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संविधान तलाशता नेपाल

छह साल से ज़्यादा वक़्त बीतने के बाद भी नेपाल में स्थाई संविधान बनने की सूरत नज़र नहीं आ रही है. बाईस जनवरी को संविधान निर्माण की तय समय सीमा के खत्म होने के बाद वहां राजनीतिक संकट और गहरा गया है। इसके दो दिन पहले मतभेद के चलते संसद में मारपीट तक की नौबत आ गई।
संविधान तलाशता नेपाल

छह साल से ज़्यादा वक़्त बीतने के बाद भी नेपाल में स्थाई संविधान बनने की सूरत नज़र नहीं आ रही है. बाईस जनवरी को संविधान निर्माण की तय समय सीमा के खत्म होने के बाद वहां राजनीतिक संकट और गहरा गया है। इसके दो दिन पहले मतभेद के चलते संसद में मारपीट तक की नौबत आ गई। संविधान बनाने की कोशिश में अब तक नेपाल में दो बार संविधान सभा के चुनाव हो चुके हैं। इस बीच सात प्रधानमंत्री बदल चुके हैं। पहली संविधान सभा का कार्यकाल मई 2008 से मई 2012 तक रहा। प्रारंभिक तौर पर सभा दो साल के लिए चुनी गई, लेकिन चार साल बीतने के बाद भी संविधान नहीं बन पाया। पहली सभा में प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी थी। तब आम राय न बनने से संविधान बनाए बिना ही संविधान सभा भंग करनी पड़ी थी। आखिरकार दूसरी संविधान सभा का चुनाव कराना पड़ा और जनवरी दो हज़ार तेरह में नई संविधान सभा चुनी गई। लेकिन दो साल बीत जाने के बाद अब भी संविधान नहीं बन पाया है। इस सभा में नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बन कर आई और नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी-एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी (नेकपा-एमाले) को भी पुनर्जीवन मिला और वह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी। माओवादी इस चुनाव मे तीसरे नंबर पर चले गए।

संविधान सभा में नेपाली कांग्रेस, एमाले और प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी ही निर्णायक भूमिका में हैं। तराई में काम करने वाली मधेशी पार्टियां इसमें चौथा कोण बनाती हैं। इनके आपसी मतभेद नेपाल का नया संविधान बनने में सबसे बड़ी रुकावट हैं। नया संविधान बनाने के लिए सभी दलों के बीच आम सहमित से फैसला लेना तय हुआ था लेकिन इन पार्टियों के बीच कभी आम सहमति नहीं बन पाई। माओवादी पार्टी एक संघीय नेपाल की कल्पना करती है और वहां के नृजातीय समूहों के आधार पर नए राज्य बनाने पर ज़ोर दे रही है जबकि कांग्रेस और एमाले  इस बात के पक्ष में नहीं हैं। माओवादी पार्टी और मधेशी पार्टियों के बीच नृजातीयता और मधेशी राज्य के सवाल पर मतभेद हैं। दूसरा विवाद गणतंत्र के स्वरूप को लेकर है। कांग्रेस और एमाले जहां वेस्ट मिनस्टर मॉडल के पक्ष में हैं वहीं माओवादी राष्ट्रपति प्रणाली की वकालत कर रहे हैं। तीसरा महत्वपूर्ण विवाद भारत की तरह बहुमत के आधार पर प्रत्याशियों को चुना जाए या समानुपातिक प्रतिनिधित्व की भी व्यवस्था की जाए, इसे लेकर है। 

नेपाल पर नज़र रखने वालों की भी समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर नेपाल का संविधान कब और कैसे बन पाएगा। दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर एसडी मुनि कहते हैं कि पहली संविधान सभा में संविधान को लेकर आम राय न बन पाने के कारण ही संसद को भंग करना पड़ा था इसलिए माओवादी अब भी आम राय पर ज़ोर दे रहे हैं जबकि कांग्रेस और एमाले चाहते हैं कि दो-तिहाई मत विभाजन के आधार पर संविधान बना लिया जाए। माओवादियों का कहना है कि अगर ऐसा ही था तो पहले ही बहुमत के आधार पर फ़ैसला लिया जा सकता था जब माओवादी बहुमत में थे। मुनि माओवादियों के नृजातीय पहचान के आधार पर नेपाल के भीतर नए राज्य बनाने की मांग को भी जायज ठहराते हैं। मुनि बताते हैं कि कांग्रेस और एमाले के बीच इस बात पर सहमति बनी थी कि संविधान बनने तक कांग्रेस के सुशील कोईराला प्रधानमंत्री बनेंगे और संविधान बनने के बाद कुछ वक़्त तक एमाले के केपी ओली प्रधानमंत्री बनेंगे। इस वजह से एमाले और ओली जल्द से जल्द संविधान बनाने को लेकर अड़े हुए थे।

भारत में रहने वाले नेपाली भी संविधान न बनने से चिंतित हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के नेपाली शोध छात्र कृष्णा पंत करते हैं कि लोकतंत्र में अगर आम सहमति नहीं बनती तो मतदान कराना ही सबसे बेहतर रास्ता है। लेकिन नेपाल विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं कि माओवादियों और बाक़ी दलों के बीच में जो समझौता हुआ था उसकी शर्त ही यही थी कि आम राय से ही संविधान बनाया जाएगा। माओवादी सरकार के स्वरूप वाली दूसरी मांग पर लचीला रुख अपनाने के लिए तैयार हैं लेकिन संघीयता के सवाल पर वे झुकने को तैयार नहीं हैं क्योंकि इस विषय पर दस साल के जनयुद्ध के दौरान जन आकाक्षाएं इतनी प्रबल हो चुकी हैं कि माओवादियों के लिए इसकी अनदेखी करना असंभव है। अगर वे इस विषय पर कोई समझौता करते हैं तो उनके लिए अपने कार्यकर्ताओं को जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। मधेशी संगठन भी पूरी तराई को मिलाकर एक मधेश की मांग छोड़ने के लिए तैयार हैं लेकिन कांग्रेस और एमाले आमराय नहीं बनने देना चाहते। यह ख़तरनाक है कि कांग्रेस के एक प्रमुख नेता और खुम बहादुर खड्का और एमाले के मोदनाथ प्रश्रित जैसे जाने माने लोग हिंदू राष्ट्र की वकालत करने लगे हैं। यही वजह है कि कांग्रेस और एमाले जनजातीय और वंचित समुदायों की अनदेखी करने पर तुली हुई है।

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