इस उपन्यास की मूल विषय वस्तु प्रेम है, जिसके कई आयाम हैं। बल्कि कहें कि इसका मुख्य तत्व ही प्रेम है। प्रेम और अंतरजातीय विवाह इस उपन्यास का केंद्र है। उपन्यास की नरेटर मीनल और सोफिया की कहानी अलग-अलग ढंग से परिभाषित होती है। सोफिया के बरअक्स मीनल प्रेम और अंतरजातीय विवाह दोनों में सफल रहती है, पर जैसा कि अपेक्षित है मीनल का प्रसंग गौण होकर नेपथ्य में चला जाता है। सोफिया का प्रेम और हिंदू लड़के से विवाह और उसके बाद के द्वंद्व को लेखिका ने खूबसूरती से चित्रित किया है।
नायिका सोफिया का चरित्र 180 डिग्री का टर्न लेकर अर्द्धवृत्त की यात्रा करता है। शुरुआती सोफिया बेहद दिलचस्प है। उसका फैशन सेंस मुंबई की लड़कियों से टक्कर लेता है। 'अफगान स्नो' क्रीम मीनल के मन में उसकी पहचान बन बसी हुई है। विदेशी बालाओं जैसा चेहरा होने और काजल लगाना कभी न चूकने जैसी बातें पाठक के मन में सोफिया के प्रति आकर्षण उत्पन्न करती है। बाहरी स्वरूप से प्रेरित यह आकर्षण तब और पुख्ता हो जाता है, जब पाठक सोफिया की अग्रगामी सोच और बच्चों के प्रति प्रेम से रूबरू होता है।
अपनी सोच के बावजूद सोफिया धार्मिक दीवारों के बारे में जानती है। फिर भी, अंततः सोफिया के भीतर का खिलंदड़पन तमाम अवरोधों पर विजयी रहता है और वह अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए भी अपनी भावनाओं के आगे हार जाती है। वह कहती हैं, “मैं ठीक तौर पर जानती थी कि जिस राह पर हम साथ चल रहे हैं, वह आगे जाकर अलग-अलग मुड़ने वाली है, फिर भी हम एक-दूसरे को बार-बार पुकार ही लेते थे।”
धर्म की गहरी खाई सोफिया को ले डूबती है और जब वह सतह पर लौटती है, तो एक दूसरे रूप में। इस बदलाव को मैं सोफिया का अंतर्द्वंद्व न कहकर बाहरी परिस्थितियों से जंग ही कहूंगा क्योंकि भले ही वह कितनी भी बदल गई हो, पर जिस तरह से यह चरित्र प्रस्तुत किया गया है, उसमें वह बाहरी आवरण बदल लेने पर भी स्वयं अपने भीतर उलझा हुआ नहीं लगता। कम-से-कम मुझे तो नहीं। अधेड़ हो चुकी सोफिया शृंगार त्याग चुकी है पर काजल लगाना नहीं छोड़ती; उसकी देह से अब लोबान की महक आती है; पांच वक्त की नमाजी है, पर रोजे नहीं रखती। जीवन के उत्तरार्द्ध में उस अध्यात्म लादा नहीं गया, बल्कि यह उसका अपना चयन है। स्वयं को प्रगतिवादी कहने वाले लोगों का डबल स्टैंडर्ड यहां सोफिया के पिता के चरित्र में नुमायां होता है। स्त्रियों को सिलेक्टिव 'आजादी' देने, उसका एहसान जताने और अवसर पड़ने पर बेहद संकीर्ण विचारधारा अपनाकर, उस आरंभिक 'उदारता' से पलट जाने जैसे कारण भी उत्तरदायी हैं कि भारत में फेमिनिस्ट आंदोलन को तेजी से हवा मिली है। इसी की एक और झलक मीनल की सास के रूप में मिलती है, जो क्रिश्चियन है और एक साझा देवालय की अवधारणा से सहमत नहीं है।
कथा के दोनों पुरुष प्रेमी आदर्श हैं। पूर्वार्द्ध में अपनी प्रेमिकाओं से भी अधिक निश्चय उनमें दिखाई देता है। उत्तरार्द्ध में सोफिया का प्रेमिल निश्चय उसके धैर्यपूर्वक एकाकी जीने में परिणत होता है। यह उपन्यास पाठको के मन को छूता है। छोटे शहर के पाठक यकीनन इस उपन्यास के किसी किस्से से वाबस्ता महसूस करेंगे। हर पाठक सोफिया की यात्रा में सहभागी होगा उसे सोफिया का प्रेम अपना प्रेम लगेगा। यह उपन्यास जबरन किसी आंदोलन में नहीं घसीटता, बल्कि धीरे-धीरे बांधकर वहां ले जाकर छोड़ देता है, जिस सम्यक दृष्टिकोण से सोफिया जिंदगी को देखती है।
पुस्तक : सोफ़िया (उपन्यास)
लेखिका : मनीषा कुलश्रेष्ठ
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन
पृष्ठ संख्या : 144
मूल्य : 250 रुपए (पेपरबैक)
समीक्षाः देवेश पथ सारिया
(समीक्षक ताइवान में खगोल शास्त्र में पोस्ट डाक्टरल शोधार्थी हैं और मूल रूप से राजस्थान के राजगढ़ (अलवर) के रहने वाले हैं। वरिष्ठ ताइवानी कवि ली मिन-युंग की कविताओं का 'हकीकत के बीच दरार' शीर्षक से अनुवाद की पुस्तक प्रकाशित।)