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संतुलन के दौर में मोदी की इस्राइल यात्रा

पहले भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित इस्राइल यात्रा 1992 में शुरू हुई लंबी प्रक्रिया की तार्किक परिणति है, ले‌किन ऐसे वक्त में हो रही है जब थोड़ा संतुलन साधने की जरूरत है।
संतुलन के दौर में मोदी की इस्राइल यात्रा

सन 1992 में कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने इस्राइल के साथ राज‌नयिक और व्यापार संबंध स्‍थापित करके अपनी ही पार्टी के तत्वावधान में लंबे समय तक चली भारत की घोषित विदेश नीति में आमूल बदलाव किया था। हालांकि इस्राइल की स्‍थापना के बाद जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने उसे 1950 में मान्यता दे दी ‌थी लेकिन फिलिस्तीन पर कब्जे और वहां से विस्‍थापन के प्रश्न पर मतभेदों के कारण यह संबंध वहीं जड़ हो गया। बाद के वर्षों में अरब-इस्राइल युद्धों में नए क्षेत्रों पर इस्राइल के कब्जे को लेकर मतभेद के कारण भारत इस्राइल संबंधों में कोई प्रगति नहीं हुई। शीत युद्ध के दौरान भारतीय गुटनिरपेक्षता और पश्चिम एशिया में इस्राइल के अमेरिकी-पश्चिमी खेमे की चौकी होने की धारणा ने भी भारत और इस्राइल में दूरी रखी। हालांकि कहते हैं कि इंदिरा गांधी ने 1971 में भारत-पाक युद्ध के वक्त इस्राइल से चुपके-चुपके मदद ली थी। इसमें न भारत की घोषित विदेश नीति आड़े आई, न इस्राइल के मित्र अमेरिका का पाकिस्तान के पक्ष में झुकाव इस्राइल के लिए रोड़ा बना।

शीतयुद्ध समाप्ति के बाद सन 1992 में संबंध खुलने के बाद से भारत-इस्राइल रक्षा सहयोग और व्यापार में लगातार बढ़ोत्तरी होती रही। सन 1992 में दोनों देशों के बीच व्यापार महज 20 करोड़ डॉलर था जो 2013 तक बढ़कर 4.34 अरब डॉलर हो गया। इस्राइल भारत को रक्षा उपकरणों के बड़े आपूर्तिकर्ता के रूप में उभरा है। एनडीए-1 के शासन में ये संबंध और बढ़े। सन 2000 में जसवंत सिंह इस्राइल जाने वाले पहले विदेश मंत्री बने।

एनडीए सरकारों के दौर में इस्राइल से संबंध ज्यादा प्रगाढ़ होने के पीछे भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के विचारधारात्मक रुझान की बड़ी भूमिका रही है। उन्हें अरब देशों और फिलिस्तीनी विद्रोहियों के प्रति इस्राइल की आक्रामक प्रतिरक्षा नीति भारत के लिए पाकिस्तान के आतंक युद्ध और कश्मीर में बगावत से निपटने के मामले में आदर्श लगती रही है। लेकिन व्यावहारिक तौर पर यूपीए की सरकार ने भी इस्राइल से सहयोग लिया क्योंकि पाकिस्तान के आतंक-युद्ध में मददगार पश्चिम एशिया के जेहादियों के नेटवर्क भेदने के लिए इस्राइल का गुप्तचर-सहयोग काम आता रहा है। रक्षा सामग्री की दृष्टि से भी इस्राइल उन्नत है। टेक्नोलॉजी के अन्य क्षेत्रों में भारत को इस्राइल से लाभ हुआ है।

वैसे पश्चिम एशिया और अरब जगत के तेल पर भारतीय निर्भरता इस्राइल के संबंधों में संतुलन की अपेक्षा रखती है। पर अभी ज्यादा संतुलन ईरान की वजह से करना पड़ेगा। ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर इस्राइल सशंकित रहा है और ईरान से हाल के दिनों मे इस्राइल के अस्तित्व को ही धमकियां मिलती रही हैं। इस कारण दुनिया के विभिन्न हिस्सों में ये दोनों देश एक तरह से आतंकी युद्ध लड़ते रहे हैं जिसका मैदान हाल में दिल्ली भी बनी थी।

लेकिन अरब जगत में और भी उग्र जेहादी आतंकवाद उभरने तथा अफगानिस्तान से वापसी की बाध्यताओं ने अमेरिका तक को ईरान से परमाणु फ्रेमवर्क समझौते के जरिये सामंजस्य बैठाने पर मजबूर किया है। अपने पुराने मित्र इस्राइल की नाराजगी मोल लेकर भी अमेरिका ने यह किया। अपने चुनाव अभियान में इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने यह गुस्सा जाहिर भी किया। ये बाध्यताएं अमेरिका की तरह भारत के लिए भी मायने रखती हैं और भारत को भी ईरान से नया सामंजस्य बैठाने के लिए प्रेरित होना चाहिए। यूपीए के वर्षों में अमेरिकी दबाव के कारण भारत ने ईरान से पाइपलाइन परियोजना हटा ली थी जिससे रिश्तों में भी शिथिलता आ गई। अब इस्राइल से निकटता भारत को फिर ईरान में अवसर न गंवाने दे, यह देखना होगा। विदेश नीति एक जगह गिरवी नहीं रखी जा सकती। पिछले दिनों एक अखबार के कार्यक्रम में ईरानी राजदूत ने जो कहा, वह गौर करने लायक हैः इस्राइल आपका मित्र है, लेकिन वह आपको अपने दुश्मन चुनने के लिएए बाध्य न करे। 

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