इस विधेयक के तहत न्यूनतम 1,30,000 डॉलर वेतन वाली नौकरियों के लिए ही एच1-बी वीजा दिया जा सकता है। यह मौजूदा न्यूनतम वेतन स्तर के दो गुना से भी ज्यादा है और इसके लागू होने पर अमेरिकी कंपनियों के लिए अमेरिका में भारत सहित विदेशी कर्मचारियों को नौकरी देना मुश्किल हो जाएगा।
इस नए बिल से भारत की इंफोसिस और विप्रो जैसी आईटी कंपनियां प्रभावित होंगी। साथ ही इनसे माइक्रोसॉफ्ट, अमेजन और एपल जैसी कंपनियों की नियुक्ति प्रक्रिया भी प्रभावित हो सकती है। भारतीय आईटी कंपनियों का आधे से ज्यादा रेवेन्यू अमेरिका से ही आता है।
गौरतलब है कि एच1-बी वीजा एक नॉन-इमीग्रेंट वीजा है जिसके तहत अमेरिकी कंपनियां विदेशी एक्सपर्ट्स को अपने यहां रख सकती हैं। एच1-बी वीजा के तहत टेक्नोलॉजी कंपनियां हर साल हजारों कर्मचारियों की भर्ती करती हैं। एच1-बी वीजा दक्ष पेशेवरों को दिया जाता है, वहीं L1 वीजा किसी कंपनी के कर्मचारी के अमेरिका ट्रांसफर होने पर दिया जाता है। दोनों ही वीजा का भारतीय कंपनियां जमकर इस्तेमाल करती हैं।
इस वीजा को पाने के लिए आवेदक के पास स्नातक की डिग्री होना जरूरी है। इसे छह साल के लिए जारी किया जाता है। बाद में इसकी समय सीमा बढ़ाने का प्रावधान है।
द हाई स्किल्ड इंटेग्रिटी ऐंड फेयरनेस ऐक्ट 2017 के तहत एच-1बी वीजा के लिए 1989 से चले आ रहे साठ हजार अमेरिकी डॉलर के न्यूनतम वेतन को दोगुने से ज्यादा बढ़ाने का प्रस्ताव है। इस बिल को कैलिफोर्निया के सांसद जोए लोफग्रेन ने हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में पेश किया।
लोफग्रेन ने कहा, ‘मेरा विधेयक एच1-बी वीजा की दुनियाभर से सर्वश्रेष्ठ और उदीयमान को चुनने की मूल मंशा पर फिर से ध्यान केंद्रित करता है। साथ ही अमेरिका के कार्यबल में उच्च दक्षता, योग्यता, उच्च वेतनमान और उच्च कुशलता से परिपूर्ण कर्मचारियों को जोड़े, जो अमेरिका में नौकरियां पैदा करने में मदद करें ना कि उन्हें नौकरियों से विस्थापित करें’।
अमेरिका हर साल 85 हजार लोगों को एच1-बी वीजा देता है, जिनमें से करीब बीस हजार अमेरिकी विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर डिग्री करने वाले छात्रों को जारी किए जाते हैं।