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जनता का सार्क

दक्षिण एशियाई सिविल समाज ने अंध राष्ट्रवाद, संकीर्णतावाद और सांप्रदायिकता के खिलाफ लिया संकल्प
जनता का सार्क

नेपाल की राजधानी काठमांठू में 22-24 नवंबर के बीच हुए,  जन-सार्क यानि दक्षिण एशियाई सम्मेलन ने भारत-पाक सहित दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में पनप रहे अंधराष्ट्रवाद, संकीर्णतावाद और सांप्रदायिकतावाद के खिलाफ लंबा संघर्ष चलाने का ऐलान करके भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विभिन्न सरकारों के इच्छित सार्क के स्वरूप को चुनौती दी है। यहां  भारतीय वर्चस्व  के तमाम सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों का जवाब खोजने की कोशिश की गई। ये कोशिशें अलग-अलग सत्रों और विषयों में प्रतिध्वनित हुईं। सरकारी सार्क और जन-सार्क में  दृष्टि और उद्देश्य का फर्क गहरा था।  इसीलिए यहां कार्यक्रम के अंत में किसी भी देश के प्रतिनिधि न तो बातचीत से बाहर हुए और न ही किसी के प्रति कूटनीतिक विद्वेष का कोई पुट आया।

तीन दिन तक चले इस सम्मेलन में अफगानिस्तान, बांज्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका से आए विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के 2,500 प्रतिनिधियों ने 70 थीमवार सत्रों में शिरकत की। अंत में 24 बिंदुओं का एक घोषणापत्र भी जारी किया। तीन दिनों तक चले इस जन-सार्क में सबसे अहम बात जो मुझे नजर आई वह थी, दलित मुद्दों की प्रधानता। जनसार्क की शुरुआत में हुई रैली से लेकर जो समापन घोषणापत्र तक में छुआछूत मिटाने से लेकर तमाम तरह के रूपों में मौजूद मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने तथा सफाई कर्मचारियों को गरिमा और बराबरी प्रदान करने के सवालों का शामिल होना नजरिए में एक बदलाव की कहानी कह रहा है। दलित स्त्रियों पर बढ़ रही हिंसा, दलित और हाशिए के समुदायों के बच्चों की शिक्षा, जलवायु परिवर्तन और आपदा में दलितों और वंचित समुदायों के हकों का मारा जाना - यानी तमाम वृहद मुद्दों पर दलितों और वंचितों के नजरिए को इस बार जन-सार्क में जबर्दस्त जगह मिली। जनता के सार्क में एशिया फोरम फॉर दलित राइट्स (एएफडीआर) का सशक्त उदय शायद बदले हुए सार्क क्षेत्र की ओर इशारा कर रहा है। एएफडीआर के संयोजक पॉल दिवाकर ने कहा कि सार्क के तमाम देशों में अलग-अलग रूप में छुआछूत के खिलाफ संघर्ष चल रहा है और इस सवाल को मुख्य सार्क पूरी तरह से नजरंदाज कर रहा है।

दलित सवालों या अल्पसंख्यकों के अधिकारों के सवाल पर जो सत्र हुए उनमें खूब भीड़ जुटी। जनता के सार्क में पहली बार मैला ढोने के खात्मे के लिए एक अलग सत्र रखा गया, जिसका आयोजन भारत के सफाई कर्मचारी आंदोलन ने किया था। इस सत्र में बांज्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका और नेपाल के नेताओं और सफाईकामगारों ने भाग लिया और इसमें पूरे दक्षिण एशिया क्षेत्र को मैला प्रथा के तमाम रूपों से मुक्त करने का संकल्प लिया गया। इस सत्र में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ अभियान की कड़ी आलोचना हुई और इसे सफाईकामगार समुदाय को झाडू तक सीमित करने वाला बताया गया। इसमें कहा गया कि बिना जाति के खात्मे के कोई देश स्वच्छ नहीं हो सकता।

जनता के सार्क में भारत का प्रतिनिधित्व कर रही राखी सहगल ने आउटलुक को बताया कि जनता का सार्क भारतीय वर्चस्व वाले सार्क क्षेत्र की कल्पना का निषेध करता है। जन सार्कतमाम देशों के बीच बराबरी और सम्मान के रिश्ते बनाने का पैरोकार है। यहां अलग-अलग मुद्दों पर काम करने वाले संगठन इसी चाह के साथ एकजुट हुए कि दक्षिण एशिया की साझा सांस्कृतिक धरोहर और ऐतिहासिक विरासत एक। समस्याएं भी एक ही तरह की है। मालदीव का प्रतिनिधित्व कर रहे इब्राहिम इज्राइल ने कहा कि दक्षिण एशिया के देशों और विश्व में  लोगों से बड़ा राष्ट्र को बताना एक खतरनाक परिघटना है।  एक उन्मादी किस्म का अंध राष्ट्रवाद फैलाया जा रहा है ताकि हम आपस में लड़ते रहे और मालिक अमीर और अमीर होते रहें। ऐसा सिर्फ भारत में ही नहीं हो रहा है, बल्कि पूरे विश्व में और खासकर सार्क देशों में हो रहा है। इसे पहचान कर इसके खिलाफ बिगुल बजाने की जरूरत है।

जन-सार्क में भारत के सिविल समाज के स्वर निश्चित तौर पर उन भारतीय प्रवासियों के तबकों के स्वरों से मिलते जुलते हैं जो अमेरिका, फिजी, मांयमार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के दौरान उनके समर्थकों के भीड़ भरे आयोजनों के समानांतर विरोध-प्रदर्शनों में उठे थे।

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