ लेती है। इस अत्याचारी कानून ने मणिपुर की आम जनता में इतना विलगाव पैदा किया है कि 1958 में जब यह मणिपुर में लागू हुआ तो वहां सिर्फ 4 सशस्त्र विद्रोही गुट थे जबकि आज 40 से ज्यादा हैं। मणिपुर में मुसलमान भी इतने नहीं है कि आप अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी जेहादियों के सिर बढ़ती बगावत का ठीकरा फोड़ दें। न पाकिस्तान पास में है कि उसका आसान बहाना हो। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे हिंदुत्ववादी संगठन उत्तरपूर्व में विलगाव और बगावत का सारा दोष ईसायत को देते हैं। लेकिन मणिपुर इसे झुठलाता है क्योंकि वहां बहुसंख्यक मेइती वैष्णव बसते हैं और उसे कृष्ण पौत्र अनिरुद्ध एवं उसकी प्रेमिका-पत्नी ऊषा का प्रदेश मानते हैं। कहीं न कहीं भारतीय राष्ट्रीय राज्य को अपने अंदर झांकना होगा कि उसकी किन गलतियों की वजह से इतने सीमावर्ती राज्यों में विलगाव की भावना की भावना पनपी। उसे इन प्रदेशों की स्वायत्त अस्मिताओं को सम्मानित करना सीखना होगा। उत्तरपूर्व में सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे दमनकारी कानून का जुआ ढीला करना इस दिशा में पहला कदम हो सकता है।
सन् 2004 में मणिपुर के व्यापक जन विरोध के बाद केंद्र सरकार ने सशस्त्र बल कानून के बारे में विचार के लिए जीवन रेडडी कमेटी बनाई। इस कमेटी ने यह कानून खत्म करने का सुझाव तो दिया लेकिन इसके दमनकारी प्रावधान गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून, 1967 में शामिल करने की अनुशंसा कर दी। बाद में वर्तमान कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के अध्यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने इसका अनुमोदन करते हुए कानून के दुरुपयोग की शिकायतों के निपटारे के लिए जिला स्तर पर शिकायत कोषांगों के गठन की सिफारिश की। मणिपुर के बबलू लोइटंगबाम जैसा प्रमुख मानव अधिकार कार्यकर्ता इसे आधा-अधूरा मानते हुए भी पहले कदम के रूप में स्वीकार करने को तैयार है। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने हाल में कहा है कि केंद्र सशस्त्र बल कानून में मानवीय संशोधनों पर विचार कर रहा है। जल्दी सही निर्णय लीजिए मंत्री जी।