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हर विद्रोह में ‘विद्रोही’ जिंदा रहेगा

संघर्ष का नाम जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' नहीं रहे। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पिछले दो दशकों में आने वाले हजारों छात्र उनकी कविता सुनकर संघर्ष करना सीखे होंगे। 'आसमान में धान बोने वाला' ये निर्भीक कवि संघर्ष करते हुए ही मरा। सोशल मीडिया पर विद्रोही की कविताओं का उत्सव सा जारी है। आंदोलनों में उनकी कविताएं गूंजती रहती हैं लेकिन उनकी चर्चित कविताओं में ‘जब भी किसी गरीब आदमी का अपमान करती है, ये तुम्हारी दुनिया, तो मेरा जी करता है, कि मैं इस दुनिया को उठाकर पटक दूं।’, ‘मैं भी मरूंगा और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे लेकिन मैं चाहता हूं कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें, फिर भारत भाग्य विधाता मरें ’, ‘आज तो चाहे कोई विक्टोरिया छाप काजल लगाए या साध्वी ऋतंभरा छाप अंजन लेकिन असली गाय के घी का सुरमा, तो नूर मियां ही बनाते थे...’ , ‘मैं किसान हूं आसमान में धान बो रहा हूं, कुछ लोग कह रहे हैं कि पगले, आसमान में धान नहीं जमा करता, मैं कहता हूं पगले, अगर जमीन पर भगवान जम सकता है तो आसमान में धान भी जम सकता है।..’ सोशल मीडिया पर इस जनकवि को श्रद्धांजलि देने वालों का सैलाब है-
हर विद्रोह में ‘विद्रोही’ जिंदा रहेगा

स्वराज आंदोलन के संयोजक योगेंद्र यादव - जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय के 'विद्रोही' भाई नहीं रहे। जीवन भर आंदोलनों के बीच रहे, आंदोलनधर्मी कविता रचने और बांचने वाले रमाशंकर भाई कल 'ऑक्युपाई यूजीसी' के मार्च में भी शामिल हुए, उसी दौरान उनकी तबीयत खराब हुई और वह यकायक चल बसे। जब 1981 में मैं जेएनयू पंहुचा तो वह पहले से वहां थे, और उसके बाद से वह जेएनयू में ही रहे। श्रद्धांजलि। 

 

समर अनार्य- अलविदा कामरेड रमाशंकर यादव विद्रोही। आप सच में जनता के कवि थे- संघर्षों के चितेरे- जैसे जाते हैं जनता के कवि वैसे ही गए। लड़ते हुए, सड़क पर, ऑक्यूपाई-यूजीसी के लिए भिंची हुई मुट्ठियों के साथ। पर जेएनयू आज और खाली हो गया और बेगाना भी। आपके बिना गंगा ढाबा कैसा तो लगेगा। 

 

तारा शंकर- एक बार कड़कड़ाती सर्दी में विद्रोही जी को नंगे पैर देख जेएनयू में पढ़ रहीं एक विदेशी महिला साथी ने पूछ लिया कि "विद्रोही जी आपके जूते कहां गए?" तो विद्रोही जी ने कहा कि दिल्ली पुलिस को फेंककर मार दिया। अभावों के साथ जीते हुए भी संघर्षों वाले तेवर विद्रोही जी नहीं छोड़ते थे।

 

सी.दिलीप मंडल- सुनो जेएनयू के प्रोफेसरों, रमाशंकर यादव नाम का वह मासूम लड़का सुल्तानपुर, यूपी से पढ़ाई करने के लिए जनरल मेरिट से सेलेक्ट होकर जेएनयू, दिल्ली आया था। तुमने रमाशंकर यादव को पढ़ाई पूरी नहीं करने दी। निकाल बाहर किया उसे। वह अपनी डिग्री कभी नहीं ले पाया, जिसे हासिल करने के लिए वह दिल्ली आया था। क्यों प्रोफेसर, क्या विद्रोही प्रतिभा से डरते थे तुम? अपने निठल्लेपन का एहसास था तुम्हें? अपने बौद्धिक बौनेपन का भी? या किसी और बात की घृणा थी? अगर रमाशंकर में कोई समस्या थी, तो उसका समाधान क्यों नहीं किया? उल्टे उन्हें जेएनयू से खदेड़ने की साजिश की। एक हद तक कामयाब भी हुए। लेकिन यह तो तुम्हें दिख रहा होगा प्रोफेसर कि एक तरफ अपार लोकप्रियता बटोरे विद्रोही की रचनाओं हैं, और दूसरी तरफ हैं तुम्हारी किताबें, जो सिलेबस में जबरन न पढ़ाई जाएं, तो चार लोग उन्हें नहीं पढ़ेंगे। विद्रोही बिना डिग्री के तुमसे कोसों आगे निकल गया। छूकर दिखाओ। लिखो वैसी एक रचना... है दम?

 

दिलीप खान- विद्रोही पर सबका लिखा पढ़ रहा हूं कल से। आखिरी में एक ही बात कि विद्रोही मशाल थे। मशाल कैरी फॉरवर्ड होनी चाहिए।

 

इमरान प्रतापगढ़ी- नही रहे विद्रोही जी,जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पहली मुलाकात हुई थी इनसे। और आखिरी मुलाकात हुई, जब अस्पताल में मौत के बाद उनकी लाश कफन में लिपटी देखी। मन बहुत बोझिल है, आम आदमी की जंग लडने वाले कलम के इस सिपाही को आखिरी सलाम।

 

बलभद्र बिरवा- विद्रोही नहीं रहे। जाने कितनी यादें हैं, बातें हैं। जब चंदू (कॉमरेड चन्द्रशेखर) शहीद हुए थे तब किसी ने विद्रोही जी से पूछा, 'उन पर कविता नहीं लिखी?' विद्रोही ने जवाब दिया, 'अभी अमरख का वक्त है।' सो यह अमरख की घड़ी है। बहुत कुछ कहना मुश्किल है, फिर भी...

 

 एनएसयूआई जेएनयू- हर विद्रोह में विद्रोही जिंदा रहेगा।

 

 संगवारी थियेटर ग्रुप- जनकवि विद्रोही संगवारी के साथी थे, हर कदम हमारे हर गीत की प्रशंसा करते हुए, हमारे हर नए कदम को उत्साह देते हुए, हमारे हर नाटक को देख कर उसपर सकारात्मक टिप्पणी करते हुए। विद्रोही जी सही मायनो में संगवारी थे, सदा हमारे साथ चलते हुए। संगवारी की ओर से कामरेड विद्रोही को क्रांतिकारी लाल सलाम। कामरेड आपके दोनों बाघ बीड़ी पीते हुए सदा हमारे साथ रहेंगे। कॉमरेड कवि विद्रोही को संगवारी का लाल सलाम।

 

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