श्रीलंका के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण करने वाले मार्क्सवादी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने एक साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर इस द्वीपीय देश की सत्ता के शिखर तक पहुंचने का रास्ता काफी उतार चढ़ाव के साथ तय किया है। इस उपलब्धि को हासिल करने की अपनी यात्रा में उन्होंने खुद को युवा मतदाताओं और पारंपरिक राजनेताओं की ‘भ्रष्ट राजनीति’ से थक चुके लोगों के लिए एक रहनुमा के रूप में पेश किया।
इस पद पर उनका पहुंचना उनकी आधी सदी पुरानी पार्टी जनता विमुक्ति पेरामुना (जेवीपी) के लिए भी एक उल्लेखनीय बदलाव है, जो लंबे समय से हाशिये पर थी। वह देश के प्रमुख बनने वाले श्रीलंका के पहले मार्क्सवादी नेता हैं।
साल 2019 में पिछले राष्ट्रपति चुनाव में केवल तीन प्रतिशत वोट हासिल करने के बाद एनपीपी की लोकप्रियता 2022 के बाद से तेजी से बढ़ी है।
राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में दिसानायके ने कहा कि वह लोकतंत्र को बचाने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करेंगे और राजनेताओं के सम्मान को बहाल करने की दिशा में काम करेंगे क्योंकि लोगों को उनके आचरण के बारे में गलतफहमी है।
इससे पहले अगस्त में ‘डेली मेल’ ऑनलाइन के साथ एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे देश में केवल एक गैर-भ्रष्ट ताकत ही भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर सकेगी। चंद्रिका (कुमारतुंगा), महिंदा (राजपक्षे), मैत्रीपाला (सिरीसेना) और गोटाबया (राजपक्षे) के शासन में 1994 से ही भ्रष्टाचारियों को दंडित करने का नारा गूंजता रहा है। भ्रष्टाचारी कभी भी भ्रष्टाचारियों को सजा नहीं देगा। भ्रष्टाचारी हमेशा भ्रष्टाचारियों की रक्षा करते हैं। भ्रष्टाचार खत्म करना एनपीपी की प्राथमिकता है।’’
दिसानायके ने मार्च में एक अन्य कार्यक्रम के दौरान इस बात पर जोर दिया था कि उनका राजनीतिक संघर्ष केवल सरकार बदलने के बारे में नहीं है बल्कि श्रीलंका के इतिहास में सर्वाधिक महत्व के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों की शुरुआत करने का एक प्रयास है।
उत्तर मध्य प्रांत के थम्बुटेगामा ग्रामीण क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले एनपीपी नेता कोलंबो उपनगरीय केलानिया विश्वविद्यालय से विज्ञान में स्नातक हैं।
वह 1987 में एनपीपी के मातृ संगठन और राजनीतिक दल जेवीपी में शामिल हो गए, जब उसका भारत विरोधी विद्रोह चरम पर था।
जेवीपी ने 1987 के भारत-लंका समझौते का समर्थन करने वाले सभी लोकतांत्रिक दलों के कई कार्यकर्ताओं को खत्म कर दिया। राजीव गांधी-जे आर जयवर्धने समझौता देश में राजनीतिक स्वायत्तता की तमिल मांग को हल करने के लिए प्रत्यक्ष तौर पर भारतीय हस्तक्षेप था। जेवीपी ने भारतीय हस्तक्षेप को श्रीलंका की संप्रभुता के साथ विश्वासघात करार दिया था।
हालांकि, इस साल फरवरी में दिसानायके की भारत यात्रा को एनपीपी नेतृत्व के भारत के प्रति दृष्टिकोण में आए बदलाव के रूप में देखा जा रहा है और यह विदेशी निवेश हितों के साथ तालमेल की उनकी इच्छा को व्यक्त करता है।
नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में जेवीपी के लोकतांत्रिक राजनीति की ओर कदम बढ़ाने के साथ ही दिसानायके को जेवीपी की केंद्रीय समिति में जगह मिली।
साल 2000 के संसदीय चुनाव में, उन्होंने जेवीपी से संसद में प्रवेश किया और वह 2001 से विपक्ष की आवाज के रूप में उभरे।
दिसानायके ने श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के साथ गठबंधन में 2004 के चुनाव के बाद उत्तर-पश्चिमी जिले कुरुनेगला से संसद में फिर से प्रवेश किया। उन्हें कृषि मंत्री नियुक्त किया गया था।
जेवीपी, उत्तर में 2004 की सुनामी राहत सहायता को लेकर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलएलटीई) के साथ एक संयुक्त तंत्र पर काम करने के मुद्दे पर सरकार से अलग हो गई। उस समय जेवीपी पर विद्रोही समूह हावी था। इसके बाद दिसानायके 2008 में जेवीपी के संसदीय समूह के नेता बन गए।
वह कोलंबो जिले से 2010 के संसदीय चुनाव में फिर से संसद के लिए चुने गए और 2014 में अपनी पार्टी के प्रमुख बने।
साल 2015 में कोलंबो से फिर से जीतने के बाद, वह मुख्य विपक्षी सचेतक बन गए। इस पद पर वह 2019 तक रहे।
वर्ष 2019 में, जेवीपी ने खुद को एनपीपी के रूप में नए सिरे से स्थापित करने का प्रयास आरंभ किया। इसने श्रीलंकाई समाज के उन वर्गों को खुद से जोड़ा जो जेवीपी के हिंसक अतीत को देखते हुए कभी भी उसके प्रति आसक्त नहीं थे। पार्टी ने लोकप्रिय सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए 1971, 1987 और 1990 के बीच दो खूनी विद्रोह का नेतृत्व किया लेकिन हर बार सरकार की सख्त कार्रवाई की वजह से वह सफल नहीं हो सकी।
दिसानायके के सामने नकदी संकट से जूझ रहे देश में आर्थिक सुधारों का भविष्य तय करने की तात्कालिक चुनौती है।
एनपीपी, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के कार्यक्रमों का विरोध करती रही है लेकिन वर्तमान में जारी कार्यक्रम का हाल ही में सशर्त समर्थन किया जाना उसमें आए एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देता है।