योजना आयोग के निरस्तीकरण के बाद बने नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया का ब्लॉग इस निकाय के पहले आधिकारिक संवादों में से एक है। इस ब्लॉग की अच्छी बात यह है कि अर्थव्यवस्था में जरूरी ढांचागत बदलाव को लेकर इसमें कुछ हद तक सरकार की दीर्घकालीन सोच का पता चलता है। उन्होंने अपने पहले आधिकारिक संवाद के विषय के तौर पर कृषि और ग्रामीण विकास के मुद्दों को उठाया है। यह एक सराहनीय कदम है। कृषि और ग्रामीण क्षेत्र की अब तक अनदेखी करती आ रही वर्तमान सरकार की अब तक की घोषणाओं से यह एक स्वागतयोग्य प्रस्थान है। लेकिन मौजूदा कृषि एवं ग्रामीण संकट का जिक्र न होना सरकारी प्राथमिकताओं का स्पष्ट संकेत देता है।
सामान्यत: उपाध्यक्ष के ब्लॉग पोस्ट से हमें असहमति नहीं है। सच तो यह है कि भारत की बड़ी आबादी अब भी कृषि पर निर्भर है और इस वास्तविकता से सभी अवगत हैं। यह भी सर्वविदित है कि कृषि से जुड़े ज्यादातर लोग निम्न उत्पादकता चक्र में फंसे हुए हैं और मौका मिलते ही कृषि से बाहर निकल आते हैं। यह बात 2003 में कराए गए स्थिति आकलन सर्वे से जितनी स्पष्ट थी, उससे कहीं ज्यादा 2013 के स्थिति आकलन सर्वे से स्पष्ट हो गई। दोनों सर्वेक्षण राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ने कराए गए थे। विडंबना यह नहीं कि कृषि के रोजगार से ज्यादातर लोग नाखुश हैं और इससे बाहर निकलने की इच्छा रखते हैं बल्कि यह है कि 2003 से लेकर 2013 के दस वर्षों के दौरान भारत में न सिर्फ ऐतिहासिक रूप से अर्थव्यवस्था का सबसे तेज विकास हुआ है बल्कि इस अवधि के दौरान भारतीय इतिहास में सबसे कम रोजगार विकास भी दर्ज किया गया है। आंकड़े बताते हैं कि सन 2004-05 से लेकर 2011-12 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था औसतन 8 प्रतिशत से अधिक की दर से विकसित हुई है जबकि प्रतिवर्ष 0.5 प्रतिशत से भी सालाना विकास दर के साथ सिर्फ 1.40 करोड़ रोजगार ही सृजित हुए हैं। यह संख्या आबादी की विकास दर या कामकाजी उम्र वाली आबादी से बहुत कम है।
जिस मुद्दे पर गंभीरता से ध्यान दिए जाने की जरूरत थी वह हैः पिछले जिस दशक के दौरान अर्थव्यवस्था में सबसे तेज विकास हुआ, उसी अवधि में अर्थव्यवस्था की विकास दर सबसे धीमी क्यों रही? इस लिहाज से पूर्ववर्ती कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से विनिर्माण एवं सेवाओं पर आधारित अर्थव्यवस्था में सफल संक्रमण के लिए सिर्फ रोजगारविहीन विकास का मुद्दा ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि लंबे समय तक विकास की गति बनाए रखने का मुद्दा भी उतना ही महत्वपूर्ण है। उपाध्यक्ष ने यदि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट के मूल कारण पर गौर किया होता तो उन्हें इनमें से कुछ मुद्दे समझ में आ जाते। अर्थव्यवस्था की दीर्घकालीन उन्नति में भी कृषि की भूमिका यदि ज्यादा नहीं तो उतनी ही महत्वपूर्ण होती है जितना कि सेवा और विनिर्माण क्षेत्रों से होने वाले विकास की।
