मोदी के एक साल के कार्यकाल के बारे में गुरुवार को ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित शिंघुआ विश्वविद्यालय के एक शोधकर्ता के आलेख में कहा गया है, एक साल पहले की अस्पष्ट विदेश नीति के साथ , अब यह साफ हो चुका है कि मोदी ने अपने दो पूर्ववर्तियों की विदेश नीति को विरासत में लिया है और इसमें अब तक कोई नाटकीय सुधार नहीं हुआ है। इसमें कहा गया है कि खास तौर पर बड़ी ताकतों की राजनीति से निपटने में उनकी (मोदी की) क्षमता से यह बात दृष्टिगोचर होती है।
वह आम तौर पर अमेरिका और जापान से बेहतर संबंध बनाना चाह रहे हैं। वह चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के साथ ही उससे आर्थिक सहयोग बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं। आलेख में कहा गया है कि मोदी के कार्यकाल में भारत की चीन नीति अभी भी पूरी तरह सुरक्षा केंद्रित है। इसके कारण चीन के साथ काम करने के लिए मोदी का विदेशी आर्थिक प्रयास सुरक्षा संस्थाओं और घरेलू कट्टरपंथियों के दबाव के कारण से जोखिम में पड़ गया है।
इसमें कहा गया है कि लोक कूटनीति के एक सफल टुकड़े के तौर पर देखा जाए तो मोदी ने चीन के अपने हालिया दौरे के दौरान घोषणा की थी कि चीनी नागरिकों को ई-वीजा सुविधा दी जाएगी। सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की सुरक्षा चिंताओं के बावजूद उन्होंने यह निर्णया किया। आलेख में कहा गया है, द्विपक्षीय आदान-प्रदान के जरिये जो मिला वह है कांफ्रेंस, कारोबार, कामकाजी वीजा। यह ऐसी स्थिति है जिससे कुछ भी बेहतर नहीं हुआ है क्योंकि ई-वीजा के दायरे में केवल पर्यटक आते हैं।
इसमें कहा गया है कि सीमा विवाद और चीन की पाकिस्तान नीति जैसी सुरक्षा चिंताओं से चीन को लेकर भारत की नीति तय होती है। आलेख में कहा गया है, यही कारण है कि यह दुष्चक्र संबंधों में सुधार को रोक रहा है। चीन जब सहयोग बढ़ाने की पेशकश करता है भारत जोर देता है कि अभी विश्वास की कमी है।
चीन भरोसा बढ़ाना चाहता है तो भारत कहता है कि चीन का पाकिस्तान के साथ संबंध है। चीन आपसी समझ की सराहना करता है और भारत सीमा विवाद पर एकतरफा सुलह चाहता है। चीन जब सीमा मुद्दों पर समझौता करना चाहता है तो भारत कहता है कि समाधान के लिए अभी विश्वास की कमी है।