पनगढ़िया का यह कहना उचित है कि राष्ट्रीय आय में कृषि के निम्न योगदान और कृषि क्षेत्र के सीमित विकास को देखते हुए कृषि क्षेत्र विकास इंजन नहीं हो सकता। पिछले एक दशक के दौरान कृषि क्षेत्र में 4 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है जबकि इसी दौरान अर्थव्यवस्था में संपूर्ण वृद्धि 8 प्रतिशत से भी अधिक की दर से हुई है। इस लिहाज से वह सही हैं कि 8 से 10 प्रतिशत की दर से विकास की इच्छा रखने वाली किसी भी अर्थव्यवस्था को सेवा एवं विनिर्माण क्षेत्र में विकास पर ही निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन यहां वह यह भूल गए कि अपने सभी उदाहरणों में उन्होंने पूर्वी एशिया और अन्य देशों का जिक्र तो किया है जहां कृषि क्षेत्र विकास इंजन नहीं रहा है लेकिन यह जिक्र करना भूल गए कि कोई भी देश कृषि की अनदेखी करते हुए विकास की राह पर नहीं बढ़ा है। दरअसल, चीन सहित पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक अच्छी मिसाल हैं कि इन देशों में यदि कृषि क्षेत्र का अच्छा प्रदर्शन नहीं रहता तो वे 8 प्रतिशत से अधिक की स्थायी दर से विकास नहीं कर सकते। इन सभी देशों में विकास की गति भूमि सुधार सहित कृषि उत्पादकता में तीव्र वृद्धि से ही स्थिर बनी हुई है। ज्यादातर देशों में यह भी सच है कि कृषि क्षेत्र का अच्छा प्रदर्शन शुरू होने के बाद ही वहां विकास को रफ्तार मिली है। ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि किसी भी देश ने कृषि क्षेत्र के अच्छे प्रदर्शन के बगैर विकास गति को बरकरार रखा हो और पनगढ़िया को इस बिंदु का उल्लेख करना चाहिए था।
कृषि और कृषिगत निवेश को तरजीह देने का इससे भी महत्वपूर्ण कारण वह है जो उन्होंने विनिर्माण और सेवा क्षेत्र पर गलत चस्पा किया है। पिछले दस वर्षों के दौरान गरीबी में तेजी से आई कमी कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका का स्पष्ट परिचायक है। शंकालुओं का भी मानना है कि गरीबी में कमी का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र की तीव्र विकास दर, कृषि के पक्ष में व्यापार में बदलाव और ग्रामीण मजदूरी में तीव्र वृद्धि ही है। इन सबकी उत्पत्ति कृषि क्षेत्र के विस्तार से ही हुई है। लेकिन जिस बात पर कम ध्यान दिया गया, वह यह है कि इसी अवधि में आजाद भारत के इतिहास में पहली बार कृषि से जुड़े श्रमिकों की संख्या में बड़ी गिरावट दर्ज की गई। लगभग 3.5 करोड़ श्रमिक कृषि छोड़कर गैर-कृषिगत क्षेत्र से जुड़े। यह भी कृषि क्षेत्र के अच्छे प्रदर्शन के बगैर संभव नहीं था। संकेत स्पष्ट है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के किसी भी ढांचागत बदलाव के लिए कृषि क्षेत्र की तरक्की जरूरी है।
इसी जगह पनगढ़िया को याद दिलाने की जरूरत है कि रोजगार सृजन सिर्फ विनिर्माण और सेवा क्षेत्र की तीव्र वृद्धि के कारण नहीं हुआ। पिछले दस वर्षों के दौरान विनिर्माण और सेवा क्षेत्र का तीव्र विकास रोजगार के उतने अवसर पैदा नहीं कर सका, जितने की अपेक्षा की गई थी। दरअसल विनिर्माण क्षेत्र के रोजगार में गिरावट ही आई जबकि सेवा क्षेत्र के रोजगार में मामूली वृद्धि रही। कृषि से पलायन कर चुके एकमुश्त श्रमिकों को निर्माण क्षेत्र में खपाया गया, इनमें से तकरीबन 80 प्रतिशत श्रमिक भवन निर्माण और सरकारी योजना के तहत चल रहे निर्माण कार्य में लगाए गए। इस बात की तहकीकात करने की जरूरत है कि सबसे तेज गति से विकास कर रहे विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों से रोजगार सृजन क्यों नहीं हो पाया। दुर्भाग्यवश इसका हल श्रम कानून में नहीं है जैसाकि पनगढ़िया हमें बताने का प्रयास करते हैं। लेकिन वह विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के विकास के चरित्र में ही निहित है?
(लेखक जाने-माने अर्थशास्त्री, कृषि मामलों के जानकार और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)